आज दस दिन बाद जब वे कमरे पर आये तो चौंक गए।कारण मंत्री रघुवीर ने बीस हजार रूपए भेजे थे।
साथ में पत्र भी था उसमें फोन नंबर भी दिया था।
फोन करते ही प्रणाम किया और बोला -सर आपने पहचाना।
अरे बेटा रघु ,तुमने पैसे क्यों भेजे?
सर यह तो आपके उपकार के बदले कुछ नहीं है।आज आपने समय पर मदद नहीं की होती तो —
“बस,यह तो मेरा कर्तव्य है। मैं शिक्षक था, तुम मजबूरी में फीस नहीं भर पा रहे थे,सो मैंने जमा करा दिया।वह भी सिर्फ दो सौ रूपए।”-यह भरे गले से बोले।
सर,उस समय आपने एक माह का वेतन जमा करा दिया।पूरे महीने परेशान रहे। उसके आगे–वह रूंधे गले से बोला था। फिर प्रणाम करके फोन रखा था।
ये दस दिन बाद दिल्ली से आये थे। औलाद थीं,पोते भी थे मगर पत्नी के मरते ही जग सूना था।
औलाद को खांसते हुए पुराने जमाने के शिक्षक नहीं जंचते थे।सो मात्र पैंसठ साल की आयु में अति वृद्ध दिखते थे।वैसे भी दिल्ली जैसे महानगर के हाई टेक सोसायटी में रहने वाले एक मात्र बालक और उसके परिवार को ये कहां जंचते।वे सब पढ़ें लिखे थे सो पत्नी के गुजरते ही मजबूरी में ले गये मगर व्यंग्य वाण से छलनी कर दिया।तब से ये अकेले रहते हैं।
न जाने कितने को पढ़ाया,कितने की मदद की, मगर संस्कार और मानवता का पाठ नहीं पढ़ा सके।
सो आज ये ऐसे आदर्श छात्र को पाकर खुशी से भर उठे और पोहा जलेबी का नाश्ता करके यह ड्राफ्ट बैंक में जमा करा दिया।थका और बीमार शरीर खाना बनाने की इजाजत नहीं दे रहा था और होटल का पचता नहीं था।सो विस्तर पर लेटते ही आंखों से सावन सी बरसात होने लगी।
#कौन कहता है कि पराये सगे नहीं होते,आप प्यार दो सगे से ज्यादा काम आते हैं।
#रचनाकार-परमा दत्त झा, भोपाल।
#रचना मौलिक, स्वरचित और अप्रकाशित है इसे मात्र यहीं प्रेषित कर रहा हूं।