अटूट है ये बंधन ‘ – विभा गुप्ता 

   मालती ने धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलने का प्रयास किया, सब कुछ उसे धुंधला दिखाई दे रहा था।दवा का असर था और कुछ कमज़ोर भी थी।स्वयं को अस्पताल के बेड पर लेटे देखकर वह चकित रह गई।वह तो मरना चाहती थी, किसने उसे बचा लिया?

  ” दादी, अब आप तैसी(कैसी) हैं?” एक तीन वर्षीय बच्ची की तोतली बोली सुनकर वह चौंक उठी, उसने सोचा,उसकी तरह ही कोई पेशेंट है।उसे पास बुलाकर पूछा, “अपना नाम नहीं बताओगी?”  ” लता नाम है मेला”

        बच्ची के मुख से ‘लता’ नाम सुनकर मालती की आँखों से सामने अतीत का वह पृष्ठ खुल गया जिसे उसने दस वर्ष पहले अपने सीने में दफ़न कर दिया था।

          विवाह के पाँच बरस बाद भी जब उसकी गोद सूनी ही रही तो मुहल्ले वालों के साथ-साथ प्यार बरसाने वाली जेठानी भी उसे बांझ का ताना देने लगी थी।यहाँ तक कि उन्होंने अपने बेटे को भी मालती के पास आने से रोक दिया।परिवार के बीच रहकर भी वह खुद को पराया महसूस करने लगी थी।अपने पति के साथ अस्पतालों कई चक्कर काटे, पचास तरह के जाँच भी करवा लिए, फिर भी डाॅक्टर कोई कमी न बता पाए।अब भगवान के द्वार पर ही वह अपनी झोली फैलाने लगी।

          एक दिन देवी माँ के मंदिर से लौटते समय उसने किसी बच्चे के रोने की आवाज सुनी।पहले तो उसने नज़रअंदाज़ किया लेकिन फिर वह स्वयं को रोक नहीं पाई।पति महेश के साथ उस तरफ़ चल पड़ी जहाँ से रोने की आवाज़ आ रही थी।वह इधर-उधर अपनी नज़रें घुमा रही थी कि कचरे के ढ़ेर में उसे एक नवजात शिशु दिखाई जो रोते-रोते अब थक चुका था।

          मालती ने लपक कर उसे अपनी गोद में उठा लिया और पति से बोली, ” जिसके लिए हम तरस रहें हैं उसे किसी ने बोझ समझकर फेंक दिया है।” महेश ने पत्नी की इच्छा उसके चेहरे पर पढ़ ली थी।बोले, ” मालती, यह तुम्हारा ही बेटा रहेगा, लेकिन कानूनी कार्रवाई के बाद।” ” क्या मतलब?” चिंतित स्वर में मालती ने पूछा तो महेश ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, ” पगली, बेटे का जन्म-प्रमाणपत्र नहीं बनवाओगी?”

      ” हाँ-हाँ, क्यों नहीं ” कहते हुए वह बच्चे को लेकर रिक्शे में बैठकर घर आ गई।रिश्तेदारों ने प्रश्नों की झड़ियाँ लगा दी थी लेकिन उन दोनों ने मौन रहकर सभी को चुप कर दिया था।



            जन्म-प्रमाणपत्र बनाने वाले जब बच्चे का नाम पूछा तो मालती बोली कि भगवान का वरदान है तो नाम भी उन्हीं का होना चाहिए और उसने बच्चे का नाम हरीश रख दिया।अब वह हरीश की माँ थी जैसे कान्हा के यशोदा।हरीश ने जब पहली बार उसे “माँ ” कहकर पुकारा तो वह खुशी से निहाल हो गई थी।उसके हरि को किसी की बुरी नज़र न लगे, इसलिए उसके बाएँ गाल पर हमेशा काला टीका लगाकर रखती थी।एक दिन जेठानी का बेटा उसके हरि के साथ खेल रहा था कि जेठानी आ धमकी और अपने बेटे को हरि से अलग करते हुए ऊँचे स्वर में बोली, ” न जात का पता न धर्म का।अपने साथ हमारा धर्म भी भ्रष्ट कर रही है महारानी।” इतना सुनना था कि मालती तमक उठी,जी में तो आया कि हरि को गाली देने वाले का मुँह तोड़ दे लेकिन अपने गुस्से पर काबू किया और शाम को अपने पति से बोली कि हरि के साथ वह अलग रहना चाहती है।महेश भी घर के हालात से वाकिफ़ तो थें ही, अगले दिन ही मालती ने अपना ससुराल छोड़ दिया और पति-हरि संग एक किराए के मकान में रहने लगी।काम से थकी वो लेटी हुई थी तो हरि अपने नन्हें-नन्हें हाथों से उसके पैर दबाने लगा।यह देखकर उसकी आँखें भर आई।सोचने लगी, खून का न सही, ममता का बंधन तो है, तभी तो मेरा श्रवण….और उसने हरि को सीने से लगा लिया।

          एक दिन मालती हरि को स्कूल से वापस ला रही थी तो उसे रास्ते में चक्कर आ गया।किसी तरह से वह घर पहुँची और पति को बताया।कहीं कुछ सीरियस तो नहीं है,यह सोचकर दोनों अस्पताल गए तो डाॅक्टर ने चैकअप करके महेश को बताया कि मालती माँ बनने वाली है।पति-पत्नी के खुशी का ठिकाना न रहा।महेश थोड़े चिंतित भी थें कि अपना बच्चा आने से कहीं मालती हरीश की तरफ़ से लापरवाह न हो जाए लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।नौ महीने बाद उसने एक बेटे को जन्म दिया।अब उसका परिवार पूरा हो गया था।

          दोंनों बच्चे साथ खेलते हुए बड़े होने लगे।हरीश बीकाॅम के फाइनल ईयर की तैयारी कर रहा था।बीकाॅम करने के बाद वह अपना एक व्यवसाय करना चाहता था।छोटे के भी दसवीं कक्षा के बाद विज्ञान विषय से बीएससी करने की इच्छा थी।सब कुछ अच्छा चलते देख महेश ने भी अपनी नौकरी से प्री-रिटायरमेंट ले ली और बच्चों के साथ समय बिताने लगे।

         हरीश छोटे को जितना स्नेह करता था,छोटे भी अपने भाई को उतना ही सम्मान देता था।मालती को याद नहीं कि कभी दोनों के बीच थोड़ी-सी भी नोंक-झोंक हुई हो।लेकिन एक दिन छोटे हरीश पर बेवजह चिल्ला पड़ा।मालती और महेश हैरान थे,हरीश को भी कुछ समझ नहीं आया।पूछने पर पहले तो वह टालता रहा, फिर मालती से तीखे स्वर में बोला कि आपने एक सड़क-उठाऊ को मेरा बड़ा भाई कैसे बना दिया।

            जिस बात से हरीश अब तक अनजान था, उस बात को आज हरीश जान गया था, मालती के लिए यह क्षण अत्यंत दुखदायी थे।उसके लाख समझाने पर भी छोटे हरीश को भाई स्वीकारने को तैयार न हुआ और रोज की तकरार ने परिवार की सुख-शांति को भंग कर दिया।मालती लाचार और बेबस नज़रों से अपनी ममता को टूटते-बिखरते देख रही थी।उसके लिए दोनों ही उसकी आँखें थी,एक को वह कैसे अलग कर दे।बच्चों के बीच चल रहे तनाव से महेश के दिल को गहरा आघात लगा।एक दिन छोटे ने अपनी माँ से दो टूक शब्दों में कह दिया कि दोनों में से एक चुन लो तो मालती का कलेजा फट गया।इस दिन की कल्पना तो उसने कभी नहीं की थी।उस रात हरीश अपनी माँ के पास बैठा रहा और अगली सुबह मालती के नाम एक नोट लिखकर घर से चला गया।लिखा था, ” मैं अकेला नहीं हूँ माँ, आप दोनों और छोटा सदैव मेरे साथ हैं।बाबा का ख्याल रखियेगा, मेरा हिस्से का प्यार भी छोटे को दीजियेगा।” पढ़कर वह फ़फक कर रो पड़ी।हरीश में उसके प्राण बसे थे।उसके बिना तो वह निष्प्राण है।बेटे के गम में महेश ने ऐसी बिस्तर पकड़ी कि फिर उठ न सके।अंत-अंत तक उनकी आँखें हरीश को खोजती रही थी।



          मालती पर किस्मत की दोहरी मार पड़ी थी,परन्तु छोटे के लिए उसने अपने को संभाला।हरीश की याद आती तो अकेले में रोकर मन हल्का कर लेती लेकिन छोटे के सामने ज़िक्र कभी नहीं करती।दो महीने के बाद हरीश ने पत्र के माध्यम अपनी कुशलता का समाचार दिया लेकिन अपना पता नहीं दिया।समय अपनी रफ़्तार से चलता रहा।छोटे ने अपनी ही एक सहकर्मी के साथ मंदिर में जाकर ब्याह रचा लिया और पत्नी को घर ले आया।मालती को तो अब सदमे सहने की आदत-सी हो गई थी,सो यह भी सह लिया।लेकिन हरीश को देखने की हूक उसे हमेशा ही लगी रहती थी।इसी दुख ने उसे भीतर से खोखला बना दिया और असाध्य बीमारी टीबी ने उसे अपनी चपेट में ले लिया।

           एक दिन उसने सुना कि बहू छोटे से कह रही थी, “तुम्हारी माँ को छूत की बीमारी है।इन्हें कहीं और….।” इससे आगे वह सुन न सकी।बेटे-बहू के हाथों बेइज्जत होकर घर से निकलने से तो अच्छा है कि भगवान उसे उठा ले और इसी इरादे से वह घर से निकली थी,फिर न जाने….।”  ” ये आपके लिए है ” लता ने उसे फूल देते हुए कहा तो वह वर्तमान में लौट आई।वह अभी भी असमंजस थी कि ये बच्ची कौन है और उससे इतनी बातें कैसे? इतने में हरीश ने आकर पूछा, ” माँ ,अब तबीयत कैसी है?” अपने जिगर के टुकड़े को सामने देखकर मालती के मृतप्राय शरीर में फिर से रक्त- संचार होने लगा।माँ-बेटे ने गले मिलकर आँसुओं से अपनी बरसों की प्यास बुझाई।

         हरीश ने मालती को बताया कि घर छोड़ने के बाद भूखा-प्यासा वह भटक रहा था कि एक कार से टकरा गया।कार का मालिक उसे अपने साथ घर ले आये, उसे काम सिखाया और इस अस्पताल का सीएमओ बना दिया।उसने पास खड़ी युवती से मालती का परिचय कराते हुए कहा कि ये प्रीती है जो आपकी बहू है और लता आपकी पोती।माँ, आप बाबा से अक्सर कहा करती थी कि अपनी पोती का नाम लता रखेंगी, मालती की लता।

       मालती एकटक हरीश को निहारती रही।हरीश और उसके बीच खून का न सही लेकिन स्नेह का तो बंधन है ही,जो ‘मालती की लता’ के रूप में अटूट हो गया था।किसी ने ठीक ही कहा है कि माँ-बेटे के बीच खून का रिश्ता हो या न हो लेकिन बंधन अटूट होता है।

             #बंधन

                  ——— विभा गुप्ता 

 

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