भूकंप – भगवती सक्सेना गौड़

सब सहेलियां साथ ही स्कूल जाती थी, दो किलोमीटर की दूरी थी। गप शप, मस्ती करते हुए वो दूरी उन्हें पता ही नही चलती थी। राह के लोगो पर फब्तियां कसती आगे बढ़ती जाती थी। रोज एक रिकशे मे पतली सी महिला को सिर झुकाए जाते देखती थी, उसे देखते ही रोजी गुनगुनाने लगती, “न सर झुका के जियो और न मुहँ छिपा के जियो” इसी मस्ती में स्कूल भी पहुँच गयी।

जल्दी से सब प्रार्थना की सातवी कक्षा की लाइन में खड़ी हो गयी और हवाओ में स्वर गूंजने लगा, हमको मन की शक्ति देना।

कक्षा में पहुँचते ही टीचर ने बताया, एनसीसी की लड़कियां तैयार रहे, अगले हफ्ते उनका नेपाल पोखरा में कैम्प है और ये खबर सुनकर रोजी और उसकी सहेलियों में खुशी की लहर दौड़ गयी। जब स्कूल की छुट्टी हुई सब इठलाती हुई घर पहुँची। रोजी ने अपने मम्मी पापा को बताया, ” हम एनसीसी टूर पर पोखरा जा रहे हैं।”

दूसरे दिन से ही सब ड्रेस धुलने लगी, मम्मी ने प्रेस करके सब बैग में रखा। 

मम्मी ने दो दिन पहले से ही समझाना शुरू कर दिया, “मैम के साथ ही रहना, इधर उधर मत भागना।”

आखिरकार वो दिन आ ही पहुँचा, पापा मुझे बस तक छोड़ने आये।

 सहेलियों और दो मैम के साथ बस में कुछ एनसीसी के लड़कों का ग्रुप भी था, हंसते, गाते, खाते हम मस्ती से जा रहे थे, सबकी मम्मियों ने भी बहुत सा नाश्ता दे दिया था। शाम को बस पोखरा पहुँची, एक स्कूल में ही बड़े से हॉल में हमे रुकना था, हम सब बहुत थक गए थे, खाना खाकर जल्दी से सो गए।

सुबह पांच बजे मैम ने जोर से आवाज़ दी, “सबलोग उठो



तैयार हो जाओ, यहां उगते सूर्य का नज़ारा हिमालय की चोटी से बड़ा ही सुंदर प्रतीत होता था। और सब सहेलियां मनमोहक दृश्य देखने के लिए चल दी। वहां पहुँचकर चौदह वर्ष की रोजी का चेहरा चमक रहा था,  इतनी खूबसूरत थी, कि सब सखियां हिमालय की सफेद पर्वतों की कतारों को देखें या रोजी की सुंदरता निहारे, जो सूर्य की किरणों से दमक रही थी।

नियत समय पर सब उस स्कूल में पहुँच गए, जहां रुके थे। ड्रेस पहनकर नाश्ते के बाद सब एक बड़े से हॉल में थे, कोई बड़े साहब आने वाले थे। 

तभी एक सखी रानी ने रोजी से कहा, “ए, मुझे कुछ हिलता हुआ सा प्रतीत हो रहा।”

सही बोल रही हो, मुझे भी।”

बस उसके बाद क्या हुआ, किसी को खबर नही लगी, सबकुछ डावांडोल हो रहा था, कुछ सामने की कच्ची दीवारें, कमरे गिरने लगे, बहुत तेज़ भूकंप आया था।

भूकंप ने शहर को तहस नहस कर दिया था, लोग टेन्ट में किसी तरह जीवन- यापन कर रहे थे। चोरी,मारपीट,लूट खसोट चरम पर था साथ ही लाचार महिलाओं पर शारीरिक अत्याचार बढ गये थे। 

रोजी अस्पताल में बिस्तर पर थी, हाथ, पैर में पट्टियां बंधी थी, डॉक्टर को लगा, उसे होश आ रहा है।

धीरे से आंखे खोली, और डॉक्टर से पूछा, “मैं कहाँ हूँ, मुझे यहां कौन लाया, फिर चारों ओर नजरें दौड़ाई, तो उसे लगा भीड़ कुछ ज्यादा ही है।”500

डॉक्टर ने एक ओर इशारा किया, “ये बुजुर्ग महिला आपको लेकर आई हैं।”

रोजी ने पहचानने की कोशिश करी, पर असमर्थ रही।

एक महीने बाद वही बुजुर्ग महिला मन्नो देवी उसे अपने छोटे से घर मे ले आयी, हमेशा बहुत कुछ जानना चाहा, “वो कौन है, मम्मी, पापा कौन हैं, पर रोजी अपने परिवार को भुला चुकी थी, दिमाग शून्य में विचरता था।”

मन्नो देवी पचपन वर्ष की नेपाली महिला थी, जीवन के कई वसंत देख चुकी थी, उनके पति जरा रसिक मिजाज के व्यक्ति थे, उनकी शाम बोतल और गिलास से ही शुरू होती थी। पंद्रह वर्ष की खूबसूरत खिलते गुलाबी गुलाब सी रोजी को उनकी गुलाबी आंखे कई बार घूरने लगी जो मन्नो देवी के तीसरे नेत्र से अछूती नही रही। वो दिनभर चिंतित रहने लगी, इसी बीच एक दिन शाम को रोजी अकेली घूम रही थी, जब ज्यादा सोचती तो उसका सिर दर्द करने लगता था। एक चबूतरे पर बैठ गयी, दूध जैसी निर्मल काया, एक ताज़े कमल के फूल मानिंद दिखाई दे रही थी, आंखे बंद किये आराम करने लगी। उसे पता ही नही लगा, कैसे भंवरो को खबर हुई। इक अहसास हुआ, आस पास कोई है, आंखे खोली तो देखा कुछ लड़के भी वहीं बैठे उसे घूर रहे हैं। उसे महसूस हुआ ये नशे में हैं, पर असल मे वो उसकी खूबसूरती के नशे में सब भूल चुके थे। अचानक रोजी उठी और चुपचाप घर चल दी।

वो अपने आप से अनजान रोजी मन्नो देवी को ही माँ का प्यार देने लगी। मन्नो देवी चिंतित रहने लगी जमाने को देखते हुए वो कुछ उपाय सोचने में लग गयी। क्योंकि जहां पहले सुनसान रहता था, अब लड़के घर के आस पास घूमते नजर आते थे।



ईश्वर से हमेशा प्रार्थना करने लगी, “हे देव, मेरे प्राणों की रक्षा करना, मुझे इस फूल को मुरझाने नही देना है, मैं चली जाऊंगी तो इसकी देखभाल कौन करेगा।” 

बहुत सोच विचार कर मन्नो देवी ने दिल्ली वाले भाई को बुलवाया, जिनके ऊपर उसे विश्वास था, सारी कहानी सुना कर, उसका जीवन, पढ़ाई लिखाई का जिम्मा उन्हें दिया। रोजी ने उनको शुरू से मामा ही बुलाया और मामा के साथ दिल्ली आ गयी।

दिल्ली आकर रोजी की जिंदगी ने करवट बदली क्योंकि मामी भी एक स्कूल की शिक्षिका थी, उन्होंने पांच महीने घर मे पढ़ा कर उसको अपने ही स्कूल में नवीं कक्षा में भर्ती करा दिया। तीक्ष्ण बुद्धि की रोजी ने जल्दी ही बारहवीं फर्स्ट डिवीज़न से उत्तीर्ण किया और तैयारी करके आई आई टी दिल्ली में एडमिशन लिया।

अब एक के बाद एक कई सीढ़ियों को पारकर रोजी इंजीनियर की डिग्री ले चुकी थी। कॉलेज कैंपस से ही उसको अच्छी कंपनी ने चुन लिया था। उसकी सर्विस पुणे में लगी थी।

 रोजी बहुत खुश थी,  बस जीवन का एक दूसरा पड़ाव शुरू होने वाला था। अब वो दौर था, जब वो कभी ऑनलाइन शॉपिंग कभी विंडो शॉपिंग में व्यस्त रहने लगी। 

ब्यूटीपार्लर जाकर सुंदर से मुखड़े को और चमकाया गया।

पुणे ट्रेन से ही निकलने की तैयारी थी, चल पड़ी। रिजर्वेशन तो था, पर कुछ लड़के लड़कियां एग्जाम देने जा रहे थे, उनका हुजूम एक साथ ट्रेन के डब्बे में घुस गए। उनकी बातें, शोर बढ़ते ही जा रहा था। रात को एक बार रोजी ने एक लड़के से कहा, “आपलोग इतना शोर करेंगे तो सब सोएंगे कैसे?”

लड़को के हुजूम ने रोजी को घेर लिया, “घर मे सोती नही हो क्या, आज हमारी खातिर जग लो।”

थोड़ी दूर एक नवयुवक यह सब देख रहे थे, वो उठकर आये और जोर से इन लड़को से कहा, “लेडीज से कैसे बात करते है ये भी नही पता।”

और तकरार बढ़ती गयी, बहस ने मार पीट का रुख अख्तियार किया, तभी टीटीई और गार्ड आकर उन एग्जाम देने वाले लड़को को दूसरे डिब्बे में ले गए।

रोजी ने उस नवयुवक से कहा, “थैंक्स, आज मैं बहुत डर गई थी, आपने हिम्मत दी।”

मुझे राजन कहते हैं, पुणे जा रहा हूँ।

और मैं रोजी…

 पुणे पहुँचकर रोजी अपनी कॉलेज की दोस्त रीना के रूम पहुँची। अब रोज साथ मे ही आफिस जाती थी। रोजी भी पेइंग गेस्ट बनकर वही रहती थी।

आफिस में जल्दी ही काम मे मन लग गया। एक दिन अचानक उसी के आफिस में दूसरी टीम के कई लोग कुछ काम से आये। दूर से रोजी को लगा एक लड़का कुछ पहचाना लग रहा है और जाकर उसे देखा तो आष्चर्यचकित रह गयी। ये राजन था, उसे लेकर कैंटीन गयी। दोनो ट्रेन की घटना याद करते रहे ।

जब एक ही आफिस में थे, तो अक्सर दोनो रोज मिलते थे।

दोनो वैसे तो लोगो से घिरे रहते थे, पर मन अकेला था। धीरे से आंखे दो से चार हुई, दिल हर क्षण एक दूसरे में खोने लगा, मिलन की बेसब्री बढ़ती ही गयी। दोनो ने मिलकर अपना दिल्ली में ही ट्रांसफर करा लिया।

अधिकतर रोज ही कभी लोधी गार्डन,  कभी तालकटोरा गार्डन में मिलने का क्रम जारी रहा। इन्ही भावनायों के मेले में उनदोनो ने जीवनसाथी बनने के सपने देखने शुरू कर दिए।

एक दिन डरते डरते रोजी ने मामा से कहा, “आप नाराज तो  नही होएंगे एक बात पूछनी है आपसे।”

मामा ने कहा, “कुछ बताओगी या सिर्फ डरती रहोगी।”

“मैं और राजन शादी करना चाहते है, मेरे ही आफिस में इंजीनियर हैं।”

“रोजी, इससे अच्छी और क्या बात होगी कि बिना परिश्रम किये कोई अच्छा दामाद मिल जाये।”

शादी का एहसास रोजी के लिए ठीक वैसा था जैसे मिट्टी में कोई बीज सींचता है। उसके मन के ख्वाबो की नगरी में हलचल जारी थी, आंखों में हज़ारों सपने नींद की जगह ले चुके थे। 



तय हुआ आने वाले रविवार को राजन अपने मम्मी,पापा के साथ रोजी के मामा, मामी के घर आएंगे। 

राजन और रोजी जितना डरे हुए थे, उतने ही आसान तरीके से बड़ो ने आज्ञा दे दी। मामा, मामी सुनकर ही बहुत खुश थे कि दीदी के वचन को निभाने का वक़्त आ पहुँचा है।

दोनो प्रेमी आकाश में उड़ने लगे, उनकी मुलाकातें रोज होने लगी, दिल की नगरी रोशनी से जगमग थी। राजन के मम्मी पापा कहीं एक हफ्ते को घूमने गए थे, रोज ही दोनो का समय घर मे साथ बीतने लगा। रोजी के प्यारे प्यारे हाथों की बनी नई नई डिशेस घर मे बनने लगी और उसके साथ रोजी अपने कोमल हाथों से ही जब राजन को खिलाती तो दोनो को स्वर्ग का अनुभव होता। ऐसे ही एक नाजुक क्षण धीरे धीरे रोज आते रहे और कब दोनो प्रेम की हदों को लांघ गए, एक दूसरे में समा गए, कोई समझ न पाया। अब ये सिलसिला एक हफ्ते चलता रहा, दोनो को बड़ो का एग्रीमेंट तो मिल ही चुका था।

एक दिन दोनो आफिस के लिए निकले, रास्ते मे रोजी को याद आया, हेलमेट तो भूल गयी। फिर भी जाना ही था, दोनो बाइक में उड़ने लगे, रोजी गुनगुना रही थी, “जिंदगी एक सफर है सुहाना, यहां कल क्या हो, किसने जाना।”

फिर रोजी को गाँधीजी और कई देशभक्तों की मूर्तियां चौराहे पर दिखी, उसके बाद क्या हुआ, उसे कुछ ध्यान नही था।

धीरे से आंखे खोली, अपने चारों ओर अनजान व्यक्तियों को देखा और बोली, “मैं कहाँ हूँ, पापा, मम्मी……।”

डॉक्टर ने कहा, “आप बिलकुल ठीक हैं, पैर में प्लास्टर है, सिर में हल्की सी चोट है, ये आपके मामा, मामी हैं।”

जिनको मामा, मामी कह रहे थे, उनको पहचानने की कोशिश करती निगाहे वापस लौट आयी।

“नही, मैं इन्हें नही जानती।” 

दौड़ते हुए राजन आये उन्हें भी हल्की खरोंच आयी थी, “रोजी, मैं तुम्हारा राजन हूँ।”

रोजी ने अनजान बनकर सिर हिलाया।

और राजन अकस्मात इस वज्रपात को झेलने की स्थिति में नही थे, जोर से रोने लगे, मामा उसे पकड़ कर बाहर ले गए और बोले, “धीरज रखो, सब ठीक हो जाएगा।”

कुछ दिनों बाद रोजी को मामा के घर जाना ही पड़ा, गुमसुम सी अपने भूले हुए अतीत में फिर से रोशनी डालती रहती थी। राजन को देखकर ही मुँह मोड़ लेती थी और उसे लगता था, इश्क की राहों में जंगली फूल उग आए हैं, बेचारा अपने इश्क की दुर्दशा पर आंसू पीते रहता था।

सवा महीने बाद रोजी के पैर का प्लास्टर निकल गया।

उसके बाद आफिस तो जाने लगी पर ज़्यादातर चुप ही रहती। घर आकर कभी कभी सबके ऊपर चिल्लाती रहती

एक दिन रसोइया को खूब डांटा , “ऐसा खाना कोई खाता है, मछली बनाते ही नही, याद नही मैं रोज माछ भात खाती हूं।

डॉक्टर की राय थी, कि रोजी को पुरानी जगह ले जाये, जिन्हें ये याद करती हैं, उनसे मिलवाये, शायद सबकुछ पहले की तरह हो जाये।

राजन ने डॉक्टर की राय मानी और एक हफ्ते बाद दोनो गोरखपुर के लिए रवाना हुए। वहां पहुँच कर स्टेशन से ही रोजी बहुत खुश नजर आने लगी, इ – रिक्शा में बैठ गए और यूँ लगता था अभी चिड़िया बनकर पूरे शहर में उड़ेगी, “यहां गोलघर की सड़क है, ये टाउन हॉल है, ये बोबीज़ होटल है, अब बस मेरा मोहल्ला बक्सीपुर आने ही वाला है, अब आया चौराहा, इससे थोड़ा सा आगे जाएंगे तो मेरे मम्मी, पापा का घर दिखेगा।”

और  रोजी और राजन एक बड़ी इमारत के सामने खड़े थे, रोजी आश्चर्य चकित थी, “यहीं तो था, मेरा दुमंजिला मकान, ये इतना बड़ा कैसे हो गया ?

कॉल बेल बजायी, एक सज्जन आये, उनसे खबर मिली कि रोजी के मम्मी पापा दस साल पहले घर बेचकर दिल्ली में बस गए, क्योंकि वो यहां अपनी गुमशुदा बच्ची के लिए तरसते थे।



रोजी थोड़ी देर सिर पकड़े बैठी रही, फिर पूछा, ” कोई पता है, आपके पास।”

हां, आप बैठिए, डायरी ढूंढता हूँ।

पता लेकर फिर दोनो वापस दिल्ली आए।

दो दिन बाद घर खोजने का अभियान चला, दिलशाद गार्डन में बहुत खोजने पर अंत मे, रोजी की इच्छा पूर्ण हुई।

जाली के दरवाजे में रोजी खड़ी थी और चिल्ला रही थी, ” कोई है ?”

अंदर से एक बुजुर्ग महिला आयी, “हां, बोलिये किससे मिलना है?”

“जल्दी से गेट खोलो, फिर बताऊं, आंखे धुंधली हो चुकी थी।”

गले लगकर जोर से माँ को भींच लिया, ” कैसी माँ हो, बेटी को नही पहचाना।”

पीछे से पापा भी निकल आये। माँ बेहोश हो चुकी थी, सबने पानी के छींटे मारे, तो होश आया।

मम्मी, पापा एक सुर में बोल रहे थे, कई बार ईश्वर से मिन्नते की, अब नही जीना।

पर शायद ईश्वर को अपना चमत्कार दिखाना था। 

अब हर तरफ खुशियां थी, और रोजी भी राजन का हाथ पकड़ कर शुक्रिया अदा कर रही थी।

मामा भी आये थे और पूरी कहानी रोजी के मम्मी पापा को सुनाने को आतुर थे।

उसी समय राजन के मम्मी, पापा भी पहुँच गए और रोजी से बोले, “अब तो सब मिल गए, आओ बेटा, हमारे राजन की जिंदगी को रोशन करो।”

रोजी ने शरमा कर अपनी स्वीकृति दे दी।

स्वरचित

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