एक अनकहा रिश्ता.. “अनाथ” –  – विनोद सिन्हा “सुदामा”

अनगिनत रिश्तों की डोर को सुलझाते सुलझाते वैभव ना जाने कब इस अनजाने से रिश्ते की मोह में उलझ सा गया था उसे पता ही न चला.!

एक ऐसा रिश्ता जिसका न कोई नाम था न कोई पहचान,न खून का रिश्ता न शरीर का रिश्ता,न दिल का रिश्ता न जान का रिश्ता..न दोस्ती न पहचान..

कुछ भी तो नहीं था फिर क्यों उसके लिए हर घड़ी परेशान रहता था वो..एक दिन अगर उसे न देखता तो मन बेचैन हो उठता उसका,एक दिन बात ना करता उससे तो रूह तड़प उठती थी उसकी..!

कितना कोमल और मासूम था वह,जब उसे उसने एक मंदिर के सीढ़ियों से उठा अपने घर ले आया था…!!

ओहहह.आज भी उसके जेहन में हर एहसास

अंकित था..

उसको अपनी बाहों में लेने का पहला पहला वह कोमल सा एहसास ,उसका नरम नरम मगर गरम सा प्रथम स्पर्श ,उसके मुलायम मुलायम बाल..उसकी छोटी छोटी आँखें..छोटे छोटे पैर..

ओहहहह…आज भी वैभव नहीं भूला था..वो डर जो उसके मन मे उसे घर लाते समय लग रहा था..नहीं भूला था वो अपनी माँ का वो डाँट और फटकार जब उसे अपने साथ अपने घर लाने पर माँ से मिली थी.!

फिर उसके जिद़ और उसकी हठ के कारण उसकी माँ को भी झुकना पड़ा था और धीरे धीरे हीं सही वह उसके घर का एक अभिन्न सदस्य बन गया था.


एक अहम हिस्सा जिसके बिना घर के किसी सदस्य का एक पल गुजारा नहीं होता था, यहाँ तक हर पल गुस्सा करने वाली माँ भी.

घर के हर सदस्यों के साथ वह इतनी जल्दी घुल मिल गया कि किसी को लगा ही नहीं कि वह एक “अनाथ” है हर सदस्य का वह प्यारा हो गया.इतना कि  घर में जब भी कोई बाहर से आता जाता उसे ही खोजता,उसे ही पुकारता मानो सब की साँसे बस गयी हो उसमें और वह भी सभी से लगा रहता दिन भर सबके आगे पीछे घुमता रहता.! उसे भी कहाँ चैन मिलता था जब तक वह वैभव की माँ के पैरों को नहीं छू लेता,जब तक उससे या उसके पिता से गले नहीं मिल लेता,हाँ वैभव की बूढी दादी जरुर थोड़ा गुस्सा होती पर जल्द हीं उसकी उटपटांग हरकतों को देखकर मुस्कुरा देती और शांत हो जाती थी..!!

लेकिन समय के क्रूर पंजो ने ऐसा प्रहार किया कि वो मासूम ज्यादा दिन साथ नहीं रह सका इन सभी के….

आज वैभव को स्वयं के हाथों से उस “अनाथ” का श्राद्धकर्म करना पड़ रहा था.. श्राद्धकर्म  इसलिए कि अनाथ होकर भी उसने सभी के दिलों में एक परिवार के सदस्य की तरह बसा रहा,जो आज छोड़कर चला गया था सभी को हमेशा हमेशा के लिए..!..

वो “अनाथ” जिसे कुछ वर्ष पहले वह मंदिर की सीढ़ियो से उठाकर अपने घर ले आया था, एक अनाथ ही तो था वह.! क्योंकि न उसकी माँ का पता था और न ही उसके नस्ल का बस सीढ़ियो पर पड़ा ठिठुरता,कांपता कराह रहा था और रो रहा था वह उस दिन,जिसे देख वैभव का नन्हा दिल भी रो पड़ा था और करूणा बस उसे अपनी नर्म हथेलियों में पकड़े सावधानी पुर्वक अपने घर ले आया था .!

और लाकर चुपके से सिढ़ियों के नीचें रखे डलिए में छुपा दिया..जिसमें उसकी माँ गेहूं धोया और सुखाया करती थी…

सच सामने आने पर कुछ ही पल में उसकी माँ ने सारा घर सर पे उठा लिया था…

दादी..के मुख से गालियों की बाणगंगा बह रही थी…


लेकिन उसके पापा ने वक्त रहते सब संभाल लिया था..और दोनों न न करते  उस मासूम को घर में रखने की स्वीकृति दे दी थी..

मान कर भी बूढी दादी ने खड़े शब्दों में कह दिया..

मुझसे तो दूर ही रखना इस नामुराद को…

खबरदार जो मेरे पास भी फटका….और हाँ कान खोलकर सुन लो…

रसोई व पूजा घर के पास भी गया तो टांगें तोड़ दूंगी इसकी…

दादी ने अपनी लाठ़ी दिखाते हुए कहा…

दूसरी तरफ़ माँ हिदायतों की झड़ी लगाए जा रही थी..

रखना है तो रखो लेकिन…दिन भर लगे मत रहना इसके साथ…पढ़ाई के साथ कोई समझौता नहीं..और हुई तो खैर नहीं..

वैभव बेचेरा पिता के पीछे छुपा सबकुछ सुनता हाँ में सर हिलाए जा रहा था…

फिर न जाने कितने अनकहे रिश्तें जुड़ गयें थे साथ उसके.! जिसे उसने अपने बेटे,अपने दोस्त, अपनेे भाई की तरह पाल पोस कर बड़ा किया  आज उसके बीच नहीं रहा था वो अनाथ उसका “किट्टू” हाँ किट्टू  एक “पिल्ला” मगर माँ के लिए बेटे से बढकर,वैभव के लिए भाई और दोस्त से ज्यादा..!!

विनोद सिन्हा “सुदामा”

स्वरचित

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