बेटियाँ – नरेश वर्मा

लॉटरी की पर्चियाँ मिक्स करके चीनी मिट्टी के बाउल में डाल दी गई ।सेंटर टेबल पर बाउल रखा है और सोफ़े पर तीनों आसन जमाएँ बैठी हैं।यह लॉटरी न तो किसी किटी पार्टी से ताल्लुक़ रखती है और न ही किसी खेल की शुरुआत के क्रम से।यह लॉटरी उस ऋण की अदायगी का क्रम है जो बच्चों पर उनके माँ-बाप के प्रति शेष रहता है ।

सुवासिनी के प्रसव का प्रथम उपहार लड़की था।सुवासिनी ने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि घर में लक्ष्मी आई है।दूसरे प्रसव में पुन: लड़की के जन्म पर सुवासिनी ने जैसी प्रभु की इच्छा कहकर इसे भी ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार किया ।दूसरे प्रसव के पश्चात सुवासिनी ने सोच लिया कि घर में दो गुड़ियाएँ ही काफ़ी हैं ,

बस आगे और नहीं ।किंतु पति विनायक जी को घर-आँगन में एक गुड्डे की दरकार थी ।पति की इच्छा के आगे सुवासिनी के समर्पण का परिणाम भी जब कन्या रूप में अवतरित हुआ तो उसके मन में दुख हुआ कि पति की लड़के की आस वह पूरी न कर सकी।किंतु बाद में सुवासिनी ने मन को समझाया कि यह कन्या भी तो प्रभु का उपहार है ,प्रभु के उपहार से मन खट्टा क्यूँ करूँ ।

 घर के आँगन में तीन कलियाँ सुवासिनी के लाड़-प्यार की खाद से पुष्प बनने की ओर अग्रसर थीं ।किंतु हर पुष्प की सुगंध समान नहीं होती।बड़ी लड़की तन्वी पढ़ाई में कुशाग्र थी ,डाक्टर बन कर जन सेवा की अभिलाषा पाले थी ।दूसरी लड़की मधु रसोई में माँ के साथ नयी-नयी रेसिपी के नाम पर नित नये प्रयोग करती रहती।कभी तो नया प्रयोग ऐसा होता कि उँगलियाँ चाटने का मन करता और कई बार ऐसा भी होता कि न निगलते बनता और न उगलते।मधु की आकांक्षा मास्टर शेफ़ बनने की थी ।


और सबसे छोटी मेघा तो विनायक जी (पापा)से अक्सर डाँट खाती रहती ।डाँट का कारण पढ़ाई नहीं फुटबॉल थी।पापा को फुटबॉल से उज्र नहीं था ,पर उनके लगन से लगाए फूलों के गमलों को , फुटबॉल का शिकार होने पर अवश्य एतराज़ था।सुवासिनी के सुझाव से मेघा फुटबॉल कोचिंग में डाल दी गई ।

 कुछ सपने हक़ीक़त बनने की राह पर थे ,तो कुछ सपनों की मंज़िल भविष्य की अनिश्चितता पर टिकी थी ।बड़ी लड़की तन्वी जब मेडिकल के फ़ाइनल ईयर में थी तो ह्रदय की कार्यशैली का पाठ पढ़ते हुए उसने यह नहीं जाना था कि दिल बदले भी जा सकते हैं ।मेडिकल की किताबों में भले ही यह न लिखा हो पर हक़ीक़त में दिल लिए और दिये जा चुके थे ।अपने ही बैच के सुशांत को तन्वी दिल दे चुकी थी ।

माँ सुवासिनी को दिल की इस अगला-बदली में कोई एतराज़ नहीं था, भले ही दिल्ली वाली का दिल चेन्नई के दिल से बदला गया हो।

  दिल्ली में शहनाइयाँ बजीं और सुवासिनी के आँगन की एक चिड़िया , चेन्नई के नये घोंसले की ओर उड़ गई ।कितनी कठोर है दुनिया की रीत कि दिल के जिस टुकड़े को जतन से पाला हो ,वह एक झटके में जुदा हो जाता है ।किंतु यह भी सच है कि समय की धारा में जीवन पुनः सामान्य भी हो जाता है ।

  एक सांत्वना और थी कि तीन में से एक ही चिरय्या तो उड़ी है, बाक़ी दो तो चहचहा रही हैं ।किंतु कितने दिन ? मँझली बेटी मधु ने मास्टर-शेफ़ की कई प्रतियोगिताओं में भाग लिया , पर उसके रसोई में किये प्रयोगों को हरी झंडी न मिल सकी।हाँ इतना अवश्य हुआ कि होटलों की एक मशहूर चेन ने उसे मैनेजमेंट की पोस्ट पर रख लिया ।


इसी बीच जयपुर से उन्हीं की बिरादरी का रिश्ता मधु के लिये आया।बात कुछ ऐसी बनी की तुरतफुरत मधु भी घर की मुँडेर पूज ,दिल्ली को वाय-वाय कर गई।

 सबसे छोटी मेघा कहने भर को घर की थी पर वह गुरुग्राम में ही कमरा ले कर रह रही थी । स्टेट लेवल पर वह हरियाणा की ओर से फुटबॉल खेल रही थी ।शादी-वादी के चक्कर में फँसने का उसका कोई इरादा नहीं था ।

  सुवासिनी को अपने बचपन का वह क़िस्सा अक्सर याद आता था , जब उसके आँगन के पोखरें में एक चिड़िया ने घोंसला बना लिया था।तिनका तिनका जोड़ घोंसला बनाया , उसमें अंडे दिये ,नन्हें नन्हें बच्चे चीं-चीं करते ।चिड़िया चोंच में दाना लाती प्यार से चुगाती ।धीरे-धीरे बच्चों के पंख आए और सब उड़ गए अपने नये बसेरे की ओर। क्या वह भी अपने बचपन की बही चिड़िया नहीं है

तीज-त्योहार पर जब कोई लड़की आती तो घर के आँगन में बहार आ जाती ।पर कितने दिन ,ज़्यादा से ज़्यादा दो तीन दिन ।इसके बाद वही दो प्राणी और लौकी तोरई की सब्ज़ी।

 और एक दिन गले में फूलों के हार पहने ,सहकर्मियों के साथ विनायक जी घर आए थे ।अब वह स्वतंत्र थे अपने बगीचे को भरपूर समय देने को।जैसा भी था सब ठीक ही चल रहा था , किंतु एक दिन विनायक जी द्वारा भारी गमला उठाने से ऐसा ज़ोर पड़ा कि दिल गिरफ़्त में आ गया।बेटियाँ आयीं , सेवा और इलाज भी हुआ किंतु उनके द्वारा गमले को दी गई सेवा उनकी अंतिम सेवा बन गई।

पत्नी और बेटियाँ जार-जार रोईं ।पर कितना भी रो लो जाने वाले लौट कर नहीं आते।

 सुवासिनी नितांत अकेली पड़ गई थीं।बेटियों ने मीटिंग की।छोटी का तो कोई घर ही नहीं था ,तो बाक़ी दोनों ने माँ को साथ रहने का प्रस्ताव दिया।अनजान भाषा का शहर चेन्नई , सुवासिनी को रास नहीं आ रहा था और मधु के संयुक्त परिवार में समधी- समधन के साथ रहने में उसे संकोच था ।किंतु वास्तविकता तो यह थी

कि सुवासिनी उस घर ,जिसमें उसके दाम्पत्य की अनंत यादें जुड़ी थीं , छोड़ना ही नहीं चाहती थी ।समस्या का सहज सुलभ हल ,माँ के साथ एक फ़ुल टाइम मेड रखने के निर्णय पर ,सहमति बनने के बाद सुलझा लिया गया।


  यद्यपि माँ के साथ रहने को दिन-रात रहने वाली मेड मिल गई थी किंतु बेटियाँ पूर्ण आश्वस्त नहीं थीं ।उन्हें चिंतातुर देख सुवासिनी ने कहा-“ हमने कभी तुम सब के भविष्य के लिए घोंसले बना कर नहीं दिये , बस तुम्हें उड़ने की कला सिखलाई।आज तक मैं तुम सब की ही चिंता करती रही ,स्वयं से कभी मिलना हुआ ही नहीं ।

ईश्वर ने मुझे अवसर दिया है ,स्वयं से मिलने और मनन करने का।मुझे अकेले रहने में कोई भय नहीं ।परिस्थितियों पर तो किसी का बस नहीं, हाँ यदि कोई समस्या हुई तो तुम्हें मोबाइल कर दूँगी ।”

माँ के सकारात्मक विचारों से आश्वस्त हों तीनों बेटियाँ लौट गईं अपने अपने घरौंदों पर और छोड़ गई पीछे एक सूनापन ।किंतु उसे इस सूनेपन से लड़ना होगा ,इसके अहसास से बाहर निकलना होगा ।दूसरों की चिंता में गुम हुई सुवासिनी ने स्वयं को तलाशना होगा।बचपन में सुवासिनी को गुड़ियों से बहुत लगाव था ।जब कुछ बड़ी हुई तो उसने माँ से गुड़िया बनाना सीखा। धीरे-धीरे उसके द्वारा बनाई गईं भिन्न-भिन्न प्रदेशों की गुड़ियों से उसका कमरा भरता गया।

कालान्तर में , कुछ पढ़ाई के दबाव से और बाद में शादी के बाद उसका यह शौक़ जीवन की व्यस्तता में गुम हो गया। उसके मन आँगन से बचपन की गुड़ियें दूर हुईं पर घर आँगन में जीवंत गुड़ियों के आने से वह रिक्त स्थान भर गया था ।अब जब एक बार फिर उसके घर का आँगन रिक्त हो गया तो पुनः मन के आँगन को बचपन की गुड़ियों से भरना होगा।

 मेड रूपा की सहायता से गुड़िया बनाने का ज़रूरी सामान जुटाया गया।जीवन के इस संध्या-काल में पुनः बचपन की वह गुम हुई

गुड़ियें लौट आई थीं।जरी ,गोटा ,रंगीन धागों से सजी गुड़ियों में सुवासिनी की कला निखार ले रही थी ।दूल्हा-दुल्हन, पनघट की गुजरिया ,राधा-श्याम की ,कल्पना से सजी सुंदर गुड़ियाएँ आकार ले रही थी ।नव निर्माण की व्यस्तता में जाने वालों का ग़म हल्का पड़ गया था ।आप ख़ुश हैं तो दुनिया खुश है ।बेटियों को भी सांत्वना थी कि माँ को जीने का संबल मिल गया।

किंतु जीवन में भाग्य- चक्र पीछा नहीं छोड़ता ।सुवासिनी जब घर की सीड़ियों से उतर रही थी तो साड़ी में पैर फँसने से लड़खड़ा कर गिर पड़ी । ढलती उम्र , कूल्हे में फ़्रैक्चर आया था।बेटियाँ दौड़ी-दौड़ी दिल्ली आई।एक हफ़्ते अस्पताल में रहकर माँ घर आ गई।किसी एक बेटी को माँ के साथ रहना है ।


माँ की ममता का ऋण तो नहीं चुकाया जा सकता किंतु सेवा करके आत्म संतोष तो पाया ही जा सकता है ।

 लॉटरी की पर्चियाँ मिक्स करके चीनी मिट्टी के बाउल में डाल दी गईं ।सेंटर टेबल पर बाउल रखा है और तीनों सोफ़े पर आसन जमाये बैठी है ।जिसके नाम की पहली पर्ची निकलेगी उसे पन्द्रह दिन माँ की सेवा करनी होगी।तत्पश्चात् दूसरी और तीसरी को पन्द्रह-पन्द्रह दिन की सेवा देनी होगी।

जीवन की समस्त व्यस्तताओं से आँख मूँदकर माँ की माँ बनना होगा।पहले वह बच्चियाँ थीं और माँ उनकी संरक्षिका किंतु अब किरदार बदल गए हैं ।अब माँ एक छोटी बच्ची समान है और वह संरक्षिकाएं।

 पहली पर्ची मधु के नाम की निकली ,दूसरी तन्वी के और तीसरी मेघा के नाम की।तन्वी डाक्टर है, मधु को हिदायतें देकर वह लौट गई चेन्नई ।मेघा भी गुरुग्राम के लिए निकल ली।वह घर जो कभी शोरगुल से गुलज़ार था आज शांत है।समय के पहिये की चाल समान नहीं होती ।

 मेड रूपा रसोई और ऊपरी काम देख रही थी तो मधु माँ कीं तीमारदारी में व्यस्त थी। मधु शाम जब माँ को दबाई दे रही थी तो सुवासिनी ने मधु से कहा-“ बेटी तू , चला चली के मुसाफ़िर पर समय क्यों खपा रही है, जाकर अपनी गृहस्थी को देख।”

मधु ने हँसते हुए कहा-“ मम्मी ऐसी बातें क्यों करती हो , तुम्हें तो अभी सौ साल ज़िंदा रहना है ।”

 पन्द्रह दिन बाद तन्वी माँ की सेवा के लिए आ गई थी। माँ में सुधार होता दिख रहा था ।और तीसरे क्रम में मेघा आ गई थी ।मेघा को आये अभी तीन दिन ही हुए थे कि सुबह चार बजे माँ की अचानक तबियत बिगड़ गई ।

माँ पसीने में नहा गई थी और साँस उखड़ने लगा था।डाक्टर और ऐंबुलेंस को फ़ोन किया किंतु जब तक ऐंबुलेंस आई तब तक सब समाप्त हो गया था ।माँ बेटियों को छोड़ ,पापा से मिलने जा चुकी थीं।

 बेटियाँ ,उनके पति ,और कुछ रिश्तेदार आ गए थे ।माँ को तन्वी ने मुखाग्नि दी।जब सब कुछ निबट गया तो तन्वी और मधु के पतियों ने अपनी पत्नियों से घर लौटने को कहा ।तन्वी ने उनसे कहा कि आप लोग लौट जायें हम कुछ दिन रुक कर आयेंगे ।पति अपनी असहमति दिखाते लौट गये।

  घर उस ख़ाली पिंजड़े के समान लग रहा था जिसका पंछी उड़ गया हो।ख़ाली पिंजड़े में रह गई यादों को समेटने में तीनों बहनें कई दिनों तक व्यस्त रहीं।बहुत कुछ समेटा जा चुका था।मेड रूपा को छुट्टी दे दी गई ।रूपा द्वारा दी गई सेवा के एवज़ में उसे माँ के बर्तनों समेत बहुत कुछ दे दिया गया। आज तीनों बहनों का अंतिम दिन है इस घर में ,कल उन्हें वापस लौटना है ।

 माँ कीं यादों के अंतिम बँटवारे को तीनों बैठी हैं ।मेज़ पर माँ के ज़ेवर और माँ के द्वारा ख़ास अवसरों पर पहनी गई साड़ियाँ रखी हैं।ज़ेवरों का कोई मूल्य निर्धारण नहीं करवाया गया है , जिसको जो पसंद हो ले ले ।यहाँ धन का नहीं यादों का मूल्य हैं ।सबसे पहले छोटी ने ,फिर मधु और अंत में तन्वी ने अपनी पसंद के ज़ेवर और साड़ियाँ चुन लीं।


 निर्णय लिया गया कि घर को बेचा नहीं जायेगा ।घर पर लड़कियों का कला-केन्द्र स्कूल खोला जायेगा जिसमें गुड़िया बनाने के अतिरिक्त पेण्टिंग आदि भी सिखलाई जायेगी ।जब सब निबट गया तो तन्वी ने राहत की साँस लेते दोनों छोटी बहनों को संबोधित करते कहा -“ जानती हो कि क्यों मैंने पतियों को वापिस घर जाने दिया ।

क्योंकि पतियों को यह सब हमारी भावनात्मक बेवक़ूफ़ी लगता ।वह हमें धन कीं महत्ता समझाते।उनके दुनियादार नज़रिए से ज़ेवर और घर का बराबर बँटवारा होना चाहिये था ।किंतु अपनी माँ पर निर्णय करने का अधिकार हमारा है , किसी अन्य का नहीं ।माँ के ज़ेवर उनकी यादों के रूप में हमारे पास रहेंगे,धन के रूप में नहीं ।मकान रहेगा तो माँ की यादें और हमारा बचपन इसमें महफ़ूज़ रहेगा ।”

 उस आख़िरी शाम जब तन्वी माँ कीं साड़ी पहन कर आई तो दोनों छोटी बहनों को लगा जैसे साक्षात माँ सामने खड़ी हो।

माँ कीं साड़ी में तन्वी को देखकर पहले तो तीनों बहनें खिलखिला कर हँसी…… तत्पश्चात् आपस में चिपटकर खूब रोईं… आँसू थे की थम ही नहीं रहे थे………….।

****समाप्त**** 

लेखक – नरेश वर्मा

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