मदन एक छोटा-मोटा किसान था। उस शहर से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर उसका गांव था। उसके पास थोड़ी सी जमीन थी, उसमें खेती बाड़ी का काम करता था। इसके साथ ही उसको चार-पाँच गायें भी थी।जिसका दूध वह बेचता था। उससे भी कुछ आय हो जाती थी।
उसके दो पुत्र रविंद्र और संतोष थे। दोनों की शादी हो गई थी। छोटा पुत्र संतोष व्यवसाय करता था। रविन्द्र के एक पुत्र केतन और एक पुत्री सुधा थी। इन दोनों संतानों के जन्म के लगभग साल भर बाद ही रविंद्र की मृत्यु यात्रा करते समय बस एक्सीडेंट में हो गई थी। उसकी पत्नी रानी का घर संसार उजड़ गया था। उसके सपने चकनाचूर हो गए। उसकी उम्र भी अधिक नहीं हुई थी।
बड़े भाई की मृत्यु के महीना-भर बाद ही संतोष ने इस घर में रहते हुए अपना चौका- चूल्हा अलग कर लिया ।पूर्ण संतुष्टि के साथ आनंदमय जीवन वह अपनी पत्नी सुषमा के साथ व्यतीत करने लगा ।
ऐसी स्थिति में स्वाभाविक था कि रविंद्र के कुनबे की सारी जिम्मेवारी ससुर मदन और सास फागुनी पर आ गई। मदन ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था किंतु समझदार और नेक दिल इंसान था। उसने बिना आना-कानी किए हुए इस चुनौती को स्वीकार कर लिया। अपने परिवार की मान मर्यादा और गरिमा को ध्यान में रखते हुए।
रानी और उसके दोनों बच्चों की परवरिश वह खेतों में कठिन परिश्रम और दूध बेचकर करने लगा। रानी भी सास- ससुर के कामों में जी-जान से मदद करने लगी।
सुबह उठते ही वह गौशाला की ओर रूख करती। वहांँ बिखरे हुए गोबर को वहांँ से हटाकर गौशाला की साफ- सफाई करती, फिर गायों के सामने बने नादों में चारा – पानी डालती। उसके इस काम में उसकी सास फगुनी भी हाथ बंटाती । उसके बाद मदन दूध दूहने का काम प्रारंभ करता। कुछ लोग वहीं पर आकर सुबह-सुबह दूध ले जाते, कुछ को घर पहुंँचाता। पड़ोसी शहर के कई लोगों के यहांँ भी मदन दूध देता था।
इसी तरह की दिनचर्या उस परिवार की थी इसमें रानी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी।
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कालांतर में जब रानी के बच्चे केतन और सुधा बड़े हो गए तो स्कूल के बाद जो समय बचता उसमें वे दोनों भी घर के कामों में सहयोग करते थे। इससे रानी को बहुत सहूलियत होने लगी।
मदन के घर-गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर ठीक ही चल रही थी। मदन की उम्र ढल गई थी। फगुनी में भी बुढ़ापा के लक्षण उभर आए थे। किन्तु उस दिन दुर्भाग्यवश जब फगुनी खूंटे से एक गाय को खोलकर धूप में ले जा रही थी धोने के लिए तो गाय ने उसे उठाकर पटक दिया, जिसके कारण उसके हाथ की हड्डी टूट गई। घुटनों में दर्द तो पहले से ही रहता था। नतीजा यह निकला की इलाज के बाद भी हाथ की हड्डी अच्छी तरह से सेट नहीं हुई, जिसकी वजह से उसका एक हाथ लगभग नाकाम हो गया।
घर का सारा दायित्व रानी के सिर पर आ गया। किसी परिवार की सारी जिम्मेवारियों का जो निर्वहन करता है, स्वाभाविक है कि उसका उस परिवार में वर्चस्व कायम हो ही जाता है।
खेत का अनाज जो बटाईदार बांट कर देता था। उसमें दो हिस्सा तो लग ही जाता था नियमानुसार लेकिन दूध की आय से संतोष के परिवार को हिस्सा मिलने का प्रश्न ही नहीं था क्योंकि वह भी अपने व्यवसाय की आय से कभी एक पैसा नहीं दिया था। इसके साथ ही परिवार के किसी काम में और दूध के व्यवसाय में भी वह जरा भी सहयोग नहीं करता था। दूध के व्यवसाय में भी शहर से चारा और पौष्टिक आहार खरीद कर लाना पड़ता था गाय को खिलाने के लिए । यह काम केतन करता था या उसका दादा मदन करता था। कुछ वर्षों के बाद सुधा की शादी की समस्या भी आने वाली थी। उसकी भी चिंता थी।
एक विधवा पर इस तरह उस परिवार का सारा दारोमदार होना संतोष की पत्नी सुषमा को बर्दाश्त नहीं हो रहा था। उसके सास-ससुर उसकी ही राय के अनुसार सारे काम निपटाते थे। इस संदर्भ में वह अपने को उपेक्षित सा महसूस करने लगी थी।
शादी के कुछ ही वर्षों के बाद रानी के पति की मृत्यु हो जाने के कारण एक-दो दशक तक वह और उसके बच्चों को न तो अच्छे कपड़े, न अच्छे खाने और न अन्य सुविधाएं नसीब हुई थी। हर चीज के लिए रानी और उसकी औलाद तरसती रहती थी । आज जब उसके कठिन परिश्रम और संघर्ष के कारण उसके परिवार की स्थिति में कहीं हद तक सकारात्मक बदलाव आया तो उसने अपने और अपने बच्चों व सास- ससुर के रहन-सहन में सुधार किया।
पारंपरिक मान्यताओं को दरकिनार करते हुए अच्छी-अच्छी साड़ियाँ पहनने लगी, एक दो गहनें भी धारण करने लगी, हल्का-फुल्का श्रृंगार भी करने लगी।
यही सब सुषमा को बर्दाश्त नहीं हो रहा था। यहाँ तो जलन, ईर्ष्या और द्वेष की बातें थी कि कैसे एक विधवा स्त्री अपने पराक्रम से सारे संसाधन और सुविधाएं जुटाकर अमन – चैन की जिंदगी जी रही है। उसके देवरानी को यही अखर रहा था ।वह सोच रही थी कि उसे कैसे नीचा दिखाया जाए।
ऐसी ही स्थिति में सोची समझी नीति के तहत उसने तरह-तरह की अफवाहें फैलाना शुरू कर दी थी कि उसके कदम नाजायज रास्ते पर चल पड़े हैं कि उसके चाल- चलन ठीक नहीं है कि अमुक आदमी के साथ हंँस-हंँस कर बातें करती है कि फैशन में चूर रहती है कि अपने पति को खा गई कि वह कुलक्षणी है। मसोमात(विधवा) होकर रंग बिरंगी साड़ी पहनती है, गहने धारण करती है, श्रृंगार करती है, यह कहांँ का प्रचलन है, अब यह धरती रसातल में चली जाएगी।
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थोड़ी अच्छी साड़ी पहन कर गांव में निकलती तो लोग उस पर उंगली उठाते, तरह-तरह की भ्रांतियां वातावरण में फैल गई थी उसके बारे में। उसके घर के बाहर निकलते ही औरतों की फुसफुसाहट का दौर शुरू हो जाता जबकि उसके सास ससुर अपनी बहू रानी की प्रशंसा करने मे कभी भी नहीं थकते ।उनका विचार था कि उसके परिवार की स्थिति में जो सुधार हुआ है वह उनकी बड़ी बहू रानी के मेहनत- मशक्कत और कठोर परिश्रम के कारण ही हो पाया है।
उस दिन जब वह मोहल्ले के किसी घर में दूध पहुंँचाकर लौट रही थी तो अपने घर की चौखट पर बैठी एक महिला ने दबी जुबान में कहा, “घोर कलयुग आ गया है…” वह धीमी आवाज में फुसफुसाई लेकिन यह फुसफुसाहट उसके कानों में पहुंँच गई।
उसने विफरते हुए कहा, ” हांँ!… घोर कलयुग आ ही गया है… भगवान तुमको भी विधवा बनने का मौका दें तो समझ में आएगा कि क्या दुख होता है, ऐसे जीवन को जीने में… हम काम नहीं करें, इधर-उधर नहीं निकले काम के कारण, तो मेरे बाल बच्चों का परवरिश कौन करेगा?… तेरा भतार(पति) करेगा?… शर्म नहीं आती है। “
इतना सुनते ही उस औरत ने रानी पर गालियों की मूसलाधार बारिश कर दी।
खैर किसी तरह मोहल्ले के लोगों ने बीच बचाव करके झगड़ा शांत किया।
वास्तव में इस फसाद की जड़ में उसकी देवरानी सुषमा ही थी। जलन की आग ने उसके जमीर को जलाकर राख कर दिया था। वह बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी ।मौका मिलते ही मोहल्ले के औरतों के कानों में रानी के खिलाफ तरह-तरह की भ्रामक बातें डालती रहती थी।
जब अपने ही घर के लोग खिलाफ हो जाएं तो परायों को भी विष उगलने का मौका मिल जाता है।
उस दिन उस औरत से झगड़ा होने के बाद वह घर जाकर बिलख – बिलख कर रोने लगी उसके सास ससुर ने उसे सांत्वना दिया किंतु वह चुप नहीं हुई उसने रोते हुए कहा, ” अपने पति के स्वर्ग सिधारने के बाद मेरा भी जीवन से मोह समाप्त हो गया था।… मेरा जीवन इतना दुख और अवसाद से भर गया था कि मुझे भी जीना मुश्किल लग रहा था। उसके ऊपर से घर और घर के बाहर के लोगों की उपेक्षा, तानों और उलाहनाओं के व्यंगात्मक नुकीले तीर कलेजे में नश्तर तरह चुभते थे ।अपमानित करने वाले शब्द-बाणों के दंश को भी झेला, सहन किया, सिर्फ और सिर्फ अपने औलाद के मोह के कारण वो सब सह गई।
उसका विलाप सुनकर उसकी देवरानी अपनी कोठरी से निकलकर उसके सामने आकर अपना सिर झुकाकर यों खड़ी हो गई मानो उसको अपने किये पर पछतावा हो रहा
स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
मुकुन्द लाल
हजारीबाग(झारखंड)
15-04-2025
# वाक्य कहानी प्रतियोगिता
वाक्य:- औलाद के मोह के कारण वो सब सह गई।