भीगे पल – विजया  डालमिया

बरसते भीगते मौसम के साथ शिल्पा का मन भी आज ना जाने क्यों भीगता चले जा रहा था। यूँ तो उसने कभी भी मौसम के बदलाव से अपने आप में कोई फर्क कभी नहीं महसूस किया। जिम्मेदारियों को बखूबी निभाते निभाते कितने ही मौसम यूँ ही गुजर गए उसे पता ही नहीं चला। उसकी जिंदगी एक सीधी सरल रफ्तार पकड़े हुए थी। पर प्रकृति का हर क्रियाकलाप एक निश्चित संविधान के अनुसार चलता है। हम उससे व वह हमसे अंजाना होता है।

इसी बारिश के मौसम में एक दिन जब वह कैब के इंतजार में खड़ी थी तो जाने कहाँ से वह सामने आ खड़ा हुआ और कहने लगा….” आप कैब का इंतजार कर रही है”? शिल्पा ने नजरें दूसरी  ओर  कर ली। उसने फिर पूछा….” आपको कहाँ जाना है? “शिल्पा ने थोड़ा बेरुखी से जवाब दिया….  स्टेशन।

बिना किसी भूमिका के उसने कहा….. “मेरा मोबाइल डिस्चार्ज हो गया है। मैं कैब बुक नहीं कर पाया। अगर आपको आपत्ति ना हो तो क्या मैं आपके साथ चल सकता हूँ क्योंकि मुझे भी वही जाना है?”

उसने यह बात इतने शाँत व ठहरे स्वर में  मुझसे कही कि मैं इंकार ना कर सकी। कुछ ही देर में कैब आई । इत्तेफाक से कैब में सामने की सीट की खिड़की से पानी रिस रहा था। वो फिर भी सामने की ओर बढ़ा और कार का गेट जैसे ही खोला पता नहीं कैसे मैंने कह दिया कि …कोई प्रॉब्लम नहीं। आप पीछे बैठ सकते हैं। तुरंत ही वह पीछे आकर बैठ गया। थोड़ी देर खामोशी…………… फिर उसने कहा …थैंक यू। मेरा कोई जवाब ना पाकर उसने फिर कहा …”बात करने पर तो टैक्स नहीं है ना? “मैं मुस्कुरा उठी। उसने आत्मीयता से मुझे देखा और कहा…मैं शिखर ..और आप? मैं फिर खामोश……….. बरसते पानी की बूँदों  में अपने आप में  खोयी । तभी  कैब  वाले ने एक गाना लगा दिया…. तुम जो मिल गए हो तो यूँ लगता है कि जहाँ मिल गया हो।

शिखर ने भी साथ साथ गुनगुनाना शुरू कर दिया। झूठ नहीं कहूँगी उसकी आवाज इतनी मीठी व सधी हुई थी कि दिल में उतरते चली गई। मैंने कनखियों से उसे देखा। गोरा चिट्टा रंग, हल्की सी मूंछ व हेयर स्टाइल एकदम हीरो की तरह। कुल मिलाकर काफी स्मार्ट था। अब मैं थोड़ी थोड़ी नॉर्मल हो चली थी। ना जाने क्यों चाह रही थी कि  शिखर कुछ पूछे। पर वह बाहर की ओर देख रहा था। अचानक मैं कह उठी… “—मैं शिल्पा —

उसने मुझे देखा और हल्का सा मुस्कुरा उठा। बस फिर तो बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ और रुका ही नहीं। मैं खुद नहीं समझ पा रही थी कि मैं कैसे एक अजनबी से इतनी जल्दी इतनी फ्री होकर बात कर पा रही हूँ । वह घंटे भर का सफर इतना यादगार होगा मैंने कल्पना भी नहीं की थी।



स्टेशन आने पर जब हम उतरे तो उसने कहा – “आपसे मिलकर वाकई बहुत खुशी हुई। आज से तुम मेरे दोस्तों के लिस्ट में हो। पर …फोन नंबर तो तुमने दिया ही नहीं?” वह सीधा आपसे तुम पर आ चुका था। मैंने कहा .”फिर कभी”। उसने कहा …. “ठीक है मेरा तो लेलो।शायद कभी काम आजाये” और अपना कार्ड मुझे दे दिया।

बात आई गई हो गई। एक रोज यूँ ही बालकनी में बैठी थी कि वही गाना कहीं बजता हुआ सुनाई दिया- तुम जो मिल गए हो ……. मुझे तुरंत शिखर की याद आ गई। मैंने पर्स में से कार्ड निकाला और कॉल किया। एक रिंग जाते से ही मैंने डिस्कनेक्ट कर दिया। कभी-कभी हमें पता नहीं होता हम यह क्यों कर रहे हैं। पर तभी फोन बजा मैंने हेलो कहा वैसे ही “..अरे शिल्पा तुम ? कैसी हो ? “वही आत्मीयता। मैंने कहा – ठीक। बस फिर से बातों का सिलसिला शुरू। पता नहीं कितनी बातें जो मैं किसी से नहीं कर पाती थी सब की सब उसे बेहिचक बता जाती थी। मैं बहुत खुश रहने लगी थी। उसके साथ उसकी बातें और अकेले में भी उसी की बातें। मेरी सुबह,दोपहर, शाम पर उसका कब्जा मुझे अच्छा लगने लगा। और रातों में वह ख्वाब बनकर आँखों में समाने लगा। उसकी वाकपटुता और मसखरा पन उसे मेरी नजर में हीरो बनाते चले गए।

पर मैं थी कौन? मैं वह जिसके परिवार में मेरे अलावा एक छोटी बहन और माँ थी जो गाँव में रहती थी। पिताजी का देहांत जब मैं कॉलेज में थी तभी हो गया। जिंदगी की जरूरतैं है मुझे पूना  ले आयी । काफी प्रयासों के बाद अब मैं यहाँ सेट हो गई थी। जिंदगी की आपाधापी में मैं और मेरे एहसास काफी पीछे रह चुके थे पर शिखर ने उनसे मेरा परिचय करवाया।

कल ही  शुचि मेरी छोटी बहन का कॉल आया कि वह मां को लेकर कुछ दिनों के लिए आ रही है। मैं बहुत खुश थी। पर जब हम अकेले रहने लगते हैं तो हमारी जिंदगी खुली किताब की तरह हो जाती है ।जिस के पृष्ठ आवाज करें या खामोश रहे हमें उससे कोई फर्क नहीं पड़ता । माँ और शुचि के आने के बाद मेरे दिन रात में बदलाव आ गया और मुझे अपनी निजता में रुकावट दिखने लगी। हालांकि मैं पहले की ही तरह शिखर से बातें करती थी। पर कभी शुचि  तो कभी  माँ जब सवालिया नजरों से मुझे घूरती तो मैं कुछ नहीं कह पाती थी। फिर एक दिन माँ ने कहा- “कौन है? बुला ले कभी घर पर। हम भी मिल लेंगे।” तब मैंने माँ से कहा…” देखते हैं।” कैसे समझाती कि हमारा रिश्ता कुछ भी नहीं, पर सब कुछ है। हमारा बात करना और एक दूसरे को समझते हुए खुद को समझाना। कैसे बताती कि मैं क्या महसूस करती हूँ उसके साथ और उसके बिना क्योंकि यह तो खुद ऐसा सवाल था जो पहले कभी उठा ही नहीं।

एक रोज फिर वही बरसता मौसम। मैं और शुचि बालकनी में बैठे चाय की चुस्की के साथ हँसी –मजाक कर रहे थे। तभी मां ने आवाज लगाई …”बेटा तुझसे मिलने कोई आए हैं।”



मैं तपाक से उठी और जैसे ही ड्राइंग रूम में पहुँची  हाथ से  कप गिरते-गिरते बचा। सामने वही जनाब अपनी चिर परिचित मुस्कान बिखेरते खड़े थे और मैं उनसे यह भी नहीं कह पाई कि बैठो तो सही। उसने ही आगे बढ़ कर कहा- “आइए मैडम, आप ही का घर है। इजाजत हो तो बैठा जाए।” मैंने कुछ नहीं कहा सिर्फ नजरों से इशारा और हम बैठ गए। पीछे पीछे शुचि  भी  आ गयी । मैंने तुरंत सहज होते हुए सबका आपस में परिचय करवाया। माँ तो बस मुग्ध होकर शिखर को ही निहारे जा रही थी और शिखर वह तो सबसे इतना घुल मिल गया कि  लग ही नहीं रहा था कि उन्हें जानता नहीं। और  शुचि वो तो शिखर के जोक और बातों पर कभी परेशान कभी हैरान और कभी मुस्कुरा कर खामोश। शिखर पहली बार घर आया था तो माँ ने मुझसे पूछ कर सारी चीजें शिखर की पसंद की ही बनाई थी और शिखर जाते समय यह कहना नहीं भूला कि ….” माँ जब तक यहाँ हैं मैं इतना अच्छा खाना  मिस नहीं कर सकता।” मैं उसे गेट तक छोड़ने  गयी ।

तब शिखर की नजरों ने मेरा अपने अंदाज में कुछ ऐसा मुआयना किया कि मैंने नजरें झुका ली। इतना प्यार मै सह नहीं पाई। नजरें एहसास बनकर कैसे  छूती हैं यह पहली बार समझ पाई मैं। जैसे ही घर में घुसी माँ की आवाज मेरे कानों में पड़ी  कि ….”बहुत ही प्यारा व समझदार लड़का है शिखर। मेरी तो चिंता ही दूर हो गई”। इतना सुनते ही मैं शर्म से लाल हो उठी । मैंने कुछ नहीं कहा क्योंकि आज के इस हर पल को फिर से मैं खुद के साथ अकेले में जीना चाहती थी। तब मुझे कहाँ पता था कि कोई और भी है जो मेरी ही तरह इस पल को अपनी आँखों में बसाकर जाग रहा है।

सुबह जब मैं जॉब के लिए जा रही थी तो माँ ने मुझसे शिखर का नंबर माँगा । मैंने उन्हें खुशी खुशी नंबर दे दिया। मैंने सोचा माँ मेरे और शिखर के रिश्ते को नाम देना चाहती है शायद।

दोपहर में मेरे पास शिखर का कॉल आया ,तब पहली बार उसकी आवाज में एक बदलाव व ठहराव सा लगा मुझे। मेरे पूछने पर उसने कहा ….”मैं तुमसे अभी मिलना चाहता हूँ ।” फिर मैंने कुछ नहीं पूछा। हम दोनों कॉफी हाउस में बैठे थे। शिखर ने जो कहा वह सुनकर मेरे पाँव के नीचे से जैसे किसी ने जमीन खींच ली हो। कुछ देर लगी मुझे सहज होने में। फिर मैंने पानी का ग्लास उठाया और शिखर की ओर सूनी आँखों से देखा और कहा कि…” शुचि मुझसे छोटी है और यदि उसे कुछ पसँद आ जाए तो मुझे मेरी पसँद छोड़नी ही होगी।”.. तुरंत शिखर ने मेरा हाथ कस कर पकड़ा और कहा….” मैं कोई चीज नहीं हूँ ।” जीता जागता भावनाओं का पुतला हूँ  ।जिसमें साँसे  धड़कती है तुम्हारे नाम से। मुस्कान खेलती है तुम्हारी बातों से। आँखें जीती है तुम्हारे ख्वाबों से”। और इतना कहते-कहते उसकी आँखों से आँसू टपक कर मेरी हथेली को भिगो गये। और मैं ……..? मैं तो वहाँ होते हुए भी मानो नहीं थी। आसपास जिम्मेदारियों का जँगल मानो रास्ता भटकाने के लिए खड़ा था। मुझे मेरी ही आवाज बहुत दूर से आती हुई महसूस हो रही थी। मैंने पर्स उठाया। धीरे से अपना हाथ छुड़ाया और आँखों का गीलापन शिखर से छुपा कर उठ खड़ी हुई। मैंने उससे सिर्फ एक ही बात कही कि…” हम इतने अच्छे से एक-दूसरे को जानते समझते हैं कि अब कोई भी सवाल या जवाब की हमारे बीच गुंजाइश नहीं होगी “और वह सब समझ गया। मैंने हाथ जोड़ते हुए जब उसे देखा तो उसकी नजरों में प्रार्थना, आशा व खोया प्यार सब एक साथ दिखाई दिया मुझे। पर मैं अपनी आँखों के भाव उसे नहीं दिखाना चाहती थी और तेज कदमों से वहाँ से बढ़ चली । एक बार भी मैंने पलट कर नहीं देखा।

उसके बाद वही हुआ जो होना चाहिए था। दिन, महीने, साल बदल गए और रिश्ते भी। माँ अब मेरे साथ ही रहती है। मुझसे कुछ पूछने की उन्हें हिम्मत नहीं होती क्योंकि मेरे शब्द अब खामोश हो गए हैं। भावनाएँ और जज्बात जिम्मेदारियों की चादर ओढ़ सो चुके हैं। मेरे भीगे पल जब कभी भीगे मौसम में मुझे रुलाते हैं तो बारिश की बूँदे  हमेशा मेरा साथ देती हैं और वही गाना लबों पर आ जाता है कि….. तुम जो मिल गए हो।

 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!