मायके की बात आते ही हर लड़की के मन मे बहुत सी यादें चली आती है,जिनमे होती है कुछ शरारते,कुछ बचपन की अठखेलियां,कुछ रुठा मटकी, बड़े भाई की देखभाल,लाड़ दुलार साथ ही डराती धमकाती आंखें,तंग करती डांटे,मां का अटूट प्रेम पापा का स्नेह, बहनों के साथ की गई मस्ती यह सब कुछ सेकंड की भी देरी ना करते हुए आंखों के सामने आ जाता है।
सबसे ज्यादा खुशबू होती है इन यादों में माँ के हाथ के खाने की जो शायद ही कोई लड़की शादी के बाद भूलती हो। उस खाने का स्वाद मांँ के लाड़़ दुलार की ममता लिए होता है ।रुचि की शादी को भी काफी साल हो गए थे। पर मायका तो मायका ही होता है ना हर लड़की की तरह मायके का स्थान ससुराल की जिम्मेदारियों को निभाने का जज्बा लिए कुछ विशेष जगह पर ही होता है। काफी कोशिश की थी रुचि ने अपने हाथ में माँ के खाने के स्वाद को लाने की पर कहीं हमेशा ही कुछ छूट जाता था ।हमेशा सोचती क्या कमी रह जाती है और फिर वही स्वाद लाने की भरपूर कोशिश किया करती ,पर वो स्वाद गहराई से मनोपटल पर तो आता पर जीभ उस से वंचित ही रह जाती थी।
पता नहीं क्यूँ आजकल माँ की बहुत याद आने लगी थी।खुशी का ठिकाना नही रहा जब भाई का न्यौता आया कि रामायण का पाठ रखवाया है सपरिवार आना है तुम सबको। रोजमर्रा की जिंदगी के चलते जब मायके से ऐसा बुलावा आता है तो उस खुशी को बयां करने के साथ ही वह बचपन ,शादी से पहले का समय , दहलीज छोड़ने का दुख सब उस न्यौते की खुशी में समा जाता है ।निश्चित समय पर भाई के न्यौते का मान रखने के लिए मायके में कदम रखा रूचि ने। नीलेश भी रूचि को खुश देखकर बहुत खुश थे।बहुत दिनों बाद जो आना हुआ था मायके। कोना-कोना रामायण की चौपाई के साथ बचपन के किस्से सुना रहा था।
समापन के बाद बारी आई खाना खाने की। चिर परिचित गंध मन को छूती हुई मांँ की रसोई तक ले गई वही खुशबू जो मांँ की अरहर की दाल में समाई होती थी। भाभी ने बड़े लाड़़ प्यार के साथ थाली परोसी । मन में आया क्या खाना भी उस स्वाद की पूर्ति करेगा जो मेरे हाथ से ना हो पाई थी। तभी भाभी ने पहला निवाला अपने हाथ से खिलाया मांँ सरीखी लगी आज भाभी। आँखें झलझला उठी। वही स्वाद था खट्टी मीठी दाल में जो लाख कोशिशों के बाद भी मेरे हाथ में न आ सका था,रूचि की जीभ ने स्वीकारा।
“मांँ की शागिर्दी भाभी का हुनर या इस स्वाद के पीछे मायके में बीता बचपन, मांँ के द्वारा किया गया लाड़ प्यार था, हां शायद वही स्वाद था जो मुझसे हमेशा छूट जाता था और मेरी अरहर की दाल मांँ जैसी कभी नहीं बन पाती थी”
बहुत अरसे बाद आज एक सुखद अहसास और रिश्तों की खूबसूरती से अभिभूत हुई थी रूचि।
तृप्ति शर्मा।
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