आज फिर सुबह सुबह सुखबसिया कांख में कुछ दबाकर दरवाजे पर आई…
काकी ने मजाक किया कि,, क्या सुखबसिया!! कांख में क्या दबाई हो जरा मुझे भी तो दिखा..
सुखबसिया शरमाते हुए बोली- हटो न काकी तुम तो हमेशा मजाक हीं करती रहती हो..
ये आंवला तेल है जो मैं दुकान से ले कर आई हूं अभी अभी..
काकी भी पूरे मजाक के मूड में थीं बोली कि- ओहो.. लग रहा है तुम्हारे दूल्हे राजा आएं हैं..
सुखबसिया अपने पीले दांतों से अजीब तरीके से हंस पड़ी…
और लजाते हुए बोली कि हां काकी आएं हैं जरा तरकारी दे दो…
सुखबसिया हमारे घर तरकारी मांगने तभी आती थी जब उसके घर कोई मेहमान आता या उसका पति… और
उसके चिड़िया के घोंसले सरीखे बालों को आंवले तेल का सानिध्य भी तभी प्राप्त होता जब सुखबसिया का पति आता.. बाकी दिनों में तो कभी सुलझते भी नहीं थे।
हमने जबसे होश संभाला उसे उसी रूप में देखा है..
घर में उसकी कहानियां बहुत सुन रखी है..
जो कुछ इस प्रकार है..
छह साल की सुखबसिया के नीचे तीन भाई बहन और हैं..
उस नन्ही सी जान की पतली और नाजुक कमर की टेढ़ी हड्डी पर हर समय कोई ना कोई भाई या बहन सवार हीं रहते थे..
बड़ी बहन समय से पूर्व हीं बड़ी हो जाती है..
बेचारी लड़की स्वयं खेलने की अवस्था में भाई बहन संभालने लगी थी..
थोड़ी और बड़ी हुई तो मां के व्यस्त होने पर भाई बहनों का मैला तक साफ करना पड़ता..
उस पर भी ये कि इस लड़की को तो कुछ भी करने नहीं आता..
जाने ससुराल में कैसे गुजर होगा??
कोई ग्यारह या बारह की उम्र में सुखबसिया ब्याह दी गई..
ससुराल वालों ने कब बहू को कम उम्र और नादान समझा है भला…
दो चार साल बीते और सुखबसिया जब मां नहीं बन पाई तो ससुराल में तरह-तरह के ताने सुनने को मिलने लगें..
जो लड़की रजस्वला होने से पूर्व हीं ब्याह दी गई हो उसे मां बनने के लिए समय भी तो चाहिए होता है,,ये बात ससुराल वालों ने कभी नहीं समझा…
हृदय में अथाह ममता का सागर भरी हुई स्त्री के सर पर बांझ की पट्टी लगाकर ससुराल वालों ने उसे मैके भेज दिया…
ससुराल से परित्यक्ता स्त्री माता पिता समेत मायके के हर सदस्य के लिए एक बिना पगार की नौकर से ज्यादा कुछ नहीं होती।
सुबह चूल्हे की राख निकालने उसे लीपने , मवेशियों का चारा लाने, खिलाने उनका मैला साफ करने से लेकर घर का गेहूं पिसवाने तक का सारा काम उस मासुम के उपर आन पड़ा..
उस पर बार बार यहीं सुनने को मिलता कि ये किसी काम की नहीं है.. इतनी हीं बढ़िया होती तो
ससुराल में नहीं रह रही होती..
पति के द्वारा त्याज्य स्त्री के लिए
अपनी मां भी शत्रुवत व्यवहार करने लग जाती है..
सुखबसिया का पति शुरू शुरू में अपने घर वालों से छुपते छुपाते कभी कभार मिलने आ जाया करता था..
परंतु सुना है वंश बेल बढ़ाने की खातिर पुनर्विवाह करने वाला है,,अब तो सुखबसिया के बाल शायद कभी नहीं सुलझेंगे..
जिसकी जिंदगी इतनी उलझनों से भरी पड़ी हो उसके लिए बालों का उलझना क्या और सुलझना क्या???
बड़े घरों के लोगों ने तो काफी सुलह कराने का प्रयास किया सुखबसिया के ससुराल वालों से..
परंतु बांझ का काला टीका उसके माथे ऐसा लगा कि वो दुबारा कभी ससुराल हीं ना जा सकी..
पति ने तो दुबारा शादी कर लिया लेकिन उसके भाग्य में तो बस एक हीं पति लिखा था क्योंकि वो
एक स्त्री जो थी…
सुखबसिया के छोटे भाई बहनों
का भी घर बस गया..
अब तो उसके भाग्य में छोटी भौजाईयों की लौंडी बनना लिखा था…
दीदी ये करो दीदी वो करो…
कुछ वर्षों के बाद…
दीदी मेरे बच्चे संभालों…
सुखबसिया के माता-पिता के देहांत के बाद और पति के पुनर्विवाह के बाद उसके साथ क्या क्या हुआ…
ये बयान करना किसी भी शब्द और भाव के बस की बात नहीं है..
अब तो डाक्टर ने भी कह दिया है कि कमर की वो टेढ़ी हड्डी कभी सीधी नहीं होगी..
हद से ज्यादा भारी बोझे उठाने की वजह से नारी सुलभ अनेकों बिमारियों ने उसके देह में अपना घर बना लिया है…
जिंदगी भर अपने हृदय की समस्त ममता लुटाने वाली वो बांझ अब जिंदगी और मौत के बीच झूल रही है…
अब वो आंवले तेल की शीशी खरीदने दुकान नहीं जाती..
उसके बालों को अब इसकी जरूरत हीं नही है…
अब तो तरकारी मांगने भी आना बंद कर दिया है उसने…
शरीर का बूंद बूंद खून रिसने के कारण अब तो बस हड्डियां हीं बची है।
कमर की हड्डी ठीक से चलने ही नहीं देती।
ऐसी हीं एक सुबह वो इस दुनिया के दुखों से मुक्त होकर चली गई उस विधाता के पास अपने समस्त प्रश्नों का जवाब लेने….
पति ने आकर अंतिम संस्कार कर दिया…
पूरे गांव में चर्चा है कि बड़ी भागमानी थी सुखबसिया,, पति के जीते जी चल बसीं..
सुहागन मरना सबके नसीब में नहीं होता..
ये कैसी सुहागन थी…
वो तो बस वो सुखबसिया हीं जानती है…
कुछ जिंदगी के वास्तविक योद्धा ऐसे होते जो
चुपचाप लड़ते रहते हैं और चुपचाप हीं चले जाते हैं।
स्वरचित-
डोली पाठक
पटना बिहार