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बेसन की पकौड़ियाँ – नीरजा कृष्णा

आज वो बहुत उदास हैं। आज फिर बृहस्पतिवार है..इस वार को उनके यहाँ बेसन की पकौड़ी वाली कढ़ी अवश्य बनती है। जब अम्माँ थी तो कढ़ी का तो नियम था…वो खूब सारा बेसन लेकर फेंटने बैठती थीं और अम्माँ टोके बिना नहीं मानती थीं,”अरे बहू, इतना बेसन …इसके तो बहुत ज्यादा पकौड़े बन जाएंगे… क्या होगा…कौन खाऐगा?”

वो फेंटते फेंटते ही बोलती,”अरे अम्माँ, अभी देखना, आधे तो तलते तलते ही गायब हो जाएंगे।”

वो कृत्रिम रोष प्रकट करती,”सुन लो बहू की बातें…कौन खा जाएगा तेरी पकौड़ियां? चल शर्त लगा ले…इतने पकौड़े बेकार पड़े रहेंगे।”

वो चुप रहती पर जैसे ही सरसों के तेल मे पकौड़ों की मस्त खुशबू फैलती …..दोनों बच्चे दौड़ते आते और प्लेटों में लेकर वहीं खड़े खड़े चपाचप। फ़िर तो अम्माँ के सुपुत्र कैसे पीछे रहते। वो तो डबल पकौडों पर हाथ साफ़ कर देते…वो इठला कर अम्माँ को देखती। वो खूब खुशी से अपनी हार मान लेती थीं। आज वो नहीं हैं पर निशा जी को अच्छी तरह ज्ञात है…वो तो हारने के लिए ही शर्त लगाती थीं। पकौड़ों के लिए घर में मचती हलचल उन्हें कितनी प्रिय थी।

सोचते सोचते उनका मन भर आया। बच्चे बड़े होकर घोंसले से उड़ गए, अम्माँ भी नहीं रहीं। अब कौन शर्त लगाएगा और कौन खाएगा। रवि भी अब उतना तला भुना नहीं खाते। वो बहुत व्यथित हो गई… अचानक वो सामने  आ गए,




“ये आधे घंटे से बेसन का कटोरा लिए क्या सोच रही हो?”

वो चैतन्य होकर बोल पड़ी,”अम्माँ को याद कर रही हूँ ।शायद किसी कोने से वो निकल कर इतना बेसन घोलने पर टोक दें और शर्त लगा बैठे।”

उनका मन भी भीग गया..”चलो आज हमसे शर्त लगाओ…हम कहते हैं…आज भी तुम्हारे पकौड़े सफा़चट हो जाएंगे।”

उनके सुस्त मुखड़े पर सुकून वाली मुस्कान छा गई,”सोच लो, हार जाओगे। मैं तो बना लूंगी पर अब पकोड़े उड़ाने वाले खुद उड़ चुके हैं।”

तभी आउटहाउस में रहने वाले तीन चार बच्चे पिछले दरवाजे से झाँकने लगे थे। उन्होनें सबको इशारे से अंदर बुलाया और कढ़ाही चढ़ा दी। यहाँ पकौड़ी फूल कर गोल हो रही थी…उधर इंतजार में उन मासूमों की आँखें गोल हो रही थीं। रवि जी के चेहरे पर जीत की खुशी थी और वो  पहली बार हार कर भी बहुत खुश थी। आज पहली बार उन्हें  अम्माँ की उनसे हारने पर मिलने वाली खुशी का एहसास हो रहा था।

नीरजा कृष्णा

पटना

स्वरचित मौलिक

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