गांव बड़ा प्यारा, – सुषमा यादव

एक, एक करके सबके जाने के बाद, मेरे श्वसुर अकेले हो गए,,

गांव से मैं उनको लेकर म, प्र, अपने कार्य स्थल शहर में ले आई,

साथ में अपने पिता जी को भी उनका साथ देने और अकेलापन दूर करने के लिए गांव से ही ले आई,,मेरा मायका, ससुराल, पास, पास ही है,,

इनके और सासू मां, तथा मेरी मां के जाने के बाद इनकी जिम्मेदारी

तो मेरी ही बनती थी, श्वसुर जी, नब्बे साल के,, पिता जी करीब अस्सी साल के थे,, दोनों बेटियां, अपने अपने कार्य क्षेत्र में रह रही थी,,

मैं नौकरी करने सुबह जाती, दोनों को खाना खिला कर,सब व्यवस्था करके,,शाम को घर आती,, फिर वही दिनचर्या शुरू हो जाती,,सब कुछ अच्छा ही चल रहा था,,अब

दो,दो, बुजुर्ग थे, तो थोड़ी, बहुत परेशानियां तो झेलनी पड़ती थी,, स्कूल से घर आने पर दोनों एक दूसरे की शिकायत करते,, बाबू जी, कहते, तुम्हारे जाने के बाद ये

रसोई में जाते हैं, और सब डिब्बे खोलकर झांकते हैं, फिर बिस्कुट, नमकीन ले कर खाते हैं, और तो और तुम्हारी बोतलों वाली दवाइयां भी गटागट पी जाते हैं,,

मैं बोली,, अच्छा,, तभी मेरी झंडू


पंचामृत की शीशी आधी हो गई,,

मैं हंसने लगी और उनसे जाकर बोली,, बाबू,,ये तो ठीक है, कोई बात नहीं,,पर आप धोखे से कुछ और पी गये तो,, तो झट से बोले,,

,,नाही, भैया,हम नाही पिये,,ई तो

डाक्दर पियत रहें,,

दरअसल,, पिता जी,विटनरी डाक्टर थे, तो सब उन्हें डाक्टर ही

बुलाते थे,,

एक बार श्वसुर जी जल्दी से आये,

और सोचे कि मैं घर पर नहीं हूं , एक बोतल उठाई और मुंह में दवा

भर ली,अरे रे,यह क्या, झटाक से वही सब उड़ेल दिया,,पलटे तो मैं

पीछे खड़ी,,सिर नीचे झुका लिया,पर मैं खिलखिला कर हंस पड़ी,, बाबू,, ये करेले का जूस था,, वो किसान आदमी, पढ़े लिखे नहीं थे,,इस पर भी वो पिता जी को ही दोषी करार देते,, हां, हां,डाक्दर तो पढ़ें हैं, पेंशन पाते हैं,हम तो ठहरे देहाती,,

कभी पिता जी की शिकायत करते,,,ई,हमका चाय नाही,बनउते,, काफी पियत हैं,तऊन हमऊ का काफ़ी पियावत हैं, मैं हंस कर कहती,,आप काफी और चाय दोनों का स्वाद ले लिया करिए,, मैं तो आकर आप को चाय देती हूं ना,, पड़ोसी सुनते, तो , कहते,आप इन दोनों को कैसे संभाल लेती हैं,, मैडम,, मैं बोलती

ये  दोनों बच्चे हैं मेरे,, मेरी ज़िम्मेदारी हैं,, मुझे ही तो सौंप कर गये हैं सब,,दोनों टी. वी. देखते,, बाहर बैठ


कर अपने अपने गांव, खेत खलिहान की बातें करते,,इसी बीच श्वसुर जी दो बार अस्पताल में भर्ती भी हो गये,, पुराने समय के पहलवान थे,, हट्टा कट्टा शरीर,

कभी बुखार भी नहीं आई,,पर जाने‌ क्यों, एक पैर सूज के गुब्बारे की तरह फूल जाता, और आपरेशन कराना पड़ता, खैर, इसी तरह‌ हम तीनों की ज़िन्दगी बीत रही थी,,

*******””””*****””””***””***,,

कुछ दिन बाद लगा कि बाबू,, श्वसुर जी,, बिस्तर पकड़ रहे हैं,,

मैं उनको बाबू ही‌ कहती थी,,

पूछा तो बोले,कि गांव कब चलोगी,, मैंने कहा कि  दिवाली की छुट्टी में,,, बोले, हमें पहुंचा दो,

हमारी धान की फसल कटने वाली है,,,, बाबू, अब वहां कौन है,आपको कौन देखेगा,, अकेले कैसे छोड़ दूं,,

उस साल से ‌दिवाली  की छुट्टी  केवल पांच दिन की होने लगी,

हम गांव नहीं जा पाये,,,

अब बाबू ने सचमुच बिस्तर पकड़ लिया,, धीरे धीरे खाना, पीना,सब छूट गया,, उनके मुंह में चम्मच से चाय, पानी, खाना,सब दिया जाने लगा,, बिल्कुल छोटे बच्चे बन गए थे,सब बिस्तर पर,,, इतना भारी शरीर, इतनी मुझे परेशानी होती थी,कि आप अंदाजा नहीं लगा सकते थे,, सुबह साफ, सफाई करके,खिला,पिला कर स्कूल जाती, पिता जी को सहेज कर जाती,,

रात भर उठ,उठ कर उन्हें देखती, ऐसा लग रहा था कि दिनों दिन वो

गंभीर होते जा रहे हैं,,

एक दिन इनके आफिस के एक क्लर्क देखने आए, और बोले कि, मैडम जी, लगता है कि ,इनका अंतिम समय आ गया है, चाय, पानी,पिलावो तो बाहर गिर रहा है, अंदर जा ही नहीं रहा है, आंखें भी नहीं खोलते हैं,,

मैं घबरा गई और रोने लगी,,अब अकेले मैं कैसे करूंगी, विजय,।

वो बोले,, देखिए, मैडम, आपका यहां कोई भी रिश्तेदार नहीं है, इन्हें कुछ हो गया, तो आप इस दिसंबर के महीने में भयंकर ठंड में क्या करेंगी,, इन्हें लेकर इतनी दूर गांव कैसे जायेंगी,, ऐसा करते हैं कि चलिए,अभी ही ले चलते हैं,

मैंने गांव फोन किया ,जो हमारे रिश्तेदार थे और हमारा खेत अधिया पर लिए थे,, मैंने कहा कि,,ये मुझसे नहीं संभल रहे हैं, कोई आ जावो इनकी देखभाल करने के लिए,, उन्होंने ज़बाब दिया,, यहां सब देखना पड़ता है,, आप उनको यही पहुंचा दो,हम सब उनकी देखभाल कर लेंगे,,

मज़बूरी में हमें उनको ले जाना पड़ा,,मैं बहुत रो रही थी, मेरे अकेले के लिए वो मेरे लिए बड़ा सहारा थे,मैं तो बिल्कुल ही अकेले रह जाऊंगी,, हमने उन्हें कई लोगों की सहायता से पीछे कार में लिटाया, साथ में गंगा जल और तुलसी रखा, और चल दिए, अपने गांव प्रतापगढ़,,

अब मैं जो बताने‌ जा रही हूं,आप शायद विश्वास नहीं करेंगे,,पर करना पड़ेगा,,,,,,

हमारी कार जब चाकघाट पहुंची,

तब विजय ने कहा,कि चाय पी ली

जाये,,,हम जब गांव जाते तो यहां


जरूर रूकते थे, दोनों को चाय, नाश्ता, और रसगुल्ले खिलाते थे,

पीछे से बड़ी तेज़ी से आवाज आई,,, भैया,,हम समोसा औ, रसगुल्ला खाब,,चाय भी पिअब,,

हम सब आश्चर्य से एक दूसरे का मुंह देखने लगे,, जल्दी से मैं पीछे गई,, बाबू,,आप ठीक हो,घर में तो,, बोले, हमका का भा है,हम बिल्कुल ठीक हैं ,, हमें इनके जाने के बाद वो , भैया,ही कहते थे, पहले ‌तो दुलहिन या मस्टराईन कहते थे, शायद भैया कहने से अपने ‌बेटे की याद में दिल को राहत मिलती होगी,,

मैंने हैरत से पूछा,आपको उल्टी, दस्त, होगा,आप बस चाय पी लो,पर वो नहीं माने,, विजय ने कहा,, शायद इनकी अंतिम इच्छा हो, खिला देते हैं,वो बकायदा उठ कर खाये,, फिर लेट गए,,हम मुड़ मुड़ कर सारे रास्ते उनकी सांसें गिनते रहे,,

हम रात करीब सात बजे गांव पहुंचे,, हमारे पहुंचते ही सब लोग भागे,भागे,आये, औरतें तो नाटक करके रोने गाने लगी,, सबने मिलकर बाबू को उतारा, अंदर लिटाया, और घेर लिया,,इतने में

बाबू उठ कर बैठ गए, और सबसे उनका हालचाल पूछने लगे,,, भैया, अनूप, दिलीप,सब कैसे हो,

धान कट गवा कि नाही, गेहूं बो दिए,,,हम तनी बाहर जाब,,सब पकड़ने दौड़े तो बोले,,अरे,हम चले जाब,,,,अब हमें कांटों तो खून नहीं,,हम और विजय एक दूसरे को विस्फारित नेत्रों से देख रहे थे,, मेरी आंखों में सबके सामने अपमानित होने के कारण आंसू बाहर निकलने को बेताब हो रहे थे, मुझे लगा कि ये सब सोचेंगे

कि मैं इन्हें अपने पास रखना नहीं चाहती, इसलिए बहाना करके यहां ले आई, हमने सबको बहुत सफाई दिया कि सच में ये बहुत गंभीर हालत में थे,,हम गंगा जल, तुलसी लेकर चले थे,, इन्होंने हमारे साथ ऐसा नाटक क्यों किया,,, सबने पूछा कि ,बाबा, क्यों परेशान किए थे,,,

,, बाबू बोले,,,अरे हम इनका कहे, हमें गांव पहुंचा दो, तो नहीं सुनी,,

तो हम ऐसे खेला खेले,,कि इनका हमका जबरन ले कर आना पड़ा,

मैंने आश्चर्य चकित हो कर कहा,कि आपने मुझे कितना परेशान किया,, आपको मेरे ऊपर जरा भी दया नहीं आई,, बोले कि,देखा, भैया,,ये गांव में हम खेले, बड़े हुए,हमारा खेत, खलिहान,बाग बगीचे,सब यहां है,हम शहर में कैसे रह सकते हैं,

हम यहीं रहेंगे, चाहे खुश रहा,चाहे नाराज़,,,हम क्या बोलते, सबको सहेज कर उनके खाने पीने की , सेवा करने की व्यवस्था करके बदले में प्रति महीने एक निश्चित रकम देने की बात करके हम वापस लौट आए,, इसके बाद हमारे ड्रामेबाज प्यारे श्वसुर जी लगभग आठ साल रहे, और अंतिम समय हमसे कोई भी सेवा नहीं करवा कर गए,,

इस कहानी के माध्यम से मैं यही कहना चाहता हूं कि, जिनके घर में ऐसे बुजुर्ग माता पिता हैं, तो उनकी मानसिकता को हमें समझना होगा,, वो क्या चाहते हैं,, क्यों उदास हैं, हमारे साथ क्यों नहीं,तादम्य बिठा कर चल रहें हैं,, यदि वो स्थान बदलना चाहते हैं तो कुछ दिन के लिए उनको भी उनके मनचाहे स्थान पर हम‌ भेज सकते हैं,, वातावरण बदलेगा तो वो भी खुश हम भी ख़ुश,,, जैसे कि अब मैं अपने पिता जी को कुछ दिन के लिए दिल्ली से ले जा रहीं हूं,, यहां उन्हें

घुटन हो रही है,,ऊब रहे हैं,, मैं अपनी अस्वस्थता के चलते जाना नहीं चाहती पर उनकी खुशी के लिए, बदलाव करने जा रही हूं,,

ये बहुत जरूरी है ना,,,

आपके प्यारे , कमेंट्स  का हमेशा की तरह बेसब्री से इंतजार रहेगा,,

अपना अमूल्य समय देकर आप मेरी कहानी को पढ़ कर मुझे अनुग्रहित करते हैं, तो मेरा भी फ़र्ज़ बनता है कि मैं आपके खिदमत में दो शब्द धन्यवाद , आभार पेश कर सकूं और आपका शुक्रिया अदा कर सकूं,,

आपका मुझे प्रोत्साहित करने और मेरा उत्साह वर्धन करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आभार आपका

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