फिर मिलेंगे ! – अनिल कान्त 

लगता नही था ये क्रिसमस ईव से पहले का दिन है । ठीक उसका दिसम्बर न लगने जैसा । जब तक कोई खुद से न कहे कि यह दिसम्बर है । सड़क का एक छोर आते-आते पुल पर ख़त्म होता था । सड़क कहाँ ? शायद पगडण्डी कहना ठीक हो । जो वह पहले कही जाती रही थी । पुल के नीचे नदी सुस्त सी बही जा रही थी । लगता था जैसे बेमन बही जा रही हो । सुबह की पीली धूप पेड़ों के शिखरों पर से छितरकर पुल पर आ रही थी । फिर से याद हो आया था कि यह दिसम्बर है, क्रिसमस ईव से पहले का दिन ।

समय जो बेपरवाह सा अचानक आ जमा हुआ था । ठीक दो शब्दों के बीच विराम की तरह । विराम से पहले का समय जो बीत गया था-बीता हुआ समय । विराम के उस ओर-आने वाला समय और मध्यस्थ में खड़ा हुआ ये समय । ठीक पुल पर खड़ा हुआ, नदी के साथ बहता हुआ और पीली धूप के साथ उतरता हुआ ।

पास ही की दुकानों पर भीड़ रेंगने लगी थी । क्रिसमस ईव से पहले की भीड़ । हँसती हुई, खिलखिलाती हुई, चुप सी, खामोश सी, बातें करती हुई, मद्धम-मद्धम बहती सी । क्रिसमस के दिसम्बर का एहसास कराती सी ।

आते जाते लोगों के चेहरों में से एक चेहरा यूँ ही ऊपर उठ कर कहता सा जान पड़ता है-‘हम फिर मिलेंगे ।’ चहरे…शब्द…फिर चेहरे…फिर शब्द । उसके शब्द मेरे पास थे । उन सिक्कों की तरह जिन्हें बच्चे बार-बार अपनी जेबों से निकालकर देखते हैं कि ‘सलामत तो हैं ।’

यह समय था और इसके परे वह बीता हुआ समय, जब उसने कहा था-‘हम फिर मिलेंगे ।’ आज ही के दिन, इसी पुल पर । यह कोई वादा नही था । बस उस समय के शब्द थे । जिन्हें मैं स्मृति पर से उलट-पलट कर के छू कर देख रहा था -‘हम फिर मिलेंगे ।’




बीते हुए पाँच वर्षों के बाद भी वहाँ सर्दियों का वह मलिन आलोक मौजूद था । जैसे वे पाँच वर्ष कुछ भी नही । होते हुए भी आज उनका होना कुछ न था । ठीक स्मृति पर से बीते हुए समय की तरह ।

मैं सोचता हूँ- अगर मैं चाहूँ तो याद कर सकता हूँ । सब कुछ । नही, शायद सबकुछ नही । उसका चेहरा नही । उसका वो चेहरा तो उस बीते हुए समय के साथ चला गया होगा । बीता हुआ चेहरा । और जो आने वाला समय है, उसके साथ का वो चेहरा मैं याद कैसे कर सकता हूँ । याद तो हमें वही रहता है जो बीत गया है । बीते हुए समय के साथ बीता हुआ ।

काफी समय था जो आकर पास जमा हो गया था । बीता हुआ समय भी और आने वाला समय भी, जिसे मुझे बीते हुए समय में परिवर्तित करना था । मुझे एक ही समय में अपने दो चेहरे नज़र आ रहे थे । एक वो जो बीते हुए समय के साथ था और एक वो जो आने वाले समय के साथ जुड़ा हुआ था ।

मैं जब सोच से परे इस ओर आया तो देखा कि बीते हुए समय के साथ पुल बारिश में नहा चुका था । मैं सोच और पानी से भीग चुका था । बारिश के बाद मौसम खुल गया था । ज्यादा नही । उतना ही, जिसके होने से शहर की छतें धुल जाती हैं और एक उजलापन नज़र आता है । स्वच्छ और उजला आलोक फ़ैल गया था ।

सहसा मेरे कंधे पर पीछे से किसी ने हाथ रखा । एक ठिठका हुआ हाथ, जो उस नीरव आलोक में मौजूद था । ठीक मेरे कंधे पर । महसूस किया हुआ सा । ठीक बीते हुए समय के जैसा । जिसे हम बाद में महसूस कर सकते हैं ।




वो हाथ वही थे जो मेरे पीछे मुड़ने के साथ ही उस आने वाले समय को साथ ले आये थे । उस समय में अब मैं था, वो थी । आस-पास शब्द तैरने लगे थे -‘हम फिर मिलेंगे ।’ बीते हुए शब्द । जो उसके आने के साथ ही बीते हुए हो गये थे ।

दो नन्ही आँखें मुझे उसके आँचल के पीछे से निहारती दिखीं । एक क्षण वह मुझे सहमा सा निहारता रहा । उसका चेहरा उत्सुक और बहुत उजला सा था । उत्सुक, शायद मेरी पहचान की खातिर । अगले क्षणों में मुझे ज्ञात हो चला था कि वह उसका लड़का है । चार बरस से कुछ कम । यह उसकी उम्र रही होगी । वह अब वहाँ मौजूद थी, उन शब्दों के साथ -‘हम फिर मिलेंगे ।’ वह शब्द जो बीते हुए समय की निशानी थे और इस वर्तमान समय की सच्चाई ।

आसमान में जगह-जगह कुछ दूरी पर बादल के सफ़ेद टुकडे मौजूद थे -खरगोश की शक्ल के । बिलकुल उसी की तरह के सफ़ेद, उजले । पुल की ओर आने वाली सड़क पर बारिश के बाद के चहबच्चे जमा हो गये थे । चारों ओर एक नीरव आलोक था । धूप और बारिश के बीच का आलोक ।

जब दो इंसान एक साथ बैठे हों । एक ही समय में, अपनी किसी पुरानी पहचान के साथ, तो जरूरी नही वह कुछ कहें । क्योंकि वह फिर सिर्फ कहना भर रह जाता है । होता कुछ नही है । न कहने के इस पार और न कहने के उस पार । न तो वे शिकायत करते और न ही कोई कारण जानना चाहते कि ऐसा क्यों हुआ ! सब कुछ उस चुप सी ख़ामोशी तले दबा रह जाता है और फिर हवा में भाप की तरह उड़ जाता है ।

मैं पुनः उसी पुल पर से उस पगडण्डी सी सड़क पर उन दोनों को जाते हुए देख रहा हूँ । पुल पर से उतरते हुए वे दोनों एक पल के लिये मुड़े थे । तब उस नन्हे हाथ ने खिलखिलाते हुए कहा था -‘हम फिर मिलेंगे ।’ अपनी अभी के इस बीते हुए वक़्त के साथ की पहचान की खातिर कहे गये वे शब्द -‘हम फिर मिलेंगे ।’




सूरज दूर पेड़ों की ओट में छुपने लगा था । धीरे-धीरे उतरता हुआ । अलविदा कहने से पहले मुस्कुराता सा हुआ । सर्दियों के दिसम्बर का वह उतरता हुआ सूरज आने वाली चाँदनी को मद्धम-मद्धम फैला रहा था ।

मैं वही खड़ा था । उसी पुल पर से उस पगडण्डीनुमा सड़क पर उन्हें जाते हुए देखता हुआ । शब्द फिर से अब बीते हुए वक़्त के साथ जुड़ गये थे -‘हम फिर मिलेंगे ।’

अनिल कान्त

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