“ओफ्फ हो, ये महुआ को भी आज ही बीमार होना था”
खनक आटा गूथंते गूथंते बुदबुदाई।
आटे की और ध्यान दिया तो दूध उफनते उफनते बचा और उसे तो याद भी नहीं कि कूकर कब से गैस पर चढ़ा रखा है। लगता है आलूओं का तो पानी के अंदर ही भुर्ता बन गया होगा। अब कैसे आशिमा के लिए परौंठे बनाएगी, वो छुटकू वीर तो निरा बुद्धू है मगर आशिमां को अपना पंसद का खाना न मिले तो आसमान सिर पर उठा लेती है। बार बार घड़ी भी देख रही थी, समय भी जैसे तेजी से भागा जा रहा था।
दूसरी तरफ दमयन्ती दोनों बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर रही थी। दमयनंती आशिमां की दादी और वीर की नानी थी। वैसे तो आजकल सुबह किचन का सारा काम उसकी बेटी महुआ ही देखती थी, खनक आशिमां को तैयार करती या फिर खुद ही मुशकिल से तैयार होती। बेटा शिवम्ं तो अपना सारा काम खुद ही करता। नौकरी वाली बीवी खनक से तो कुछ कहना ही बेकार था। एक बात कहो तो चार सुनने को मिलती।आज महुआ की तबियत ठीक नहीं थी तो जल्दी उठ नहीं पाई।
इसी गृह क्लेश को देखते हुए महुआ ने नौकरी नहीं की थी। महुआ इस घर की बेटी थी और वीर उसका सात साल का बेटा।महुआ के पति सर्वेश की तीन साल पहले कार एक्सीडैंट में डैथ हो गई थी। महुआ की तो दुनिया ही लुट चुकी थी।सच है कि जाने वाला तो चला जाता है, लेकिन पीछे वालों को तो जिंदगी जीनी पड़ती है।
महुआ के सास ससुर भले लोग थे, वो तो चाहते थे कि महुआ , वीर के साथ उसी घर में रहे, लेकिन महुआ चाहते हुए भी वहां नहीं रह पाई। जहां हर और सर्वेश की यादें , वहां तो वो पागल हो जाएगी। दूसरा उसकी जेठानी रेखा से उसकी कभी बनी ही नहीं थी। महुआ ने अपनी और से बहुत कोशिश की लेकिन उसका स्वभाव ही कुछ ऐसा था।
मायके में मां थीऔर भाई भाभी और वीर से दो साल बड़ी आशिमा। पिताजी नहीं थे। खनक से उसकी बहुत दोस्ती थी, जब भी वो जाती थी, उसका पूरा स्वागत सत्कार होता था। सर्वेश के चले जाने के बाद जब उन सब ने साथ चलने के लिए कहा तो वो चली आई। उसे लगा कि मायके में वो जिंदगी के बाकी दिन सर्वेश की यादों के साथ काट लेगी। शादी से पहले वो अपने शहर में स्कूल में टीचर थी, जबकि शादी के बाद उसने नौकरी नहीं की। घर गृहस्थी और फिर वीर के पालन पोषण मे व्यस्त हो गई।
उस समय उसके ससुर की अच्छी पेंशन थी और सर्वेश और उसका बड़ा भाई बढ़िया सरकारी नौकरी पर थे, अपना घर का मकान , किसी चीज की कमी नहीं थी तो महुआ ने भी नौकरी का विचार त्याग दिया।
लेकिन किस्मत का लिखा कौन टाल सकता सोचते कुछ और है और होता कुछ और है, सब प्रभु की माया। महुआ तो अपने घर आई थी लेकिन वो यह भूल गई कि हमारे देश में शादी के बाद लड़कियां मायके में मेहमान हो जाती है।
वो भाभी जो पहले उसके आने पर पलक पावड़े बिछाती थी अब तो वो उससे सीधे मुंह बात भी नहीं करती थी। उसे सर्वेश के फंडस के पैसे और फैमिली पेंशन लग गई थी।उसके ससुर ने तो कुछ भी लेने से इन्कार कर दिया था, तो एफ. डी. करवा दी गई थी ताकि वीर की पढ़ाई में काम आ सके। उसने भाई को हर महीने पैसे देने की कोशिश की लेकिन उसने भी साफ मना कर दिया।
लेकिन महुआ बहाने से घर पर काफी खर्च करती रहती, उसे तो अपनेपन और साथ की चाह थी। शादी से पहले वाला कमरा अभी भी खाली पड़ा रहता था, उसी में वो वीर के साथ रह रही थी। लेकिन खनक उसके वहां रहने से नाखुश थी।घर का काम तो सारा महुआ के या काम वाली के हवाले था। माताजी तो ज्यादा कुछ कर नहीं पाती थी।
पहले तो महुआ ने वापिस उसी स्कूल में नौकरी करने की सोची लोकिन खनक के व्यवहार को देखते हुए उसने नौकरी का विचार त्याग दिया। खनक उसे उल्टा सीधा सुनाने का एक भी मौका नहीं छोड़ती थी। महुआ का कई बार मन हुआ कि अलग रहना शुरू कर दे, लेकिन हिम्मत न कर सकी।
खनक फिर से मां बनने वाली थी, बेटे सोम का जन्म हुआ तो घर में खुशियां छा गई। पूरा समय महुआ ने खनक की जी जान से सेवा की थी। सोम के सवा महीने का होने पर घर में हवन पूजा और भोज का आयोजन किया गया तो महुआ के ससुराल भी निमत्रंण भेजा गया।
महुआ के ससुर ही आए, उसकी सास की तबियत ठीक नहीं थी।बच्चे को गोद में लेकर तैयार होकर जब खनक और उसका पति शिवंम् हवन पर बैठने लगे तो महुआ भी आ गई। “महुआ,प्लीज इस शुभ मौके पर तुम आहूति मत डालना, ये बदशगुनी होगी”।
यह सुनते ही महुआ पर जैसे गाज गिरी। चुपचाप वो वहां से चली गई। माहौल बिगड़ने के डर से मां और भाई भी कुछ न बोले। सोचा कि बाद में बात संभाल लेगें। महुआ के ससुर भी वहीं बैठे थे। उन्हें तो बुरा लगना ही था, मगर वो क्या करते। महुआ फिर बाहर नहीं आई। सब मेहमानों के चले जाने के बाद वो अपना सामान और वीर के साथ बाहर आई और ससुर से बोली” पापा जी, मुझे अपने घर ले चलिए, बहुत हो गया आखिर ‘ तिरस्कार कब तक’ । बस अब और नहीं, और हां भाई मेरे पिता की जायदाद में मेरा हिस्सा भी चाहिए मुझे, कहीं ये न हो कि मुझे कानूनी कार्यवाही करनी पड़े।
यह सुनकर खनक और शिवम् कुछ कहते, इससे पहले ही महुआ ससुर और वीर के साथ गाड़ी में बैठ चुकी थी।
विमला गुगलानी
चंडीगढ़
वाक्य- तिरस्कार कब तक