फ़ैसला – प्रीति आनंद अस्थाना

“मैं नहीं रह सकता अब एक भी दिन इस जाहिल औरत के साथ! इसके शक्ल से चिढ़ हो गई है मुझे!”

अविनाश की तेज आवाज़ सुन शोभना जी ड्रॉइंग रूम में पहुँची तो वहाँ का नज़ारा कतई ख़ूबसूरत नहीं था। काँच के टुकड़े ज़मीन पर बिखरे हुए थे। कार्पेट गीला हो रहा था। अविनाश का चेहरा ग़ुस्से से लाल हो गया था। शुभ्रा सहमी-सी पीछे खड़ी थी।

“क्यों चीख़ रहा है? क्या हुआ?”

“मम्मी अब पानी सर के ऊपर आ गया है, अब हम दोनों का साथ रहना नामुमकिन है। गरम पानी माँगा था गरारे के लिए, खौलता पानी ले आई! मुँह जल गया!”

शुभ्रा ने अपना पक्ष रखा,

” पर मम्मी, मैंने तो रोज़ की ही तरह तीस सेकंड गरम किया था माईक्रोवेव में, ज़्यादा गरम कैसे हो सकता है?”

“देख रही हो मम्मी, कैसे कैंची की तरह जबान चलने लगी है इसकी! कुछ करना होगा इसका!”

” देख रही हूँ। ये रोज़-रोज़ का हंगामा क्यों हो रहा है, समझ भी रही हूँ। आज शाम को जब तू दफ़्तर से लौटेगा, तब तक फ़ैसला हो जाएगा।” कहती हुई शोभना जी अपने कमरे में चली गईं।

शोभना जी को  इस बात का अंदेशा पिछले छह महीने से था। अविनाश के दफ़्तर में उसके बचपन के स्कूल की एक क्लासमेट, रीना ने जॉयन किया था। शुरू में तो अविनाश ने उन सबसे उसे मिलाया, एक-दो बार खाने पर घर भी बुलाया। पर धीरे-धीरे उसे बुलाना, उसके बारे में बातें करना बंद कर दिया। रीना अभी तक अविवाहित है जानकर शोभना जी का मन सशंकित था। पर होनी को कौन टाल सकता है?



आए दिन अविनाश ने शुभ्रा पर ग़ुस्सा करना, भला-बुरा कहना शुरू कर दिया था। उन्हें उसके  रीना के साथ उठने-बैठने, साथ-साथ घूमने-फिरने की ख़बर मिल गई थी। और भी बहुत-सी बातों की जानकारी भी उन्हें मिलती रहती थी।

शुभ्रा, जिससे न तो कभी शोभना जी को कोई शिकायत रही, न ही अविनाश को, समझ नहीं पा रही थी कि उससे क्या गलती हुई है, वह क्या करे? उसके पास इस घर के अलावा कोई ठौर-ठिकाना भी नहीं था। मायके में सिर्फ़ भैया-भाभी थे और उनकी आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी। वह अपने छोटे-छोटे दो बच्चों को लेकर कहाँ जाएगी? वैसे उसे अपनी सास पर पूरा भरोसा था कि वो उसके साथ कुछ बुरा नहीं होने देंगी।

“मम्मी, आपने इसे घर से निकाला नहीं? आपने सुबह मुझसे कहा था!” शाम को घर में घुसते ही अविनाश उबल पड़ा।

“निकाला? निकालने की बात तो नहीं हुई थी, फ़ैसला करने की बात हुई थी और मैंने फ़ैसला कर लिया है। बहु को निकाल नहीं सकते क्योंकि ये घर अब उसका है।” कहते हुए उन्होंने शुभ्रा को एक लिफ़ाफ़ा पकड़ाया। “मैंने ये घर शुभ्रा के नाम लिख दिया है। अब तुम्हें कहाँ रहना है, क्या करना है, ये फ़ैसला तुम करो।”

“यह आप क्या कह रही हो मम्मी? आप ऐसा कैसे कर सकती हो? मैं इस घर का वारिस हूँ। आपका ….”

“अगली पीढ़ी के वारिस को तो बहु ही पाल रही है। तुम्हारा तो कोई योगदान है नहीं उसमें! तुम्हें तो मौज-मस्ती से ही फ़ुरसत नहीं! कर्तव्य कैसे निभाओगे?”

“मम्मी मैं आपका बेटा हूँ। आप मेरे साथ…”

“बेटा हो इसीलिए मैंने पाल-पोस कर तुम्हें बड़ा कर दिया। अच्छी शिक्षा दी, संस्कार भी अच्छे ही दिए थे। पर….  ख़ैर, मेरा कर्तव्य पूरा हुआ। अब जब, इस उम्र में, मुझे सेवा-सुश्रुषा की ज़रूरत है तो वह सब तो बहु ही कर रही है, तुम्हें तो घर के लिए वक़्त ही नहीं!”

“मम्मी आपने मेरे साथ अच्छा नहीं किया! मैं जा रहा हूँ, इसके साथ अब, एक छत के नीचे और नहीं रह सकता।”

” ये तुम्हारा भी घर है, मेरे लिए तुम और शुभ्रा अलग नहीं हो। इस घर के दरवाज़े तुम्हारे लिए सदा खुले रहेंगे। और हाँ, एक बात और…. अपनी दोस्त … क्या नाम है?…हाँ, रीना! उसको भी बता देना कि ये पाँच करोड़ का बंगला मैंने बहु के नाम लिख दिया है!”

स्वरचित

प्रीति आनंद अस्थाना

3 thoughts on “फ़ैसला – प्रीति आनंद अस्थाना”

  1. बहुत ही सटीक फैसला
    स्टोरी काबिले तारीफ और सुस्वागतम् योग्य

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