अनमेल शादी – मुकुन्द लाल

 जब शाम में पंकज काॅलेज से डेरा आया और रात का खाना तैयार करने के लिए ज्योंही किचन में जाने लगा, त्यों ही झट से रूपा ने उसकी बांँह पकड़ ली यह कहते हुए, ” आराम कीजिए, मैं खाना बना लूंँगी…” 

  ” नहीं!” 

  “तकलीफ न करो!… मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण दिक्कतें उठाओ।” 

  “मेरी कसम!… हटिये भी…” 

  ” चली जाओ यहांँ से” पंकज ने चीखकर कहा। 

  रूपा चुपचाप भीगी बिल्ली की तरह वहाँ से खिसककर कमरे में चली गई। 

     पंकज के परिवार की आर्थिक पृष्ठभूमि कमजोर थी। उसके पिताजी एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षक थे। वेतन के सारे रुपये घर-खर्च में ही समाप्त हो जाते थे। पंकज ट्यूशन पढ़ाकर कुछ अतिरिक्त आमदनी कर लेता था, जिसके बल पर ही वह एम. ए. करने में सफल हुआ था। 

  कुछ दिनों के बाद शहर के नए काॅलेज में उसकी नियुक्ति लेक्चरर के पद पर हो गई। इनके पढ़ाने की शैली बहुत ही रोचक और सरल होती थी, जिसके कारण छात्र-गण इनको बहुत चाहते थे। इस तरह चन्द दिनों में ही वे काॅलेज में छा गये। 

  जिस शहर के काॅलेज में वे काम करते थे, वहाँ एक नामी-गिरामी सेठ लाला वृजनाथ थे। बाजार में उनकी तूती बोलती थी। इसका कारण उनका सिर्फ अमीर होना नहीं था बल्कि वे सच्चे समाजसेवी भी थे। उनका विचार प्रगतिशील था। यही कारण था कि वे जब अपनी बेटी रूपा का नामांकन करवाने के लिए रूपा के साथ काॅलेज आये तो वे प्रो. पंकज से मिलकर वे बहुत प्रभावित हुए। पहली मुलाकात में ही लाला वृजनाथ ने हीरे को परख लिया था। फिर क्या था! लगे हाथ उन्होंने एक दिन उनको घर पर आने के लिए आमंत्रित कर दिया था। इस तरह दोनों की घनिष्ठता बढ़ने लगी। 

  रूपा नाम के मोताबिक रूपवती न थी फिर भी उसको कुरूप भी नहीं कहा जा सकता था। उसकी चंचलता, बोल-चाल के ढंग सुंदर थे। उस पर जवानी के रंग ने कुछ अजीब ही अदा बिखेर दी थी। 

  दोनों की घनिष्ठता बढ़ती गई और फिर न जाने क्या हुआ कि वे दोनों एक दिन शादी के सूत्र में बंध गये। 

  पंकज ने अपनी परिस्थिति और रूपा की स्थिति का तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया। क्या किया जाए जवानी में भिन्न लिंगी संबंध अन्धा होता ही है। जिसका असर पंकज के आर्थिक बजट पर पड़ा। अमीर घराने में पली बढ़ी रूपा भला किफायतसारी क्या जाने, उसे सौंदर्य प्रशाधन होना ही चाहिए, अच्छी फैशनेबल साड़ियाँ मिलनी ही चाहिए, सैर-सपाटा करना ही चाहिए, रूपा की फिजूलखर्ची पंकज के लिए चिन्ता का विषय बन गई थी। पंकज रूपा को कभी-कभी समझाता, ” इस तरह का रवैया रहा तो कैसे काम चलेगा?” 

  ” तो इसमें मैं क्या करूंँ?” 

  ” करने के लिए कुछ नहीं कहता हूँ, थोड़ा किफायत से चलो।” 



  ” किफायत!… किफायत!… लगता है वेतन के सारे रुपये सिर्फ मेरे ही पीछे खर्च कर देते हो” उसने चीखते हुए कहा। 

  पंकज संयमित होकर बोला,” तुम भी अजीब हो बाल की खाल खींचना खूब जानती हो… मैं कहांँ कह रहा हूँ कि रुपये तेरे ही पीछे खर्च होते हैं? “

 ” तो आखिर क्या कहना चाहते हो? “

 ” बातें साधारण सी है हमलोगों को अभी सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहिए। उतनी आमदनी अभी नहीं है जो अन्धाधुन्ध व्यर्थ खर्च किया जाए। “

 ” हे भगवान!… आज तुम्हें क्या हो गया है? क्या मैं गहने बनवाने के लिए कह रही हूंँ? ” 

  ” ओहो!… मेरी बातें क्यों नहीं समझती हो? आने वाले मेहमान के लिए कुछ बचत भी तो करनी है। “

  बातें कुछ ऐसी थी कि रूपा शर्म से गड़ गई। उसके चेहरे पर सुर्खी छा गई। उसने धीमे स्वर में मुस्कुराते हुए कहा,” मैं कहाँ कह रही हूंँ कि बचत न करो”

” बचत आखिर कैसे होगी?… हमलोगों को सोचना चाहिए। “

  रूपा फिर गर्म हो गई उसने झल्लाकर हाथ नचाते हुए कहा,” हांँ ठीक है, कहो तो खाना बंद कर दूंँ, कपड़े भी त्याग दूंँ…” 

  ” रूपा!…।” पंकज चीखा, उसने आगे तल्ख आवाज में कहा,” ऐसा बोलना तुमको शोभा देता है। “

  वह रोने लगी, रोते-रोते वह बड़बड़ा रही थी, 

” हाय!… मेरी किस्मत फूट गई… कैसे घर में…।” 



  पंकज को ये बातें असहनीय मालूम पड़ रही थी। फिर भी वह समझदार था। इस लिए कमरे में शान्त होकर बैठ गया। वह सोचा करता था कि रूपा में समय के साथ सुधार आ जाएगा। यही सोचकर आपस की गर्मा-गर्मी को  विशेष तूल नहीं देता था। अपितु शान्त हो जाता। स्वयं अपनी पत्नी की झिड़कियांँ सह लेता या यों कहिए कि जिस परिवेश में वह पली बढ़ी थी, उसका असर अभी भी खत्म नहीं हुआ था। उसके मायके में रसोई बनाने से लेकर छोटे-मोटे काम के लिए नौकर-चाकर थे उसकी तुलना में यहांँ कुछ भी नहीं था। शुरू में जब रूपा यहाँ आयी थी, उस समय प्यार और शादी की गुलाबी मादकता में डूबी हुई थी। लेकिन कुछ माह के बाद ज्योहीं घर-गृहस्थी के धरातल पर पैर पड़ा त्योंही उसकी रंगीनियाँ और दिल की मधुर गुदगुदी परिस्थिति के एक  हल्के थपेड़े में ही शान्त पड गई। उसके सामने अब समस्या ही समस्या नजर आती। उसके सामने एक जटिल प्रश्न पहाड़ की तरह अडिग मालूम पड़ता था कि क्या मेरा जीवन भविष्य में इसी तरह बीतेगा। 

  रूपा छोटी-छोटी बातों पर झुंझला उठती और अपनी किस्मत को कोसती। 

  उस दिन पंकज को दस बजे काॅलेज जाना था। प्रतिदिन की भांति वह किचन में पहुंँचा लेकिन खाना तैयार नहीं था। उसने गुस्से में कहा, 

” अभी तक भोजन तैयार नहीं हुआ है, क्या कर रही थी सुबह से?” 

  वहीं पर कड़ाही में सब्जी चलाती रूपा ने कहा, ” और जो मैं कहूँ कि मेरे आगे पीछे महरी ठीक कर दिये हो?” 



  पंकज ने व्यंग्यात्मक स्वर में कहा, ” मेरी तो इच्छा है कि तुम आराम से बैठकर गीत गाओ और डेरे का सारा काम नौकर ही करे। लेकिन यह भी देखो कि आमदनी कितनी है… अमीर घराने की हो न भला महरी के बिना…” 

  इतना कहना था कि रूपा आग-बबूला हो गई। वह चीख पड़ी,” बिना महरी के मैं काम नहीं संभाल पाती हूँ तो मुझसे शादी क्यों की पहले अपनी औकात… “

 ” रूपा!… ” पंकज चीख उठा। 

  वह गम्भीर हो गया। वातावरण में सन्नाटा छा गया। उसके स्वाभिमान पर धक्का लगा। वह खून का घूंँट पीकर रह गया। एक मोटी किताब ली और साईकिल पर सवार होकर बिना भोजन किये काॅलेज के लिए प्रस्थान कर गया। 

  काॅलेज में पंकज का मन नहीं लग रहा था। वह सोच रहा था कि सचमुच मुझे अपने से ऊंँचे स्तर की लड़की के साथ शादी नहीं करनी चाहिए थी। वह ठीक ही तो कहती है ‘ मुझसे शादी ही क्यों की? पहले अपनी औकात देख लेते।’ काॅलेज की दीवारें मानो कह रही थी 

‘ मुझसे शादी क्यों की?’ मैदान के वृक्ष मानो चीख रहे थे, “मुझसे शादी क्यों की, पहले अपनी औकात देख लेते।” उसके कानों में सारे ब्रह्मांड से वही  तेज़ आवाजें निकलकर आ रही थी और उस गूंँजती हुई आवाज के बीच रूपा की तस्वीर उसके जेहन में नाच रही थी। सुन न सका वह कानों में उंँगलियांँ डाल ली, उसकी आंँखों से आंँसू की बूंँदे ढुलकने लगी। 

      दूसरे दिन सुबह रूपा चारपाई पर  से टस-से-मस नहीं हुई थी। उसने कल से खाना भी नहीं खाया था। पंकज सुबह तड़के उठा और स्वयं खाना बनाने में जुट गया। कुछ देर बाद भोजन तैयार हो गया। तब वहअपनी पत्नी की चारपाई के नजदीक पहुंँचा फिर रूपा की कलाई पकड़कर कहा, ” उठो भी मेरी रानी… ऐसा करके कब तक जिलाओगी?” 

  उसने कलाई झटकार दी और आंँखें तरेर कर कहा, ” शुरू हुई तुम्हारी छेड़खानी।” 

  पंकज ने फिर प्यार भरे लहजे में कहा, ” वाह!… समझा, तुम भी खूब नखरे करती हो, चाय तो कम से कम पी लो। कैसा चेहरा मुरझा गया है।” वह चारपाई पर बैठना ही चाहता था कि वह फूट पड़ी,” चले जाइए यहांँ पर से, मुझे यह सब ठीक नहीं लगता है। “

  पंकज हक्का-बक्का होकर कोठरी से बाहर निकल गया और काॅलेज के लिए प्रस्थान कर गया। 

  रूपा अन्यमनस्क – सी पड़ी थी। अब उसे पंकज के साथ किये गये बर्ताव पर क्षोभ हो रहा था। वह सोच रही  थी, मेरी जीभ क्यों न कट गई थी। ओह, मैंने कितना बड़ा अन्याय किया। उसका दिल उमड़ पड़ा,वह सिसकने लगी। उसके दिमागी पटल पर नाच रहा था पंकज का भोला-भाला चित्र। 



                 शाम में काॅलेज से लौटने पर जब वह अचानक मुड़ा तो उसने खिड़की के माध्यम से देखा, रूपा एक शीशी से ढालकर खाना चाहती थी। उसके दिमाग को एक झटका लगा। उसकी आत्मा कांप कर कह उठी ‘शायद जहर’ 

फिर क्या था, रूपा के हाथ पर एक झटका लगा और जहर की शीशी फर्श पर थी। 

  “छोड़ दो… छोड़ दो…” 

  पंकज भरपूर ताकत से उसकी कलाई पकड़े हुए था। 

 ” क्या पागलों जैसा कर रही हो। “

 ” नहीं, छोड़ दो मुझे। अब बचकर मैं क्या करूंँगी। “

  पंकज समझाने का भरपूर प्रयास किया किन्तु वह चीख रही थी, उसकी आंँखों से आंँसू बह रहे थे।

” ठीक है। मेरे ही कारण न तकलीफ है, मैं ही…” कहते हुए उसने फर्श पर पड़ी हुई जहर की शीशी उठाकर स्वयं जहर खाना ही चाहता था कि रूपा ने झट उसका हाथ पकड़ लिया। उसने रोते हुए कहा, “यह क्या कर रहे हैं?” 

  “नहीं रूपा!… छोड़ दो, इस कलहपूर्ण जीवन से ऊब गया हूँ।” 

  रूपा फूट-फूटकर रोने लगी। पंकज का भी दिल उमङ पड़ा। वह भी रोने लगा। रूपा ने पंकज से लिपटकर रोते हुए कहा, ” मर्द होकर रोते हैं!” 

  ” जब तुम्हीं रुलाना चाहती हो तो मैं क्या करूँ! ” उसने सिसकते हुए कहा। 

  दोनों एक दूसरे से लिपटे फूट-फूटकर रो रहे थे। दोनों के दिलों का मैल धुल गया था। 

  आपस की तनातनी खत्म हो गई। पंकज ने कहा, “फिर कभी ऐसा मत करना नहीं तो जीना मुश्किल हो जाएगा। “

 ” मैं ऐसा नहीं करूंँगी। लेकिन मुझे भीअमीर घराने की लड़की नहीं कहियेगा। मैं एक साधारण वर्ग की पत्नी हूँ। मेरे लिए आप ही सब…।” वह लजा गई। उसके चेहरे पर लालिमा छा गई। पंकज मुस्कुरने लगा। 

    स्वरचित एवं मौलिक 

            मुकुन्द लाल 

                 हजारीबाग 

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