एक पीर गूंगी सी – विजया डालमिया

विभा ने सोचा भी नहीं था कि उसकी सामान्य तरीके से हँसकर की गयी बातचीत का यह अंजाम होगा ।कुछ दिनों पहले ही तो फोन के माध्यम से दोनों जुड़े थे ।वह भी एक खूबसूरत गलती की वजह से। हुआ यूँ था कि विभा से रॉन्ग नंबर डायल हो गया था ।उसने तुरंत फोन कट भी कर दिया। पर थोड़ी ही देर बाद उसे कॉल बैक आया ।एक बड़ी मीठी सीआवाज…. “आपने कॉल किया था”? उसने कहा …”नहीं तो” दूसरी तरफ से फिर वही सवाल बड़ी शालीनता के साथ….” मेरे पास आपका कॉल आया हुआ है”। विभा ने कहा …”हो सकता है ।शायद गलती से “।तभी दूसरी ओर से आवाज आई ….”कोई बात नहीं ।वैसे मुझे पुनीत कहते हैं और अगर यह गलती से हुआ है तो मैं चाहता हूँ कि यह गलती बार-बार हो”। विभा को अजीब सा लगा ।पर कुछ तो था उस आवाज में। लेकिन उसने कुछ कहा नहीं ।फोन कट कर दिया। उसके कुछ दिनों बाद फोन पर मैसेज आया… “मिस यू “वह चौंक पड़ी यह कौन है …जो मुझे मिस कर रहा है ,क्योंकि उसकी दुनिया उस से शुरू होकर उसी पर खत्म हो जाती थी ।फिर यह अनचाहा मेहमान कौन? सोच ही रही थी कि फिर से वही कॉल… हैलो कहते ही “…आप तो मुझे भूल ही गयी ।मैं पुनीत। खूबसूरत गलती वाला। सुनकर वह मुस्कुरा उठी। औपचारिकतावश पूछ बैठी ….”आप कैसे हैं “?बस …फिर क्या था ।

उसने तुरंत कहा…. “आपने पूछ लिया ,अब मैं बिल्कुल ठीक हूँ ” मैंने कहा…..” क्या”? वह तुरंत कह उठा…. “सच में, मैंने जब से आपकी फोटो देखी है तभी से आपको चाहने लगा हूँ “।मैं समझ गयी ।मैंने कुछ नहीं कहा। तभी वह कह उठा …..”आई लाइक यू” सुनते से ही दिल धड़क भी गया और घबरा भी। मैंने तुरंत फोन डिस्कनेक्ट कर दिया। भरी ठंड के बावजूद मेरे चेहरे पर पसीने की बूंदे चमक उठी। कितनी ही देर तक मैं उस आवाज को अपने इर्द-गिर्द महसूस करती रही ।चार-पांच दिन इसी तरह बीत गये ।मुझे न जाने क्यों उसके कॉल का इंतजार रहने लगा ।छठवें दिन फिर अचानक वही कॉल आया और तब पहली बार मैंने उसकी आवाज की कशिश को महसूस किया। हम काफी देर तक बात करते रहे। अब तो यह हर रोज का क्रम हो गया ।उसकी बातों से मेरा अकेलापन भरने लगा ।



उसकी झूठी सच्ची तारीफें मुझे भाने लगी ।उसका बेहद और मेरा हद में रहना उसे बहुत भाने लगा और फिर एक दिन उसने कह ही दिया….” आई लव यू”। मैं हिल गई। यह शब्द नहीं बल्कि एहसास था जो उसने बातों में पिरो कर मुझसे बाँटा । मैंने फोन कट कर दिया ।फिर बार-बार उसका कॉल आने लगा। मुझे लगा चलो एक बार जवाब दे ही देती हूँ ।फोन उठाकर कहा ….”यह क्या मजाक है ?तुम्हें पता है ना मैं तुमसे कितनी बड़ी हूँ “? उसने कहा…. “कोई फर्क नहीं पड़ता “।…”पर मुझे पड़ता है “।सख्ती  से यह कहकर मैंने फोन कट कर दिया। कहने को तो कह दिया मैंने ।पर खुद को बहलाना इतना आसान कहाँ था ।जिससे सुकून था। बेचैनी भी उसी से थी। ऐसी विवशता मैंने पहली बार महसूस की थी। एक पीर जो गूँगी थी पर मेरे हर हिस्से से गूंज रही थी ।आज पाँचवा दिन था ।मैं यूँ ही बैठी थी। तभी डोरबेल बजी। दरवाजा खोला ।देखा तो कुरियर से गुलदस्ता आया था। नीचे एक कार्ड था जिसमें लिखा था…. “आपको देखकर यह फूल भी महक उठेंगे “।मैंने “थैंक्यू “का मैसेज ड्रॉप किया ।तुरंत उसका कॉल आया ।बिना किसी शिकायत के बहुत ही प्यारे अंदाज में उसने जब यह कहा ….इतने दिन क्यों तनहा रहे हम

दिल की धड़कन को धड़कने से रोकते रहे हम।

मजबूर हम, मजबूर तुम। फिर भी ख्यालों में एक दूजे से बातें करते रहे हम।… कहकर मैंने जैसे ही यह जुमला पूरा किया पुनीत खुशी से भर्राई  हुई आवाज में कहने लगा…. “यही तो वजह है कि मैं चाह कर भी खुद को आप से दूर नहीं रख पाता। मुझे आपसे प्यार हो गया ,यह जानते हुए भी कि आप मुझसे बड़ी हैं ।हर किसी के पास उसके हिस्से का आसमान होता है। मेरे पास भी है ।आपके नाम का ।आपके प्रेम पर मेरा लेश मात्र भी अधिकार नहीं। पर आप से प्यार करने के लिए अपने प्यार पर तो पूरा अधिकार है ना मेरा”?पुनीत कहते जा रहा था। मैं खामोशी से सुन रही थी ।उसने फिर कहा…” हम सिर्फ बात ही तो करते हैं। उस पर भी आपको ऐतराज है। आखिर क्यों “?

उसके इस “आखिर क्यों “का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। पर मैं समझ गई थी कि उसकी भावुकता कभी भी कोई गलत कदम उठा सकती है। मैं भीतर ही भीतर डर भी गई थी। उससे और उससे ज्यादा अपने आप से ।मैंने सबसे पहले खुद को समझाना शुरू कर दिया। एकदम से तो नहीं पर धीरे-धीरे मैं उसे इस भ्रम जाल से बाहर निकाल दूँगी ।मुझे पूरा विश्वास था खुद पर और मैंने वही किया ।मैं नहीं जानती मैंने अच्छा किया या बुरा? पर मुझे जो सही लगा मैंने वही किया। भगवान उसे हर खुशी दे जिसका वह हकदार है। मैं तो डाली से टूटा हुआ वो पत्ता हूँ जिसे हवा कहीं भी बहाकर ले जाए तो फर्क नहीं पड़ने वाला।पर वह  खिलता चमन। कितनी ही बहारें  उसमें अभी आ सकती है। बस यही सोच कर मैंने जब उसका फोन आया तो ” रॉन्ग नंबर” कहकर कट कर दिया ।हम दोनों एक दूसरे को इतने अच्छे से समझने लगे थे कि वह समझ गया और मैं अपनी गूंगी पीर के साथ नीर बहाते हुए फिर उसी अकेलेपन की दुनिया में लौट गयी। यादों के दरवाजे पर बेरुखी और खामोशी का मजबूत सा ताला लगाकर उसकी चाबी हमेशा के लिए कहीं दूर फेंक दी ये कहते हुए कि…..

कभी पढ़ सको तो पढ़ लेना वह अल्फाज जो मेरी आँखों से जुबां  तक उतरे ही नहीं।

विजया डालमिया संपादक मेरी निहारिका

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