“माक़ूल जवाब” – स्मिता टोके “पारिजात”

बात उन दिनों की है जब घर में सिर्फ़ लैंडलाईन फोन ही होता था । उस दिन साक्षी को मार्केट जाना था इसलिए उसने ऑफिस से छुट्टी ले ली थी । लेकिन ऑफ लेने के बावजूद सुबह की दिनचर्या में कोई आराम नहीं था । किचन में मदद करनेवाली घरेलू सहायिका भी उस दिन छुट्टी पर थी । साक्षी ने रात में ही आलू उबालकर फ्रिज में रख दिए । जल्दी उठकर वह रोज़ की तरह किचन के कामों में जुट गई । साक्षी के पति विकास ने टैंक भरने मोटर चालू कर दी । साक्षी ने आलू पराठे बनाकर प्रखर और दीप्ती के टिफिन पैक किए।  बच्चे नहाकर तैयार हो चुके थे । कुछ ही देर बाद स्कूल बस आ गई  ।

दाल, सब्ज़ी बनाकर और रोटियाँ सेंककर वह नहाने चली गई । दैनिक पूजा के बाद विकास को बोली,

“तुम्हारा हो जाय तो बता देना । साथ ही नाश्ता कर लेंगे”

“हाँ मैं आता हूँ थोड़ी देर में ।” कहकर विकास अपने काम में मशगूल हो गया ।

साक्षी एक पढ़ी लिखी, स्मार्ट महिला थी जो जितने बेहतर ढंग से ऑफिस का दायित्व निभाती थी, उतनी ही कुशलता से घर की ज़िम्मेदारी भी । हाँ उसे हाउस हेल्प से भी कोई परहेज़ नहीं था । अपनी घरेलू सहायिकाओं की मदद का उसे पूरा एहसास था । इसतरह से साक्षी आधुनिक महिला की प्रतिनिधि थी । घर के लिए आवश्यक एप्लायंसेज का उपयोग भी उसने और उसके पति विकास ने बखूबी दिनचर्या में ढ़ाल लिया था ।

दोनों इकट्ठा नाश्ता करने बैठे । विकास को ऑफिस के लिए रवाना करने के बाद साक्षी घर में अकेली ही थी । वह इत्मिनान से सोफे पर बैठकर उस दिन खरीदे जानेवाले समान की लिस्ट बनाने लगी । तभी फ़ोन की घंटी ने उसका ध्यान भंग कर दिया ।

“हैलो …” साक्षी ।

“हैलो मैडम, कैसी हैं ?” फोन पर दूसरी ओर से आवाज़ आयी ।

आवाज़ तो एकदम से पहचान में नहीं आयी । लेकिन जैसे ही कॉल करनेवाले ने अपना नाम बताया उसका ध्यान एक पुरानी घटना पर चला गया ।

उस दिन भी वह रोज़ की तरह ऑफिस के लिए तैयार हुई थी । सफेद बैकग्राउंड पर फिरोज़ी प्रिंट वाला कॉटन सूट, करीने से ओढ़ा गया कलफ किया दुपट्टा, गले में मंगलसूत्र, सोने के टॉप्स, हाथों में कड़ा और घड़ी, लिबर्टी की चप्पल, पर्स और आत्मविश्वास से दमकता चेहरा ।




विकास भी एकबारगी उसकी ओर देखता रह गया ।

साक्षी ने मुस्कुराकर चलने का इशारा किया । दोनों बाईक पर घर से 5 कि. मी. दूर एक कार्यालय पहुँचे जहाँ कोई काम था । वहाँ पर संबंधित वरिष्ठ अधिकारी ने उन्हें आदर सहित केबिन में बुला लिया । साक्षी और विकास को बिठाकर पुरुषोत्तम जी ने स्टाफ को कुछ आदेश दिया और फोन पर बात करने लगे । पहले वे बीच बीच मे दोनों की ओर देख रहे थे । उसे खटका, जब कुछ समय बाद वे कनखियों से उसकी ही ओर देखने लगे ….. फोन पर बातचीत तब भी जारी थी । उसने असहज होकर विकास की ओर देखा । विकास ने पलकें झपकाकर प्रतीक्षा करने का संकेत दिया ।

कागज़ात लेने का काम पूरा होने पर वे निकल आए ।

साक्षी उस बात को भूल चुकी थी । लेकिन वह भूली बात अब फिर सामने खड़ी थी ।

पुरुषोत्तम जी , “आप कैसी हैं मैडम ?”

“नमस्कार, मैं ठीक हूँ । थैंक्यू ।” साक्षी ने जवाब दिया ।

“और बताइए क्या कर रही हैं ….?”

“हैप्पी विमेन्स डे मैडम … ।” आवाज़ आयी ।

अब साक्षी का माथा ठनका । नम्बर उपलब्ध है इसका मतलब ये तो नहीं कि जब मन आए फोन लगा लिया । कुछ भी पूछने लगे । न कोई पहचान, न पारिवारिक मित्रता, न ऑफिस का रोज़ का परिचय ……

कुछ सोचकर साक्षी ने जवाब दिया, “थैंक्यू सर । भाभीजी को भी मेरी ओर से महिला-दिवस की शुभकामनाएँ कहिएगा ।”

“”जी…जी…जी…” पुरुषोत्तम जी की सकपकाई  और हकबकाई सी आवाज़ आयी और तुरंत बाद रिसिव्हर रखने की आवाज़ …..

शायद उन्हें सटीक जवाब मिल चुका था ।

साक्षी ने राहत की साँस ली ।

उस दिन में बाद पुरुषोत्तम जी का फोन कभी नहीं आया ….

साक्षी और विकास आज भी उस घटना को याद कर खूब हँसते हैं ।

-स्मिता टोके “पारिजात”

यह रचना मेरी स्वरचित और मौलिक रचना है । यह कहीं भी अप्रकाशित एवं अप्रसारित है ।

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