एक सुबह ऐसी भी – विजया डालमिया  

तेज बारिश की आवाज से मेरी आँख खुल गई। देखा तो 5:00 बज रहे थे। बालकनी में अंधेरा था। सोचा चलो उठ ही जाते हैं। बरसते पानी में जब सब सो रहे हो अकेले यादों में भीगने का मजा ही कुछ और है। बस यही सोच कर उठी और लाइट की तरफ हाथ बढ़ाया तभी बत्ती गुल ।ओ तेरी। कोई बात नहीं। दिल को समझाया ….यादों की रोशनी तो है और बालकनी में जाकर बैठ गई .तभी पाँव पर कुछ रेंगता सा महसूस हुआ। देखा तो एक छोटी सी छिपकली नजर आई ।

तुरंत चीखते हुए खड़ी हुई और हड़बड़ाहट में पीछे रखे गमले से जा टकराई। चीख इतनी जोर से कि हमारे पतिदेव की आँख खुल गई । ….”क्या हुआ?… क्या हुआ? कहकर बालकनी में चले आए। मैंने खिसियाकर कहा ….”कुछ नहीं”। तो बोले….” इतनी सुबह  बालकनी में क्या कर रही हो”? मैंने कहा…. वह बारिश आ रही है इसलिए……”।….. हाँ …तो क्या हुआ”? उन्होंने पूछा। मैंने कुछ नहीं कहा। बालकनी से  रूम में आकर बैठ गयी।

तभी लाइट भी आ गई। पतिदेव ने चाय की फरमाइश कर दी। मैंने कहा …..” अभी?इतनी जल्दी”? तो बोलने लगे …..” आज तुम जल्दी उठ गई हो ,तो तुम बना दो”। चाय बनाने गई तभी सिलेंडर खत्म हो गया। सिलेंडर बदलकर चाय  बना ही रही थी कि  उन्होंने आवाज लगाई…. “एक बार इधर आना” जल्दी में जाते-जाते डाइनिंग टेबल की कुर्सी से ठोकर लग गई ।थोड़ी झल्लाकर मैं  इनसे बोली….. “बोलिए, क्या बात है”? पर तभी इनका कोई फोन आ गया और यह फोन में बिजी हो गए।

फिर किचन में आकर देखा तो चाय फट गई थी और साथ ही मेरा मन भी। उपर से इन्होंने कह दिया….” बिना मन के बनाओ तो ऐसा ही होता है”। मैंने कहा कुछ नहीं, पर खिन्न और छिन्न मन लिए मैं ड्राइंग रूम में आकर बैठ गयी ।बारिश का बरसना जारी था और मेरा भी क्योंकि तभी महरी का फोन आ गया कि …..”दीदी ,आज हम नहीं आ पाएंगे ।बारिश बहुत ही हो रही है “।बिखरे बर्तन और बिखरे घर के साथ ही मेरा मन भी बिखरने लगा। आँखों में आँसू की बूँदा -बाँदी शुरू हो गई

।तभी इन्होंने आकर कहा …..”चलो मौसम बड़ा अच्छा है। लॉन्ग ड्राइव पर चलते हैं। सुनते ही दिल का मौसम सुहाना हो गया। मैं फटाफट रेडी होने लगी। रेडी होकर आई तब तक बारिश थम चुकी थी और धूप मुझे चिढ़ा रही थी। उस दिन धूप की गर्मी से मैं अंदर ही अंदर गरम हो गई। पतिदेव ने मौके की नजाकत को समझकर कहा…..” कोई बात नहीं। हमें तो कार में जाना है”। हम निकल ही रहे थे कि हमारे पड़ोसी चले आए….” अरे शर्मा जी बाहर जा रहे हैं क्या”? मैंने इन्हें देखा और ताला बंद करते हुए कहा …..”जी हाँ। जरा कुछ अर्जेंट है”। हम बाहर निकले। कार में बैठते ही इन्होंने पुराने गाने लगा दिये।हम दोनों गाने सुनते -सुनते एक दूसरे की तरफ देख कर मुस्कुरा रहे थे कि अचानक कार रुक गई। इन्होंने उतर कर देखा तो टायर पंचर।दूर कहीं एक गाना बज रहा था ……दिल के अरमां आँसुओं में बह गए और तभी फिर से बूँदा-बाँदी शुरू हो गई।

विजया डालमिया  

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