दोयम दर्जे की सोच (भाग 1)- आरती झा आद्या

दिया उम्र पंद्रह माता पिता की लाडली उनकी नयनतारा आज अदालत के कठघरे में खड़ी थी। क्या दोष था उसका.. जबरदस्ती घर में घुस आये उन गुंडों से बेटी को बचाने में माता पिता की मौत देखना.. खुद को बचाने में गलती से एक लड़के को चाकू लग जाना.. और उस लड़के का तत्काल मर जाना। उस लड़के का मर जाना ही पाप हो गया… उसके माता पिता की मौत से किसी को कोई लेना देना नहीं है। दिया के हृदय चीत्कार कर रहा था और आँख में एक बूँद आँसू नहीं था। ये देख लोगों ने कह दिया.. जरूर दिया की शह पर सब हुआ होगा।कल तक जो उसके गुण गाते थे ..आज उन्होंने कसूरवार ठहराते पल भर देर नहीं किया। किसी ने दिया कि सूनी आँखें और हृदय में उठते दर्द को देखना नहीं चाहा। 

नाबालिक होने के कारण दिया की परवरिश.. पढ़ाई-लिखाई का जिम्मा बालिका सुधार गृह को देकर बालिका सुधार गृह में भेज गया और रसूख वाले उन लड़कों को सिर्फ जुर्माना लगा कर घर भेजा गया। 

दिया के लिए बालिका सुधार गृह एक आस की तरह थी .. उसने सोचा पढ़ लिख कर इन सारे लड़कों को अपने माता पिता की मौत की सजा इसी अदालत इसी कुर्सी पर बैठकर सुनाएगी । लेकिन उसे क्या पता था कि हाथी के दाँत खाने के कुछ और दिखाने के कुछ होते हैं। 

सुधार गृह की वार्डन अदालत से उसके साथ प्यार दुलार जताती हुई.. भविष्य की चिंता ना करने कह.. ध्यान पढ़ने में लगाने का उपदेश देती सुधार गृह लेकर आई। उनकी बातों को सुनकर दिया को अपनी माँ याद आती रही। बालिका सुधार गृह के अंदर जाते ही अन्य लड़कियों के चेहरे पर भय की परछाई देख सिहर उठी दिया। जहाँ जहाँ से दिया वार्डन के साथ गुजर रही थी.. वहाँ वहाँ खड़ी या काम करती लड़कियाँ उसे एक बेचारगी का भाव लिए देख रही थी। 

वार्डन एक कमरे के पास जाकर कहती है.. आज से तुम इसी कमरे में रहोगी और उसे लेकर अंदर जाती है। सीलन भरा बदबूदार कमरा.. अंदर जाते ही उसे ऊबकाई सी आई और दिया बाहर भाग आई। 

वार्डन जो अब तक ममता की मूरत बनी हुई थी… अचानक राक्षसी रूप में आ गई.. ऐ लड़की ये सब नाटक यहाँ नहीं चलेगा। ये तुम्हारे बाप का घर नहीं है.. जैसा मैं चाहूँगी.. वैसा ही करेगी तू.. समझी… वार्डन के व्यवहार में आए इस परिवर्तन ने दिया को हतप्रभ कर दिया। 

 

तभी किसी लड़की की चीखने की आवाज सुनकर वार्डन भुनभुनाती है.. लगता है कोई मरी.. इन लोगों ने तो परेशान कर रखा है.. जैसे छुई-मुई हो सब के सब… कहती हुई वार्डन चली जाती है। 

दिया वही खड़ी रह जाती है.. वार्डन के कहे शब्दों का अर्थ उसे बिल्कुल भी समझ नहीं आता है। 

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दोयम दर्जे की सोच (भाग 2)- आरती झा आद्या

 

आरती झा आद्या

दिल्ली

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