बंधन – ज्योति अप्रतिम

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कहाँ जा रहे हो बेटा ? भोजन का समय हो गया है। माँ ने ऋतिक से पूछा ।

कहीं नहीं ! अभी आता हूँ ।आधे घण्टे में पहुँच जाऊँगा। ऋतिक ने लापरवाही से दरवाजा खोल कर जाते हुए कहा।

माँ ने फिर टोका ,बेटा ,पापा आने वाले हैं और बुआजी भी कितने दिनों बाद आई हैं।उनके पास बैठो ,बात करो।

ऋतिक के चेहरे पर गुस्सा साफ़ नज़र आ रहा था। माँ …..मुझे यह हर वक्त की रोक टोक पसन्द नहीं है।कहाँ जा रहे हो ?क्यों जा रहे हो ? कैसे जा रहे हो ? ऋतिक ने गुस्से से कहा।

माँ और बुआजी आश्चर्य से उसकी ओर देख रहीं थीं लेकिन उसकी बड़-बड़ जारी थी।

माँ  ने कहा ,बेटा ,रोक टोक  कहाँ हुई ? थोड़ी देर बुआजी के पास बैठो और खाना खा लो।फिर चले जाना,जहाँ जाना।यही कहा है न !

मैं खाना देर से खा लूँगा।हर वक्त का बंधन मुझे पसन्द नहीं है।

बुआजी बहुत देर से सुन रहीं थीं। उन्होंने एक झाड़ू की तरफ इशारा करते हुए कहा ,अरे वो  झाड़ू वहाँ बाहर क्यों रखी है?

ऋतिक की माँ ने कहा ,दीदी वह टूट गई है।

बुआजी बोलीं ,मुझे दिखाओ !

झाड़ू को देख के बोलीं , ओह ! इसका तो बंधन टूट गया है।झाड़ू तो जब तक कचरा साफ़  करती है जब तक बंधन में रहती है।इसके बाद तो यह खुद ही कचरा हो जाती

है ।कहते हुए बुआजी ने  उपेक्षा से  झाड़ू बाहर रख दी

समझदार के लिए इशारा काफ़ी था।

ज्योति अप्रतिम

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