अपने लिए जीना सीख लिया – रश्मि प्रकाश : Moral Stories in Hindi

रेलवे स्टेशन पर बैठी सुलभा जी बार बार यही सोच रही थी क्या जो कदम मैंने उठाया वो सही है…. या फिर मैं कुछ गलत कर रही हूँ… विवेक मेरा ही तो बेटा है फिर उसे ऐसे छोड़ कर कैसे जा सकती हूँ…. सुलभा जी की मनःस्थिति कुछ भी समझ पाने के लिए तैयार नहीं थी फिर भी कहीं अंतस् से एक आवाज़ आ रही थी…. आज जो भी हुआ वो सही है…एक फ़ैसला आत्मसम्मान के लिए लेना जरूरी था नहीं तो आजकल के ये बच्चे माता पिता को तो कुछ समझते ही नहीं है…ये सोचकर सुलभा जी एक दीर्घ श्वास ली और अपने मोबाइल में समय देखने लगी ट्रेन आने में अभी दस मिनट बाकी था वो पास के चाय की दुकान से चाय और पानी की बोतल लेकर आई और बैठ कर चाय पीने लगी 

अपने समय से ट्रेन पाँच मिनट की देरी से आई सुलभा जी अपना बैग लेकर अपनी सीट पर जाकर बैठ गई पाँच घंटे का सफर था उनके शहर का जहाँ वो शादी के बाद पति की मृत्यु तक बिना किसी परेशानी के रह रही थी आज दो साल बाद वो वापस अपने शहर जा रही थी ।

ट्रेन खुलते ही वो चैन की साँस ली और आँखें बंद करके सीट पर सिर टिका कर सोने का प्रयास करने लगी पर नींद कहाँ से आएगी वो तो कई रातों से सोई नहीं थी फिर भी नींद उनसे कोसों दूर थी ।

 “ माँ तुम क्यों जा रही हो…. यही रहो न हमारे पास ये भी तो तुम्हारा ही घर है ।” अचानक उन्हें बेटे विवेक की आवाज़ सुनाई दी 

वो चौंक कर आँखें खोली पर ये क्या ये तो बस मन का भ्रम था विवेक वो तो माँ को कब का भूल गया है….अब तो उसे याद रहता है तो बस पत्नी गार्गी क्या कहती है ।

सुलभा जी जितना उन यादों से दूर भागना चाह रही थी वो और उसके करीब आ रही थी…. ये दो साल उन्होंने कैसे विवेक के घर गुजारे हाँ गुज़ारा ही तो था उन्होंने…घर में रहने का सुख वो तो कभी मिल ही नहीं पाया था।

पति की मृत्यु के बाद वो कुछ समय अपने शहर में ही रह रही थी… यहाँ पर सब कुछ जाना समझा हुआ था आस पड़ोस मिलनसार और अपने से लगते थे तो उन्हें कभी किसी तरह की परेशानी ना हुई पर पति के ना होने से वो घर उन्हें काटने को दौड़ने लगा था और वो उदास रहने लगी… विवेक बीच बीच में आता रहता था एक बार जब आया तो माँ की तबीयत खराब देख वो उसे जिद्द कर अपने साथ ले गया…. गार्गी को सुलभा जी का आना फूटी आँख ना सुहाया… ससुराल जब भी जाती कुछ दिनों के लिए तो अपनी मर्यादा और सास ससुर को उनकी पसंद का खाना बना कर खिलाना ….उनपर अच्छा असर डाल रखी थी पर जब सुलभा जी यहाँ आई तो गार्गी को ऐसा लग रहा था वो अपने ही घर में कैद हो गई हो … जबकि सुलभा जी उसे ना तो किसी बात के लिए रोकती ना टोकती थी वो तो पूरी कोशिश करती थी घर के काम में बहू की मदद कर दिया करें दो साल का पोता था उसको भी वो अच्छे से सँभाल लेती और शाम को सोसाइटी के पार्क में घुमाने भी ले जाती थी बहुत बार तो बहू सोई रहती तो सुबह के समय बेटे के टिफ़िन के लिए भी तैयारी कर देती ताकि बहू उठे तो उसे दिक़्क़त न हो ।

किसी तरह सुलभा जी अपने आपको उन सबके साथ घुलाने मिलाने की कोशिश करती रहती पर देख रही थी वो दोनों जब भी बाज़ार जाना हो कहीं घुमने जाना हो उनको नहीं पूछते.. कभी-कभी उन्हें भी घर में उबन हो जाती तो मन करता थोड़ा बाहर घुम आए पर जैसे ही मुँह खोलती,” बेटा यहाँ आये इतने दिन हो गए कभी मुझे भी बाज़ार ले चलो देखूँ तो सही यहाँ की बाज़ार कैसा है?”

जवाब में गार्गी बोल उठती,” आप कहाँ चल पाएँगी माँ जी बहुत चलना पड़ता है फिर किशु को लेकर हम कितना चल पाएंगे आप घर पर रहिए किशु की देखभाल कीजिए।”

विवेक बीबी के आगे कभी कुछ कह नहीं पाता था इसलिए सुलभा जी ने फिर कहना ही बंद कर दिया ।वहाँ रहते शिवरात्रि आई तो वो विवेक से बोली ,”सुना है यहाँ बहुत धूमधाम से पूजा होती है शिव का बड़ा सा मंदिर भी है मुझे मंदिर तो ले चल बेटा ।”

“ माँ मुझे मंदिर जाना पसंद नहीं इतनी भीड़ होती है कि आप दर्शन भी नहीं कर पाओगी ।” विवेक ऑफ़िस जाने के लिए जूते पहन कर तैयार होते हुए बोला 

सुलभा जी फिर अपना सा मुँह लेकर रह गई

रसोई में बस वही बनता जो गार्गी चाहती सुलभा जी को कभी कभी कढ़ी चावल खाने का मन करता तो वो कह भी नहीं पाती क्योंकि उन्हें इतना समझ आ गया था गार्गी के आगे कुछ कहना बेकार है ।

होली आने वाली थी इसलिए सुलभा जी ने गार्गी से कहा,” बहू हम लोग हर बार होली में गुझिया और नमकपारे बनाते है तुम्हें तो याद ही होगा जब तुम होली में घर  आती थी सब देखती ही थी….लाओ मैं बना देती हूँ।”

“ ये सब तामझाम ना माँ जी  उधर ही कीजिएगा… यहाँ कोई नहीं खाएगा..  और जब कोई खाएगा नहीं तो किसके लिए बनाना !” सपाट सा जवाब दे दिया गार्गी ने 

सुलभा जी ये भी ना बोल सकी कि तुमलोग उधर पूरे दिन वही ले लेकर खाते रहते थे और कैसे बोलते थे कितने टेस्टी बने है उसके बाद आते वक्त डब्बा भर कर लाते भी थे पर यहाँ बनाने की बात पर गार्गी ने कैसे कह दिया कोई नही खाएगा 

होली वाले दिन सुलभा जी जल्दी उठ गई और घर की थोड़ी सफ़ाई कर के होली पूजा के लिए आटा गुड़ के पुऐ बनाने के लिए रसोई में सामान खोजने लगी 

सामान खोज कर वो पुऐ बनाने की तैयारी करने लगी इतने में गार्गी उठ कर आ गई और सुलभा जी को ये सब करते देख जोर से बोल पड़ी,” ये सब आप क्या कर रही हैं माँ जी…और कढ़ाई में इतना देशी घी डालकर बरबाद करने का इरादा है क्या?”

“ बहू तुम भूल गई क्या… होली के दिन घर में प्रसाद का पुआ बनता है जो भगवान को चढ़ाते है जो नियम हमारे घर में पहले से चलता आ रहा है वो तो करना ही होगा अब मैं यहाँ हूँ तो यही कर रही हूँ।” सुलभा जी घी में पूए का  घोल  डालते हुए बोली 

गार्गी को ये सब सहज नहीं लग रहा था उसे ऐसे सुलभा जी का खुद से सब करना बिना उससे पूछे हज़म नहीं हो रहा था वो सीधे कमरे में गई और विवेक से कहने लगी,” विवेक माँ को समझाओ हम कोई गाँव घर में नहीं रहते हैं…जहाँ उन्हें जरूरत की सब चीजें आसानी से मिल जाती हैं …. पहले हम जब भी घर जाते थे अनाज घी तेल सब लेकर आते थे अब तो माँ यहीं रहने लगी हैं घर जाना बंद ही हो गया है ऐसे में हमें सब कुछ खरीद कर करना पड़ता है..इनका क्या है…इनको तो बस उड़ाना आता है।” 

सब सुनकर विवेक ने कहा,” क्या यार तुम भी…हमारे यहाँ जो होता है वो नियम तो करने ही होंगे बेकार में बवाल मत करो।” 

गार्गी विवेक की बात सुन ग़ुस्से से पैर पटकते हुए वहाँ से चली गयी।

सुलभा जी बाहर सब सुन रही थी उन्हें गार्गी का व्यवहार अच्छा नहीं लग रहा था बेमन से पुए बना कर पूजा करने के बाद अपने कमरे में जाकर बैठ गई 

सुलभा जी महसूस कर रही थी घर का माहौल खराब होता जा रहा है गार्गी अब सुलभा जी से बात ना के बराबर करने लगी थी….

कुछ समय गुजरा ही था कि पता चला गार्गी फिर से माँ बनने वाली है… ये खबर सुलभा जी से पहले गार्गी अपनी माँ को बता रही थी 

सुलभा जी के कानों में जब ये बात पहुँची तो वो खुशी से फूली न समाई और जल्दी से जाकर गार्गी को आशीर्वाद देते हुए बोली,” इतनी बड़ी ख़ुशख़बरी है और मुझे खबर भी नहीं हुई ।”

गार्गी आश्चर्यचकित हो फोन रख कर सुलभा जी से बोली,” ये क्या है माँ आप मेरी बातें सुन रही थी?” 

“अरे नहीं बहू… मैं तो किशु के साथ खेल रही थी वो भाग कर इधर आया तो बस तुम्हारी बातें कानों में पड़ी मैं क्यों तुम्हारी बातें सुनने लगी ।”

“ बस बस जब से आप यहाँ आई हैं ऐसा लगता है हमारी प्राइवेसी ही ख़त्म हो गई है…. हर समय आप इधर उधर ताकती झांकती रहती हैं बेकार ही विवेक आपको यहाँ ले आया अच्छा था आप घर पर ही थी कम से कम जब हम आते थे तो ढेर सारा सामान लेकर आते थे अब तो सब खरीद कर लाना पड़ता है आप तो एक ढेला तक नहीं देती है।”

“बहू जब तक तुम्हारे ससुर जी थे मैं कभी तुम्हारे मुँह से ऐसी बातें नहीं सुनी…हमारे पास जो कुछ भी है सब तुम लोगों का ही है… इसलिए जो भी अनाज तेल घी आता था वो सब मैं तुम्हें ही दे देती थी हमारा खर्चा भी ज़्यादा नहीं था तुम्हें पैसे भी देती रहती थी… और रही पेंशन की बात तुम्हें भी पता है वो ज़्यादा नहीं मिलता है तो मैं वो बचाकर रखती हूँ ताकि कभी जरूरत पड़े तो आपातकाल में काम आ जाए… वैसे तुम जो ये सब कह रही हो क्या विवेक भी तुमसे यही सब कहता है?” सुलभा जी भारी मन से बोली

“ और नहीं तो क्या… वो भी आपके आ जाने के बाद हमेशा बढ़े खर्चे को लेकर रोना रोते रहते हैं.. पिछले सप्ताह ही कह रहे थे थोड़ा हिसाब से खर्च करो…आपका क्या है माँ जी आपको अपना अलग साबुन तेल चाहिए होता है ।” गार्गी रौ में बोलती गई 

ये सब सुन कर सुलभा जी के दिल को ठेस पहुँची और उन्हें रोना आ गया वो अपना सा मुँह लेकर बाथरूम में चली गई 

दरवाज़ा खोल कर जैसे ही बाहर निकलने को हुई चप्पल स्लिप कर गया और वो गिर पड़ी.. सिर पर गुम्बद निकल आया और चप्पल भी टूट गई 

गार्गी ने सुलभा जी का गिरना पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया 

शाम को जब विवेक घर आया तो सुलभा जी ने कहा,” बेटा कल मेरे लिए एक चप्पल ला देना आज गिर गई थी तो टूट गई और देखो सिर पर गुम्बद भी निकल आया ।”

“ अब आपको नई चप्पल चाहिए घर में रहकर भी आपसे ठीक से चला नहीं जाता… बैठे बिठाए खर्चे बढ़ते जा रहे हैं… अच्छा होता आप गाँव में ही रहती… कम से कम हमारे उपर बेफिजुल  के खर्चे तो नहीं आते।” 

ये सब सुनकर सुलभा जी का कलेजा छलनी हो गया… कैसे उन्होंने अपने इकलौते बेटे को पढ़ाने के लिए कटौतियाँ की थीं कितने समझौते किए थे कि उसे अच्छी शिक्षा देकर उसे तकलीफ़ों से दूर रखें और आज वही सब कुछ पाकर माँ को इतना कुछ बोल गया ।

उस रात उन्होंने खाना नहीं खाया उनके दिमाग में बस यही चल रहा था अब यहाँ और नहीं रहना….माँ हूँ उसकी जब उसको ही कद्र नहीं तो फिर किसके लिए यहाँ रहना उन्होंने सोच लिया कल सुबह विवेक से बात करेगी 

दूसरी सुबह 

“ विवेक मैं वापस घर जा रही हूँ…तेरे पास रहकर तेरे उपर और बोझ नहीं बन सकती।”स्पष्ट शब्दों में सुलभा जी ने कहा 

“ माँ तुम्हें पता तो चल गया है गार्गी माँ बनने वाली है….ऐसे में आप हमें छोड़कर जाने की बात कर रही हैं आपको नहीं लगता गार्गी को आराम देना चाहिए और आपको घर के काम करने चाहिए…कैसी माँ है आप?” विवेक ने तीखे लहजे में कहा 

“ बेटा माँ के जितने फ़र्ज़ होते हैं वो सब मैंने बखूबी निभाए और पूरी कोशिश की तुम दोनों के साथ यहाँ गुज़ारा कर सकूँ पर ये नहीं पता था मेरे आने से इतनी आफत आ जाएगी…माँ समझ कर बात करते तो ज़रूर रूक जाती पर तुम तो मुझे काम वाली समझ रहे हो…. मेरे अंदर अभी भी आत्मसम्मान बाकी है बेटा… जो चार पैसे आते हैं उसमें खुशी खुशी अपने घर में रह लूँगी पर तुम्हारे पास रहकर हर दिन अपमानित नहीं होऊँगी ।” सुलभा जी ने कहा 

“हाँ हाँ जाओ ना देखता हूँ कैसे अकेली रहती हो… कैसे जाने की व्यवस्था करती हो।” विवेक के बोल सुलभा जी को और चोटिल कर गए

“ वो तो नहीं पता पर तुम्हारे पास रहकर घुट घुटकर मरने से अच्छा है चार दिन चैन से जाकर मरूँ।” कहकर सुलभा जी अपना एक बैग उठाई जो कपड़े साथ लाई थी वो उसमें भरी और घर से बाहर निकल कर आटो कर के स्टेशन आ गई थी ना गार्गी ने उन्हें रोका ना ही विवेक ने हाँ पोता ज़रूर दादी के लिए रो रहा था ।

अपने घर आकर सुलभा जी ने फिर से अपनी ज़िंदगी नए सिरे से जीने की सोचने लगी… पति के पेंशन से गुज़ारा हो तो जाता पर अब अकेले रहकर बोरियत महसूस करने से अच्छा था कि कुछ काम ही कर लिया जाए…उन्हें खाना बनाने का बहुत शौक़ था वो घर पर ही कुकिंग क्लास लेने की सोचने लगी और अपने आसपास की बच्चियों को इसके लिए प्रेरित किया…और सबको शुरू में निःशुल्क सिखाना तय किया… बाद में बच्चों के माता-पिता ने अपनी क्षमतानुसार खुद ही सुलभा जी को पैसे देने लगे… सुलभा जी में अब आत्मविश्वास भरने लगा और लोग उन्हें पहचानने लगे…

विवेक एक बार आया था मुँह लटकाए… माँ को ले जाने..  पर सुलभा जी इन दो सालों में समझ चुकी थी… पति के ना रहने से वो वैसे ही दुखी रह रही थी अब और दुख देखकर नहीं मरना…उन्होंने बेटे को मना करते हुए कहा,” एक माँ हमेशा कमजोर रहती है पर जब माँ ये बात समझ जाती है कि जिस बच्चे की ख़ातिर वो सब बरदाश्त कर भी ले पर ..जब वही कद्र ना करे तो माँ कभी कभी अपने आत्मसम्मान के लिए निष्ठुर हो जाती है तुम जाओ अपनी ज़िंदगी में खुश रहो मैं यहाँ बहुत खुश हूँ।”

विवेक माँ की बात सुनकर वापस चला गया अब सुलभा जी ने उससे कह दिया था यहाँ आना हो आओ नहीं आना हो मत आओ… मेरे पास बहुत बच्चे है जो मुझे मान देते है सम्मान देते है ।

कई बार लोग सुधरते नहीं इसलिए उन्हें सुधारने की कोशिश में वक्त जाया करने से अच्छा है खुद  आगे बढ़ कर जीना सीख लें मेरी रचना पढ़कर अपने विचार अवश्य व्यक्त करें…

धन्यवाद 

रश्मि प्रकाश 

#एक फ़ैसला आत्मसम्मान के लिए

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!