एक रुकी हुई ज़िंदगी – लतिका श्रीवास्तव 

उससे मिलने गई तो देखती ही रह गई उसे,क्या ये वही सुनीता है जिसे एन आईटी संस्थान में प्रवेश करवाने का गर्व हमारे एनजीओ अभी तक भुना रहे हैं….मुझे देख कर पहचान ही नही पा रही थी,निष्प्रभ निस्तेज चेहरा,डार्क सर्कल वाली निराश रिक्त सी आंखे जिनमें कभी आसमान की ऊंचाइयां नापने की बेशुमार ख्वाहिशें थीं,अशक्त हाथों से उठने की असफल कोशिश करती वह आज मुझे किसी हरी भरी शाख से टूटा हुआ फूल प्रतीत हो रही थी…कुछ बात करने की मेरी पहल को एक नर्स ने तुरंत सिरे से खारिज करते हुए मुझसे बाहर जाने की प्रार्थना की …

  बाहर निकल कर मैं अपने को संभालने के लिए वहीं पर रखी एक कुर्सी पर बैठी क्या गिर सी पड़ी….इसे क्या हो गया!! क्यों इसे यहां आइसोलेशन रूम में लाए हैं!!..इसी लड़की की कहानी आज आप सबसे साझा करना चाहती हूं और ये ख्वाहिश उसी लड़की की ही है ताकि समाज और परिवार के सुप्त प्राय कानो को सुनीता जैसी प्रतिभाओं की अनकही व्यथाओ की गूंज सुनाई दे सके…..

….सुनीता मांझी नक्सल प्रभावित दूरस्थ पिछड़े गांव के एक आर्थिक सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े परिवार की ऐसी बेटी है जिसने एक बेरहम बाप और काला जादू में माहिर मां की गोद में आंखे खोली…. …..अपने बाकी तीन भाई बहनों के साथ साथ पिता के हाथों की क्रूरतम पिटाई उसकी जिंदगी का अभिन्न अंग बन गए थे।

गांव के ही स्कूल में बाकी बच्चों के साथ किसी तरह पढ़ाई शुरू की पर कहते हैं ना ,”गुदड़ी में लाल होते हैं” सुनीता भी ऐसा ही एक लाल थी… कक्षा 6 में एक एनजीओ उस गांव में आया और टेस्ट के आधार पर अपनी सर्वोत्कृष्ट प्रतिभा साबित करने पर उन्होंने सुनीता का चयन करके उसका प्रवेश एक शहर के प्रतिष्ठित स्कूल में करवा दिया ,माता पिता ने भी निःशुल्क पढ़ाई और आवास के कारण ये सोचते हुए जाने दिया कि भविष्य में उनके परिवार की आर्थिक सहायता की आधार बनेगी….प्रतिभावान सुनीता प्रति वर्ष प्रति कक्षा उत्कृष्ट अंकों से उत्तीर्ण करती गई और उसी आधार पर एनजीओ की आर्थिक मदद सायास ही उसके लिए सुलभ होती रही….



      गुदड़ी के लाल की तरह ही सुनीता की मेहनत और लगन रंग लाई और उसका चयन प्रतिष्ठित एन आई टी संस्थान के लिए हो गया …इतनी बड़ी उपलब्धि उस गांव के लिए इतिहास बनी खूब जश्न मना,ढोल बैंड बाजे दावत हुई ,और सुनीता चयनित एन आईटी संस्थान के आवासीय परिसर में रहने आ गई….प्रथम वर्ष ,परीक्षा उसके लिए कठिन तो रहे पर ठीक ठाक रहे ….यकायक इतनी दूर यहां का बेहद उत्कृष्ट शैक्षणिक वातावरण उसे उत्साहित भी कर रहा था पर धीरे धीरे अपने सहपाठी साथियों की उन्मुक्त उत्कृष्ट जीवन शैली और उच्च स्तर के अध्ययन कौशल की बराबरी ना कर पाने के दबाव में वो अपने आपको असहज और कमतर महसूस करने लगी थी…

इस बीच सेमेस्टर के बाद होने वाली छुट्टियों में वह एक बार घर गई तो अपनी उलझनों की भागीदारी करने के बजाय  पिता की बात बेबात पर की जाने वाली पिटाई और मां के रूखे रवैए से और असहाय सी हो गई छुट्टियां खत्म होने के पहले ही हॉस्टल लौट आई इस विश्वास से कि किसी भी तरह अपना परिणाम सुधारना है….. मुश्किलों को सुलझाने की शुरुआत ही की थी की कोरोना महामारी से लॉक डाउन लग गया और वो घर जहां जाने के नाम से ही उसकी रूह कांपती थी ना चाहते हुए भी विवशता में जाना पड़ा….घर का असभ्य ,असंवेदनशील, असहयोगी वातावरण उसकी पढ़ाई और मानसिकता दोनो के लिए ग्रहण बन गया…. परीक्षाएं नजदीक थीं पर ना ही वो ऑन लाइन क्लासेस अटेंड कर पाती थी ना ही अपनी क्लास के किसी सहपाठी से किसी प्रकार का कॉन्टैक्ट करके कुछ सहयोग ले पाती थी….

निर्धारित समय पर परीक्षाएं तो होनी ही थीं हुईं सुनीता का परीक्षा परिणाम बदतर आया,वो और निराशा में चली गई… एनजीओ ने फीस भरने के लिए जब उसका परीक्षा परिणाम पिताजी से मांगा तब पिताजी को उसके खराब परिणाम के बारे में पता चल गया एक समझदार पिता की तरह अपनी बेटी को समझने या समझाने के बजाय उन्होंने उसकी बेरहम पिटाई की मां ने भी अपशब्दो से नवाजा ,सुनीता जो वैसे ही असहाय और निराश रहने लगी थी अब तो उसके मुंह में ताला ही लग गया था,लॉक डाउन के बाद हॉस्टल खुलने पर वो आ ही नही रही थी पर उसके कुछ सहपाठियों के कॉन्टैक्ट करने और समझाने पर वो किसी तरह हॉस्टल आ तो गई पर बहुत गुम सूम सी रहने लग गई,

सबसे छिपती फिरती थी,पढ़ाई में पिछड़ती ही जा रही थी, गिरते हुए परिणाम को कैसे सुधारे सहपाठियों से आंख मिलाकर बात करने का उसका आत्मविश्वास खत्म प्राय था . हीन भावना से ग्रस्त थी वो..किससे अपनी व्यथा कहे!!

……एक दिन आधी रात को उसकी हॉस्टल वार्डन ने उसे बेसमेंट में अकेले बैठे पाया ….बुलाने पर भी जब वो नही बोली तो संस्थान के डीन और डायरेक्टर तक मामला पहुंचा शुक्र है कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी समझते हुए तत्काल  सबसे पहले उसे मेडिकल उपचार और काउंसलिंग के लिए भेजा फिर उसके माता पिता को बुलवाया ….

     अभी भी सुनीता गहरे मानसिक अवसाद का शिकार है  उसकी जिंदगी रूक सी गई है,वो अपने घर जाना नहीं चाहती, लगातार उसकी काउंसलिंग हो रही है,सहपाठी और शिक्षकों से आंख मिलाने की हिम्मत नही कर पा रही है,किसी से मिलना नही चाहती एक ही चाहत है एक ही गहरा धक्का है किस तरह अपना बेहद बिगड़ा रिजल्ट सुधारूं,जिंदगी में कुछ कर दिखाने का जो ख्वाब संजोया था कैसे उसे हकीकत बनाऊं !!

सादर

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