फैसला – चेतना अग्रवाल

“मैं खुद के लिए क्यों आगे नहीं बढ़ सकती। क्या सारी जिंदगी मैं उसी गम में जीती रहूँगी। क्या मुझे कोई अधिकार नहीं है अपनी खुशियों को जीने का… आखिर कब तक मैं परिवार और सबकी जिम्मेदारियों में बँधी रहूँगी। आखिर मुझे भी अपने हिस्से की आजादी चाहिए।  जिससे मैं जो चाहे वो कर सकूँ। बस इतनी सी ही तो चाहत है मेरी।”  शाम को चाय की चुस्कियों के साथ नन्दिता  की सोच भी मन में हिलोरें ले रही थी।

 

तभी नन्दिता  का फोन रिंग करने लगा। देखा तो उसकी बेटी शिवानी  का फोन था।

 

कुछ सोचकर नन्दिता  ने फोन उठाया।

 

“हैलो, मम्मी… कैसी हो आप। सुबह भी आपको फोन किया था, लेकिन आपने फोन नहीं उठाया। क्या आपको लगता है कि मैं आपके फैसले में आपके साथ नहीं हूँ। भैया-भाभी या मेरे सास-ससुर कुछ भी कहें, लेकिन मुझे पता है कि औरत की भी अपनी कुछ जरूरतें हैं, अपनी इच्छायें हैं। कहने को हम आजाद हैं लेकिन समाज के कुछ ऐसे बंधन हैं जो एक औरत को 21वीं सदी में भी स्वतंत्रता नहीं देते। 

दूसरों के लिए तो सब प्रवचन देते हैं, लेकिन जब बात अपने घर की होती है तो सब रीति-रिवाज और शर्मिंदगी लेकर बैठ जाते हैं। मम्मी, मुझे तो अपने ऊपर शर्म आ रही है कि मैंने ये पहले क्यों नहीं सोचा। अगर मैं पहले ही ये सब कर देती तो आज इतना बड़ा खड़ा ना होता। 

मम्मी, अपने फैसले लेने के लिए आप स्वतंत्र है। किसी और की बात पर आपको ध्यान देने की जरूरत नहीं…” आखिरी लाइन शिवानी  ने बहुत जोर देकर कही, उसकी सास उसके पास ही बैठी थी। अपनी बात कहकर शिवानी  ने उन्हें भी जाते दिया कि अपनी मम्मी के फैसलों के बीच वो किसी को नहीं आने देगी।

 

शिवानी  की बात सुनकर उसकी सास मुँह बनाकर अंदर कमरे में चली गई।

 



जब शिवानी  सात साल की और उसका भाई तीन साल के थे तो उनके पिता की हार्ट अटैक से मौत हो गई। उम्र कम थी नन्दिता  की, उसके माता-पिता ने दूसरी शादी के लिए बहुत जोर ड़ाला, लेकिन अपने बच्चों के लिए सौतेला पिता नहीं लाना चाहती थी। ससुराल वालों उसकी सहायता करने से इंकार कर दिया।

 

सहेली की मदद से एक कॉलेज में लेक्चरर की नौकरी लगी। अस्थायी नौकरी में वेतन भी ज्यादा नहीं मिलता। वो तो रितेश  ने पहले ही घर और कुछ पैसे बच्चों की पढ़ाई के लिए जोड़ रखा था, इसलिए नन्दिता  को इन सबसे बेफिक्री मिल गई।  लेकिन दो बच्चों के साथ अकेले जीवनयापन करना बहुत आसान नहीं था, वो भी इतने कम वेतन पर…

 

नन्दिता  हर कदम पर बच्चों की खातिर अपनी खुशियों की कुर्बानी देती आई, वैसे तो रितेश  के जाने के बाद उसने अपनी सारी इच्छाओं को दिल में बंद करके रख दिया था।

 

धीरे-धीरे उसकी नौकरी स्थायी हो गई। अब तो उसका वेतन भी बढ़ गया और कॉलेज कैम्पस में ही रहने को मकान भी मिल गया। अब उसे बच्चों के अकेले रहने की इतनी समस्या नहीं थी। बीच-बीच में घर आ जाती थी।

 

बड़े होकर दोनों बच्चे इंजीनियर बन गये। शिवानी  ने तो माँ का त्याग और बलिदान देखा था, वो माँ से बहुत जुड़ी थी। लेकिन कमल , उसने तो होश सँभालने से माँ को अपने फर्ज  पूरे करते ही देखा था, जो हर माता-पिता का होता है। वो अपनी माँ की भावनाओं से कभी जुड़ नहीं पाया।

इंजीनियर बनने के बाद उसकी नौकरी विदेश में लगी तो वहीं जाकर बस गया। अब अपने बीबी को भी अपने साथ ले गया। अब माँ की याद तो महीने-20 दिन में ही आती है।

 

नन्दिता  भी ज्यादा नहीं सोचती। सबकी अपनी जिंदगी है अपनी इच्छायें हैं। जबरदस्ती किसी को नहीं बाँधा जा सकता।

 

अब तो नन्दिता  कॉलेज की एच ओ डी बन गई है। कॉलेज के बच्चों का लिए सोचते-सोचते उसकी मुलाकात एक समाज सेवा संगठन से हुई। समय बिताने के लिए नन्दिता  उस संगठन का हिस्सा बन गई।

 

अपने आप को व्यस्त रखकर शायद अपने अकेलेपन का दर्द कम करना चाहती थी।

 

उसी संगठन के प्रोग्राम के दौरान उसकी मुलाकात नितिन से हुई।  एक-दूसरे के साथ विचारों का आदान-प्रदान होते कब मुलाकातें बढ़ने लगी। दोनों को ही इसका एहसास नहीं हुआ।

 

दो दिन पहले शिवानी  के ससुर ने उन दोनों को कॉफी हाउस में देख लिया था। एक ही शहर में कब तक ये बात छुपती। वैसे तो नन्दिता  ने शिवानी  से कभी ये सब छुपाना नहीं चाहा था। नितिन के बार में नन्दिता  ने शिवानी  और कमल  दोनों को बता रखा था। लेकिन बाकी सबके सामने बात इस तरह आयेगी, ये नन्दिता  ने कभी नहीं सोचा था।

 

शिवानी  के ससुर ने घर जाकर शिवानी  को बहुत सुनाया। शिवानी  के ये कहने पर कि ये मम्मी का अपना फैसला है वो इस बारे में कुछ नहीं बोलेगी तो उसकी सास ने नन्दिता  को ही फोन करके बहुत बुरा-भला कहा। उसके बाद शिवानी  के ससुर ने कमल  को भी फोन करके सारी बात कह दी।

कमल  ने अपनी माँ को फोन करके अपनो इज्जत और सम्मान का गाना गा दिया।

 



नन्दिता  को समझो पर बहुत गुस्सा आ रहा था, पहले तो अगर एक आदमी और एक औरत कॉफी हाउस  में मिल रहे हैं तो जरूरी नहीं उसका मतलब गलत ही हो। जबकि समाज सेवा की वजह से उसका काम ही ऐसा है।

 

लेकिन अगर नन्दिता  और नितिन के मन में कुछ भावनायें हैं भी तो इस तरह हंगामा करने की क्या जरूरत… ये उसकी जिंदगी है तो फैसला भी उसका ही है।

 

वो किसी बंधन में नहीं… रिश्तों के बंधन हैं तो अपने सभी रिश्तों को उसने बखूबी निभाया है और निभाती रहेगी। लेकिन जिंदगी में एक मुकाम के बाद आगे बढ़ने का उसे भी अधिकार है। पहले माता-पिता का बंधन, फिर पति और ससुराल का… फिर बच्चों की जिम्मेदारियाँ निभाते-निभाते अपने आप को भूल ही गई। आज अगर उसे अपने हिस्से की स्वतंत्रता चाहिए तो उस पर भी रूढ़ीवादिता और समाज की बेड़ियाँ क्यों ड़ालनी… नहीं अब वो किसी बंधन में नहीं बँधेगी।

 

बच्चे अपनी गृहस्थी में खुश हैं। उसे भी जीवन की इस संध्या में किसी का साथ चाहिए तो इसमें किसी को क्या परेशानी… मुझे अपने हिस्से की स्वतंत्रता चाहिए और इसे मैं लेकर रहूँगी।

 

“तूने ठीक कहा शिवानी , हम औरतें भी अपने फैसले लेने के लिए स्वतंत्र हैं, इतनी आजादी तो है हमारे पास… समाज तो हर हालत में उंगली उठाता है। जब मैं अकेली थी, तब कोई नहीं था मेरे साथ कहने के लिए कि मैं हूँ ना…

 

आज जब मैं अपने लिए कोई फैसला लेना चाहती हूँ तो सब बोल रहे हैं। अभी तक तो मैंने अपने और नितिन के रिश्ते के बारे में सोचा नहीं था, लेकिन आज मैंने उनके साथ जिंदगी बिताने का फैसला ले लिया है।”

 

कहकर नन्दिता  ने फोन रख दिया। अब वो संतुष्ट थी, क्योंकि उसके मन से समाज की सोच के बादल हट गये थे। शिवानी  भी अपनी माँ का फैसला जानकर बहुत खश थी, अब वो भी अपनी माँ की तरफ से बेफ्रिक हो गई थी।

 

नन्दिता  ने नितिन को फोन करने चे लिए फोन उठा लिया था, आखिर नितिन को भी तो अपना फैसला बताना था। चल पड़ी थो नन्दिता  अपनी चाहत को अपनी जिंदगी बनाने…

 

सखियों  कैसी लगी मेरी कहानी। लाइक और कमेन्ट करके बताइए।

 

धन्यवाद

 

चेतना अग्रवाल

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