मैथिली नदी किनारे बैठी शुतल जल में पैर डाले बैठी थी।जल की शीतलता उसके मन में उठी उद्विग्नता को मरहम जैसे लेप लगा रही थी।
अनेकानेक प्रश्न उठे मन में कि अचानक राघव ने उससे किनारा क्यों कर लिया?पर प्रश्न दिल से उठ कर दिमाग़ में जमे रहे।यह भी पता था कि उत्तर उसे शायद ही मिले कभी।
मिलते भी कैसे?राघव ने दूरी बनाने के साथ प्रेम में मेरुरज्जु की तरह काम आने वाले मोबाइल की कॉर्ड को ही काट दिया था;मोबाइल बन्द करके।हो सकता है नम्बर भी बदल लिया हो।
इस घटना से हतप्रभ वह इस नदी पर एक बैठी थी, क्योंकि यही उनकी मुलाक़ात की जगह थी।
या मन में यह आशा जाग रही थी कि राघव इधर आए तो शायद मुलाक़ात हो जाए।पर ये सब सम्भावनाएँ हैं कभी पूरी भी हो सकती हैं या यूँ ही अधूरे रिश्ते की तरह अधूरी भी रह सकती हैं।
मैथिली और राघव घरों से दूर शहर में नौकरी कर रहे थे।एक शाम एक दोस्त के घर मुलाक़ात के बाद दोस्त बन गए,फिर धीरे धीरे दोस्त सर अधिक एकदूसरे की चाहत बन गए। प्रेम अचानक ही जीवन में प्रवेश करता है,शायद।
शादी की अभी कोई बात नहीं थी ।सो,दोस्ती और प्रेम पर यह रिश्ता साँसे ले रहा था।
मैथिली ने सोचा,यदि हममें दोस्ती का ही रिश्ता बना रहता तो ,इसकी उम्र लम्बी पाता,पर,,विवाह के फेर के फेर में अधूरा रह गया
वह एक समझदार और सुलझी हुई आधुनिका थी।उसका मानना था कि मैंने जिसे प्रेम किया उसे दिल में बसाया है,ज़रूरी तो नहीं राघव में भी यही भाव रहे हों।मजबूरी में तो न दोस्ती कायम रहती है न ही प्रेम।
उसने उड़ते बालों को हाथ से सँवारा,पल्लू को कमर में खोंसा और पर्स को कन्धे पर टांगा ।यह सोचते हुए वह उठ खड़ी हुई कि, प्रेम परिपूर्ण ही हो यह ज़रूरी नहीं।राघव के साथ का जितना सुख मिला वही धरोहर है अब मेरी।हाँ, जीवन भर का साथ मिलता तो और बात होती,पर नहीं मिला साथ तो जीवन का अंत नहीं हो जाता न!
उसने कन्धे से पर्स उतार कर खोला,राघव के लिखे कुछ ख़तों को निकाला ।उनको दोनों हाथों से नदी में प्रवाहित कर दिया कि तुम आज़ाद हो राघव ।होंगी कुछ मजबूरियाँ तुम्हारी,पर मैंने तुमसे प्रेम किया है ।तुम पहले इंसान हो जिसने मन को छुआ था मेरे।अब तुम्हें दिल में सहेज कर रख लिया है।
उसने पर्स से मोबाइल निकाल कर तत्काल में घर जाने का टिकट निकाला।एक माँ ही हैं जिनकी गोद में उसे सुख की नींद आएगी।कुछ दिन बाद लौट आएगी नौकरी पर माँ की संजीवनी-सी छुवन लेकर।
*सत्यवती मौर्य