भीमा को आज बार बार अतीत की परछाइयां आकर घेर रही थीं और वो चाह कर भी उनसे मुक्त नहीं हो पा रहा था।
जाने वो कौन सी मनहूस घड़ी थी जब इस शहरी बाबू ने उसके जीवन में प्रवेश किया था।
और भीमा की जिंदगी को एक
दम से बदल कर रख दिया।
भीमा अतीत की यादों में खो गया।
भीमा इन सूखे पत्तों पर इतनी निश्चिंतता से मत चल यार इनके नीचे बिच्छू भी हो सकते हैं,भीमा को टोकते हुए धनु ने कहा,,
भीमा बिफर कर बोला – हां तो??
क्या होगा बिच्छू काट भी ले तो मर तो नहीं जाएंगे हम और मर भी गए तो क्या इस जिंदगी से तो मौत भली।
धनु और भीमा जुड़वां भाई थे परंतु दोनों की सोच और व्यवहार में जमीन आसमान का अंतर था।
धनु बिल्कुल सीधा साधा और भीमा एक दम तोप…
दोनों भाईयों का हर दिन का काम था बगीचे से सूखे पत्तों को जमा कर के लाना और हरे पत्तों को तोड़ कर लाना ।
दोनों भाई हमेशा साथ साथ रहा करते।
पत्ते चुनते चुनते वो अक्सर बड़ी बड़ी बाते किया करते थे खास कर भीमा..
सपने देखना तो जैसे उसका सबसे पसंदीदा काम था..
वो अक्सर कहता देख लेना एक दिन बड़ा बाबू बन कर रहूंगा.
हरे पत्तों से पत्तल बनाने का उनका पुश्तैनी काम था।
उनके पिता शादी ब्याह और मांगलिक कार्यों में पालकी ढोने का काम किया करते थे।
जहां पूरा परिवार इस काम से बेहद खुश था तो भीमा हर समय इससे उकताया रहता।
भीमा को उस दिन अत्यंत खुशी हुई जब,
एक शहरी बाबू ने भीमा के सामने मशीनों से पत्तल बनाने का प्रस्ताव रखा तो भीमा की आंखें चमक उठी।
और उसने झट से हां कर दिया।
शहरी बाबू ने आनन-फानन में मशीनें लगा दीं और भीमा को मैनेजमेंट का काम भी दे दिया।
भीमा कुछ दिन तो खुद को बड़ा बाबू समझता रहा परंतु धीरे धीरे शहरी बाबू ने भीमा पर दबाव बनाना शुरू कर दिया।
भीमा ये करो वो करो..
मशीनों की सफाई कच्चा माल लाना मजदूरों पर नजर रखना।
सारा काम उसी पर थोप दिया और अनावश्यक दबाव बनाने लगा।
भीमा का इस माहौल में घुटन सी होने लगी।
शहरी बाबू कभी समय पर पैसे देता तो कभी दो दो महीने पगार हीं नहीं देता।
आज तो हद हीं हो गयी जब शहरी बाबू ने उसी के बगीचे में लगे कारखाने से उसे निकालने की धमकी दे डाली।
गुस्से में तमतमाकर भीमा जब कारखाने से बाहर निकला तो बगीचे में हर तरफ प्लास्टिक का कचरा, चमकीले पेपर, कारखाने से निकलने वाली धूल और धुएं से पूरा बगीचा अटा पड़ा था।
भीमा को याद आने लगे वो पुराने दिन,
कहां गए वो सूखे पत्ते कहां गया वो प्यारा सा भाई जो हर समय उसकी ढाल बना रहता था, भीमा तूने एक अनजान शहरी के लिए अपने प्रिय को छोड़ दिया ।
कहां गए वो यायावर से सपने जो इन सूखे पत्तों पर लेट कर देखा करते थे।
कहां गए वो पुरखों के लगाए हुए पेड़ जो अब तक हमें पालते आएं हैं, हाय भीमा तूने क्या किया उन पालकों को भी मिटा दिया तूने।
भीमा की आत्मा रो रही थी।
कितने सुखद दिन थे जब दोनों भाई सूखे पत्ते चुनते चुनते उन्हीं पतों पर बैठ कर रोटी भाजी खाया करते थे और अपनी मर्जी के मालिक बन कर उन्हीं पत्तों पर सो जाया करते थे।
भीमा को अपने पुराने मालिक की इतनी याद आई कि वो बगीचे में बचे एकलौते पेड़ को अपनी बाहों में भींच कर रो पड़ा।
भीमा को अतीत की एक एक बातें चित्रपट की भांति आंखों के आगे आने जाने लगी।
कैसे मालिक के पोते होने की खुशी में पत्तल ले जाने पर उसे कितनी न्योछावरें मिली थीं।
मालकिन तो जान छिड़कती थीं उस पर,
शादी ब्याह में खाना पीना रहना सब मालिक के घर में हीं हुआ करता।
समय समय पर सोने चांदी के छोटे मोटे गहने भी मां को मिल जाया करते।
जो मां ने दोनों भाइयों की बहुरिया के लिए बचा रखे थे।
कितनी अच्छी थी मालकिन…
और उनके वो बेटे जो शहर से कभी कभार गांव आते तो भीमा के साथ पूरे गांव का चक्कर लगाया करते..
कभी कभी उसके साथ बगीचे के पतों पर लेट कर कितनी बातें किया करते थे।
जरा भी कभी एहसास नहीं होने दिया कि वो मालिक के बेटे हैं।
हमारे मालिक और ये शहरी बाबू दोनों की तो बराबरी का सवाल हीं नहीं है।
मालिक तो कभी हमसे भेदभाव नहीं किए, सदा कहा करते कि,ये बगीचा तुम्हारा है भीमा इसका मालिक तू है इसमें लगे पेड़ों से तू कमा और अपना घर चला,
और आज मैंने उस शहरी के कारखाने के चक्कर में पुरखों के लगाए पेड़ भी कटवा डाले।
गुस्से में भाई भी दूर चला गया।
मालिक को हीं अपना शत्रु समझ बैठा।
जिन चीजों को भीमा ने कभी पसंद नहीं किया था आज वहीं यादें उसके हृदय भेद रही थीं।
उसे याद आ रहा था मालिक का होली के दिन भांग खाकर भीमा के गालों पर अपनी मूंछें चुभोना..
भीमा उस याद के वशीभूत हो अपना गाल सहलाने लगा..
भीमा को याद आ रहा था जब मालिक को पोता हुआ था तब स्वयं दुकान पर ले जाकर मालिक ने उसे कपड़े पसंद करवाए थे।
जाने कितनी यादें थी जो उसे झिंझोड़ रही थीं।
भीमा आज जी भर कर रो लेना चाहता था मन का मैल नैनो से बह रहा था।
अतीत की परछाइयां उसे हर तरफ से घेर रही थीं वो पूरी शक्ति से उन्हें परे हटाने का प्रयास कर रहा था।
आंखों के कोरों को पोंछ कर पूरी ताकत से चीख पड़ा बस अब और नहीं….
डोली पाठक
पटना बिहार