गंगा के संघर्ष का सुख – शुभ्रा बैनर्जी

आज हमारी कॉलोनी में महिला दिवस के उपलक्ष्य में एक सम्मान समारोह आयोजित किया गया था।पिछले पच्चीस सालों से शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ी होने के कारण मैं भी आमंत्रित थी।मुख्य अतिथि के साथ मुझे भी मंच पर बैठाया गया था। कार्यक्रम की शुरुआत सरस्वती वंदना से हुई।महिलाओं के सशक्तीकरण पर कविताएं और भाषण प्रस्तुत किए गए।हमारी सोसायटी के गार्ड “शंभू”की भांजी “यमुना”को शीट में चयन होने पर पुरस्कृत किया गया।

यमुना मुझे बड़ी मां कहती थी।मेरे हांथों से ही पुरस्कार लिया उसने।मैंने अपनी तरफ से छोटी सी रकम पुरस्कार राशि में मिलाई थी।मुझसे उसका एक अलग ही बंधन था।मेरे ही विद्यालय में शंभू के कहने पर एडमिशन करवाया था मैंने।शंभू ने बताया था यमुना उसके दूर की बहन की बेटी है,और अनाथ है।शंभू की पत्नी को उसे घर पर रखना पसंद नहीं था तो शंभू के जोर देने पर एक छात्रावास में उसके रहने की व्यवस्था भी करवा दी थी मैंने।बड़ी-बड़ी झील सी गहरी आंखें, गेहुंआ रंग,और बड़ा मासूम चेहरा था यमुना का।जो उसे सबसे विशिष्ट बनाती थी वह थी उससे आने वाली पहाड़ों की खुशबू।

मैंने देखा था हर महीने एक औरत आती थी शंभू से मिलने,कभी विद्यालय कभी सोसायटी के बाहर।उसका चेहरा हमेशा ढंका रहता था,ठीक से कभी देख नहीं पाई और ना ही कुछ पूछ पाई थी शंभू से। संयोगवश यमुना के छात्रावास में कुछ जानकारी लेने जाने पर, गेट पर ही

 एक जोड़ी अदृश्य आंखें चुभती म महसूस हुई मुझे।मन का भ्रम सोचकर मैंने यह आशंका झटक दी थी।शायद ईश्वर को कुछ और ही मंज़ूर था।अगले महीने रविवार के दिन घर की खिड़की से शंभू के साथ फिर वही औरत दिखी।मन में फिर आशंकाओं के बादल मंडराने लगे।उसने एक बड़ा सा थैला दिया था शंभू को,शंभू तुरंत वही थैला लेकर यमुना के छात्रावास चला गया।अगले दिन सोचा शंभू से जरूर पूछेगी एक दिन।आज यमुना बड़ी चहक रही थी विद्यालय में।मेरे पूछने पर बताया उसने कि शंभू मामा ने बहुत सारी नई -नई चीजें दी हैं उसे।अब मेरा संदेह दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था।




बस बहुत हुआ अगले महीने इस रहस्य से पर्दा उठाना ही पड़ेगा।ठीक तय तिथि को वह आई फिर,शंभू से जल्दी में बातें करके वह चली गई।मुझे पता था वह कहां जा सकती है,छिपकर पीछा किया उसका मैंने छात्रावास तक ।आज तो रंगे हाथों पकड़ कर ही रहेगी।यमुना के कमरे की खिड़की से कुछ देर झांकने के बाद जैसे ही वह बाहर निकली,मैंने एकदम से उसका हांथ पकड़ लिया और चेहरे से ढंका कपड़ा हटा दिया।ये क्या! ये तो यमुना की फोटोकॉपी थी बिल्कुल।मुझे देखकर उसकी बड़ी -बड़ी आंखों में सम्मान और स्नेह का मिश्रण था।वह जल्दी से अपना हांथ छुड़ाकर जैसे ही भागी ,सामने से आती एक तेज कार से टकराकर गिर गई।देखते-देखते भीड़ जमा हो गई वहां।मैंने हॉस्पिटल ले जाकर एडमिट किया और शंभू को फोन किया।शंभू के आते ही मैंने साफ़ शब्दों में कहा कि अगर वह पूरी सच्चाई अभी भी नहीं बताएगा तो मैं आगे से कोई भी सहायता नहीं करूंगी।शंभू लगभग रोते हुए बताने लगा गंगा की कहानी।हां उस रहस्यमई महिला का यही नाम था। उत्तराखंड के चमोली गांव की थी “गंगा”। उन्मुक्त,उद्दंड,अल्हड़,शरारती,और पढ़ने में अव्वल।शंभू की छोटी बहन थी वह। बारहवीं की पढ़ाई पूरी करके नीट की तैयारी कर रही थी।पूरे गांव की रौनक थी वह।अपने बापू का अभिमान थी।अचानक एक शहरी पर्यटक के झूठे प्रेम के जाल में फंसकर,वहीं के मंदिर में एक दूसरे को माला पहनाकर शादी रचा ली थी उसने।उसी रात घर के सारे गहने चुराकर युवक के साथ चली गई थी।पूरे गांव में शंभू के परिवार की थू-थू हुई।किसी ने फिर पलटकर गंगा को नहीं याद किया।एक दिन मंदिर के पुजारी जी ने शंभू के हांथ में छोटी सी बच्ची और एक चिट्ठी पकड़ाई।पिछली रात गंगा ही आकर शायद दे गई थी।गंगा को उस युवक ने शहर लाकर एक कोठे में मोटी रकम देकर बेच दिया था ।गंगा ने किसी तरह अपनी बच्ची शंभू के पास पहुंचा दी थी।तब से शंभू यमुना को लेकर यहां चला आया था।गंगा के कहने पर ही अनाथ बताया था उसने यमुना को।गंगा ने एक बार भागने की कोशिश की थी तो उसका चेहरा जवां दिया गया था,कई बार मरने की सोचकर भी मर नहीं पाई थी वह।अपनी बेटी को डॉक्टर बनते देखना चाहती थी।हर महीने यमुना की खबर लेने और खर्च देने आती थी भाई के पास वह।मुझसे भी नहीं मिलना चाहती थी कि कहीं यमुना को विद्यालय से निकलवा ना दूं।




शंभू गंगा की कहानी बता रहा था और मुझे अपने अंतःस्थल में गंगा प्रवाहित होती महसूस हो रही थी।यहीं गंगा यहीं यमुना,ये कैसा संगम देख रहीं हूं मैं। संघर्ष की इस पराकाष्ठा की  तो कोई भी महिला कल्पना भी नहीं कर सकती।बिना किसी सुख की कामना किए जीवनपर्यंत इतना संघर्ष।हम सभी अपने-अपने संघर्षों की लंबी सी सूची बनाते रहते हैं,समय-समय पर परिवार और समाज के सामने उनकी प्रदर्शनी भी करने से नहीं चूकते।हर संघर्ष का परिणाम वांछित सुख ही होता है हम सभी के लिए।

अपने अधिकारों के प्रति सजग आज की नारी,महिलासशक्तीकरण के विषय में अपने उद्गार रखती नारी आज गंगा के सम्मुख तुच्छ लग रही थी मुझे।कितना आसान था गंगा के लिए अपना जीवन समाप्त कर देना। अवसाद की पीड़ा सहते-सहते कितनी बार मरी होगी।अपनी तलहटी में कितने लोगों का मैल जमा होगा।फिर भी यह अबाध,अथाह ,अनवरत बहती रही , सिर्फ अपने अंश को अपने पंख देकर उसे,आसमान पर उड़ते हुए देखना चाहती थी गंगा।अपने शरीर को अपनी मर्जी के विरुद्ध रोज़ बेचना,इससे बड़ा अवसाद का विषय मेरे हिसाब से कुछ और हो नहीं सकता।हम आजकल पढ़ाई के बोझ,परिवार की परेशानियों,प्रेम में असफल होने इत्यादि विभिन्न अवसादों से ग्रसित होने का दावा करतें हैं और बाकायदा इलाज़ भी करवा रहें होतें हैं ,पर इस अवसाद का पर्याय क्या हो सकता है।

मुझे अपनी शैक्षणिक योग्यता और पढ़ाने का मनोविज्ञान बौना लगने लगा।मेरे सारे संघर्ष अर्थ हीन हो गए उस दिन।आज उसको दिए मेरे वचन की लाज रख ली थी मैंने।मैं मंच से यमुना की जन्मदात्री को ढ़ूंढ़ रही थी।मेरा नंबर था अब महिलाओं के उत्थान के लिए बोलने का,और मैं ना जाने कैसे ,कब गंगा में प्रवाहित हो रही थी।उसकी आत्मा के अदृश्य चोट मेरे मुंह से निकल रहे थे।अपना पुरस्कार मैंने गंगा को समर्पित किया बिना उसे किसी के सामने लाए।मन की सुंदरता और तन की वैराग्यता आज एकसार हो रही थी मेरे द्वारा।जो गंगा मेरे मन के भीतर गोमुख में बसी थी,आज बरसों के बाद‌ मैंने उसे प्रयाग में पहुंचा दिया।उस सभा में उपस्थित किसी भी सदस्य को शायद ही “गंगा” दिखी हो,पर महिला दिवस मनाना मेरे लिए सार्थक हुआ।कम से कम संघर्ष की एक नवीन परिभाषा गढ़ी थी मैंने आज।मेरी आंखों से बहते हुए आंसू गंगा के प्रति मेरे सम्मान को व्यक्त कर रहे थे और वहां दूर से खड़ी होकर”गंगा ” भी आज मुझे पहले से ज्यादा पवित्र लग रही थी।यमुना ने मेरे आंसू पोंछे और पूछ ही लिया ” बड़ी मां,ये गंगा कौन है?”

“गंगा” वो तो मां है जग की,तो तुम्हारी भी मां हुई ना।यमुना, तुम्हारी मां है गंगा।आकाश की ओर देखकर प्रणाम करो,तुम्हें आशीर्वाद मिलेगा उनसे।जैसे ही यमुना ने आंखें बंद की प्रणाम करने के लिए,गंगा ने वहीं से अपने हांथ उठाकर आशीर्वाद दिया।आज गंगा के संघर्ष को सुख अवश्य मिला होगा।अब बहुत जल्दी ही वह अपनी बेटी को डॉक्टर बनते देखेगी और उसके तन -मन दोनों के घाव भर जाएंगे।

#संघर्ष 

शुभ्रा बैनर्जी

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