चिट्ठी तेरे नाम की – सरिता गर्ग ‘सरि’

आज की शाम कितनी बोझिल है। गहरे सन्नाटे को चीरते, तमन्नाओं के बादल बरसने को तैयार हैं। यादों की छतरी ओढ़े ,इन बादलों से बचता और दर्द का पुल पार करता मैं दूर निकल जाता हूँ। दुख है तो बस यही कि मैं तुम्हें खुश न रख पाया और हार गया।

 कभी-कभी तुम नाजायज जिद कर देतीं, मैं हर सम्भव पूरा करने के प्रयास करता मगर मैं अंदर से धीरे -धीरे टूटने लगा था । कभी तुम्हें समझाने की कोशिश करता तो तुम और रूठ जाती और कहतीं ‘अब तुम मुझे पहले जैसा प्यार नहीं करते’। मैं तुमसे कहना चाहता था ‘तुम प्यार नहीं माँगती ,सिर्फ जिद पूरी करवाना चाहती हो।’

कभी -कभी मैं सोचता रूपवती नारी क्या इतनी भावना शून्य हो सकती है जो मेरे प्यार को या मेरी सीमाओं को न समझ सके।

तुमने हमेशा अपनी इच्छाओं और भावनाओं को सर्वोपरि समझा, मैं क्या चाहता हूँ तुमने जानने की कोशिश नहीं की। तुम चाँद पाने की जिद करती रहीं , सीमाएं लाँघती रही और मैं अंदर ही अंदर बिखरता रहा।

शादी के तीन साल इसी उधेड़बुन में गुजर गए। मैं सब दर्द सीने में छुपाए खामोश रहता।

तुम अपनी फिगर और सुंदरता को लेकर बहुत सचेत थी, इसीलिए हमारे जीवन की क्यारी में कोई फूल भी नहीं खिल सका। तुम्हारा ज्यादा वक्त घर से बाहर गुजरने लगा,तुम्हारे मित्रों की संख्या बढ़ने लगी। मैं शाम को घर लौटता , तो खुद को तनहा पाता।  मन में शून्य सा घिरता जा रहा था। वक्त हिरनी सा कुलांचे भरता भाग रहा था।



उस दिन ऑफिस की परेशानियों से घिरा खिन्न मन से घर पहुँचा। हमेशा की तरह तन्हाई ने मेरा स्वागत किया। दो घण्टे बाद तुम घर आईं, मेरे सब्र का बांध टूट गया। हमारे बीच पहली बार जोरदार झगड़ा हुआ। हम दोनों बिना खाना खाए, एक दूसरे की ओर से पीठ फेर कर सो गए। अगली सुबह मैं तैयार होकर बिना नाश्ता किए घर से निकल गया। शाम को घर लौटा, हमेशा की तरह दूसरी चाबी से घर खोला। लम्बी इंतजार के बाद भी तुम नहीं लौटी। अगले कई दिन मैं तुम्हें ढूँढता रहा।आखिर थक-हार कर चुप बैठ गया। तुम अपनी मर्जी से  मुझे तन्हा छोड़ कर चली गई थी । आज तुम्हें गए एक सप्ताह हो गया।

मैंने बहुत आत्म-मंथन किया ,मैं कहाँ गलत था ? बस मैं इतना ही समझ पाया मैं तुम्हें खुश न रख सका। मैं इस आत्मग्लानि में जल रहा हूँ, मैने तुमसे क्यों झगड़ा किया ?  मैं जानता हूँ तुम गुस्से में घर छोड़कर गई हो और मेरे बिना भी नहीं रह पाओगी । मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ, काश तुम दूर जाकर मेरे प्यार को समझ पाओ और वापस आ जाओ।

तुम बिन जीवन उजाड़ जंगल सा हो गया है। तुम्हारे जाने के बाद से मैंने रात को भी घर का दरवाजा कभी बन्द नहीं किया, क्या पता किस पल तुम लौट आओ और बन्द दरवाजा खटकाने का साहस न करके वापस लौट जाओ। मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता क्योंकि तुम मेरे जीवन का इंद्रधनुष हो और मैं तुम बिन अधूरा हूँ। इस तमस को चीरती मेरी नजरें तुम्हें खोज रही हैं।

क्या सावन में प्यासे चातक को स्वाति की एक बूँद लभ्य हो पाएगी। सब कुछ उस ईश्वर पर छोड़ खुली छत पर बिछे बिस्तर की चांदनी से लिपट कर मैंने आँखें बन्द कर ली। हृदय के रक्त से टपकी दो बूँद तकिए ने चुपचाप सोख लीं।

सरिता गर्ग ‘सरि’

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