एक नई पहचान  – सारिका चौरसिया

विशिष्ट अतिथिगण मंच पर अपनी अपनी निर्धारित कुर्सियों पर विराजमान थे और सरस्वती वंदना के साथ ही अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर आयोजित सम्मान समारोह कार्यक्रम शुरू हो चुका था।सभागार की सबसे अग्रिम पंक्ति में जिलाधिकारी महोदया के ठीक सामने बैठी वह अपने विचारों में खो रही थी।

विचार, लगभग तीस वर्षों के कठिन सफर के। विचार,इन तीस वर्षों में अपने परायों की पहचान के।विचार,नारायण पर उसके अखंड विश्वास के।

बड़ी बहू बन कर वह इस शहर में आयी थी,पिता ने बड़ा घराना बड़ी प्रतिष्ठा देख कर ही ब्याहा था। तीन बेटियों का बोझ किसी भी पिता को निर्णय लेने में जल्दबाजी करा ही देता है। उसके पिता से भी जल्दबाजी हो ही गयी थी, नाम और रुतबे वाले चांदी के वर्क के नीचे खोखले खानदानी तेवर मात्र को पिता कहाँ पहचान पाये थे। उस एक व्यवसायी पारिवारिक वृक्ष पर बैठे हर सदस्य के हाथों में कुल्हाड़ी थी। अपनी जरूरत अनुसार रोज डाल काटी जाती। पर जड़ों से सूखते जा रहे प्यासे वृक्ष को पानी देना किसी को याद नहीं था। या फिर हर कोई दूसरे की राह देखता रहा। और पेड़ सूख चला था।अगली बारी थी पत्तियों की,,देखते ही देखते सिर मुंडा वृक्ष ठूंठ सा खड़ा था। और अब हर कोई एक दूसरे को नोंच रहा था। एक दूसरे की टांग खींच रहा था….केकड़ें की तरह।

और वो इस दलदल से निकलने के जितने प्रयास करती उतना ही और धँसती जाती। बेटियां बड़ी हो रही थी और उनकी जिम्मेदारियां भी। उसने अपनी दुनियां बस बच्चों तक ही सीमित कर ली थी। उनकी परवरिश, अच्छी पढ़ाई के लिये उसने हर सम्भव प्रयास जारी रखें। जेवर, मायके से मदद, और फिर एक दिन पिता ने कहा था मैं शर्मिंदा हूँ मेरी गलतियों की सजा मेरे बेटी सह रही। पर तुम्हारी ससुराल एक अंधे कुएं की तरह है जितना भी डालता जाऊंगा वह समाता जाएगा।कोई ओर छोर नहीं। तब उनकी मदद से उसने छोटा सा ब्यूटी पार्लर खोल लिया। पढ़ी लिखी प्रतिभावान वह इन सबके लिये नहीं बनी थी किन्तु नौकरी उसके ससुराल वालों के शान के खिलाफ थी।और इस कार्य के लिये तो फिर उसे अपनी जिद पर घर से ही करने की शर्त के साथ पति से अनुमति मिल गयी। बड़े कठिन मेहनत से उसने इसे खड़ा किया बिना किसी सहयोग के एक-एक कार्य की व्यवस्था के लिये बेटी लिए अकेली दौड़ती रही। अंततः वह चल निकला और उसे आर्थिक संबल भी देने लगा। बेटियां भी दोनों अव्वल होती रहीं।लेकिन देवरानी को यह रास नहीं आ रहा था उसने आदतानुसार सास देवर के कान भरे! हमारे खानदान की गरिमा के खिलाफ़ छोटा सा काम!!ननद-ननदोई सब को सँग में किया,, साजिशों का दौर चला। पति भी अकेला पड़ गया, वह वैसे भी उसके कम ही साथ चलता था। पत्नी का हर सहयोग उसके लिये अपेक्षित था पर वह स्वयं पत्नी के लिये असहयोगी ही रहा। किन्तु अब वह चाह कर भी कुछ न कर पाया। साजिशों ने उसकी सहयोगी पत्नी के ही पैरों के नीचे से जमीन खींच ली थी।




अब वह पुनः बिखर रही थी।फ़र्क बस इतना था कि अब उसके जीवन साथी ने उसको समझने और उसके साथ चलने को प्रार्थमिकता देना शुरू कर दिया। परिवार के लिये यह अनपेक्षित था।साजिशों का दौर चलता रहा और पति पत्नी एक दूसरे का हाथ मजबूती से थामने के प्रयास में लग गए । 

इन वर्षों के अनुभवों को उसने कब कलमबद्ध करना शुरू कर दिया और कब उसकी लेखनी प्रतिष्ठित होती चली गयी,,,नारायण के प्रति गहरी आस्था ने उसे कितना मजबूत बनाया वह आज इस सारे सफर को याद कर रही थी। देवरानी से मिलती अनेकों बाधाओं के बाद भी अनेकों पुरस्कार उसकी झोली में गिरने लगे थे। साहित्य की दुनिया का जाना पहचाना नाम बनने की राहें खुलने लगी थी।आज महिला दिवस पर शहर के प्रशासन द्वारा मिला निमंत्रण इसी की एक और कड़ी था।

उसकी तंद्रा टूटती है….उसका नाम पुकारा जा रहा था। मंच पर खड़ी हाथ में पकड़े सम्मान के साथ उसने महिला दिवस के लिये तैयार की हुई कविता पढ़नी शुरू की…..

नारी दिवस धूमधाम से मनाइए,

अपनी ऊर्जा और शक्ति का प्रदर्शन 

धूमधाम से सड़कों,सेमिनारों और मजलिसों में करने भी जाइये।

किन्तु इसके पहले,, 

सुनश्चित कीजिये कि आपके अधिकारों पर आपका स्वयं का अधिकार तो रहे।

आप क्या हैं, आपको स्वयं अपनी पहचान तो रहे।

हुजूम में स्वयं का अधिकार सम्मान और स्थान मत तलाशिये।

अपने अंदर की स्त्री को पहले स्वयं तो पहचानिये।

अंतिम पंक्तियों….महिला दिवस की बेला, ये आज की बड़ी खूबसूरत!मेरी एक नई पहचान सी!!

पर तालियों की गूंज के साथ उसे गुलदस्ता थमाती हुई जिलाधिकारी ने उसे गले से लगा लिया।

तालियों की गूंज शहर की गलियों मुहल्लों से गुजरती हुई उसके घर की ड्योढ़ी लांघ अंदर चली आयी थी। अगले दिन के अखबारों में उसका नाम और तस्वीर देख आंगन का सूखता वृक्ष फिर से हरा भरा हो उठा था।।

सारिका चौरसिया

मिर्ज़ापुर उत्तर प्रदेश।

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