आखिरी आवाज़ – कंचन श्रीवास्तव 

की बोड पर हर वक्त थिरकती हुई उंगलियां अचानक शांत हो गई है ऐसा लगता है जैसे पोर पोर दुखता है पास होते हुए भी बेगाने सा पड़ा रहता है।

आज पूरे दो महीने हो गए समीर को गए, पर ऐसा लगता है जैसे कल ही की बात है ।

हां कल ही कि बात , यकीन ही नहीं हो रहा कि अब वो इस दुनिया में नहीं रहे , उनका आखिरी तीन मिस काल ( लाल- लाल) मानों मुंह चिढ़ा रहा हो कह रहा कि काश! कि तुम बात पर ली होती तो आखिरी बार न बतियाने का पछतावा न रहता पर मैं भी क्या करती , इतनी गंभीर बीमारी से एक तो जूझ रहे थे ऊपर से गुस्सा करना।

मुझे लगा यदि बोलूंगी तो बात बढ़ेगी और इस समय बोलना अच्छा नहीं क्योंकि अस्पताल में पड़े जिंदगी मौत से जूझ रहे हैं

बस यही सोचकर मैंने फोन काट दिया।

और कई दिनों बाद जब फोन आया तो नहीं उठाया।

फिर कुछ दिन बाद बेटी ने खबर दिया।

पापा हम सब को छोड़कर चले गए ,ये सुन काटो तो खून नहीं मैं संज्ञा शून्य हो गई पर आंसू एक भी नहीं निकले जैसे जड़ ही हो गई ।

हां अंतिम दर्शन को भी नहीं गई ,बेटी ने ही बाद में फ़ोटो भेजी जिसे देखने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पा रही थी ।

पर बस एक और आखिरी बार देखने की चाह उफान मारने लगा और उंगली सट से फोटो पर चली गई जिसे देख मैं स्तब्ध रह गई पर अचेत नहीं हुई।



कैसे भी करके खुद को संभाला।

और अपने काम में लग गई, और कभी कभार न चाहते हुए भी बच्चों से भी बात कर लेती ,पर सच तो ये है कि मन नहीं करता , सोचती मैं तो अपनत्व से हाल पूछती हूं पर ये क्या सोचोगे , सही भी है समीर की बात और थी।

उनसे बेझिझक कभी भी कुछ भी कैसी भी बात कर लेती थी।

पर बच्चों से ………..।

फिर मेरा इनसे रिश्ता सिर्फ मुझे पता है पर इनके लिए तो मैं  पहचान वाली हूं। ज्यादा इनके मामले में बोल भी नहीं सकती।

यही कारण है कि पल पल की खबर लेने वाली इधर उसके न रहने के बाद बस दो बार ही बात कर पाई वो भी डरते डरते।

मैंने देखा वो बच्चे भी खुद को पहले से ही जैसे तैयार कर लिए थे अकेले रहने के लिए जैसा कि उनकी बातों से लगा ।अब वो पूरी तौर से तैयार कर लिए हैं वर्तमान में जीने के लिए, मेरा अगाध प्रेम होते हुए भी खुद को उनसे अलग करना पड़ा।

सच कहूं तो ये दूरियां परिस्थिति जन्य है, पर खटकती है

एक विवशता कुछ न कर पाने की झलकती है।

कहीं न कहीं उन दोनों भाई बहनों ने अपने आप को आज के साथ झोंक दिया है पड़ी हूं तो सिर्फ  मैं अकेली पड़ गई हूं।

समीर के बिना।

क्योंकि हमारा- रिश्ता नहीं आत्मिक बंधन हैं

जो आखिरी सांस तक रहेगा।

वो आखिरी सूर्ख लाल रंग की तीन मिस काल मानों दिल को भेदती हुई कहती हैं।

काश!

उठा ली होती तो आखिरी आवाज़ सुन पाती , की बोड पर थिरकती उंगलियां न शांत होती।और न

पोर पोर में दुखन महसूस होती।

स्वरचित

कंचन श्रीवास्तव आरज़ू

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