एकाकीपन…… – विनोद सिन्हा “सुदामा”

आज तुम्हें गए पूरा एक वर्ष हो गया…बस में होता तो शायद रोक लेती तुम्हें,लेकिन मैं जानती हूँ ..चाहकर भी नहीं रोक सकती थी तुम्हें…..और सच कहूँ तो कभी सोचा भी नही था

कि ऐसे जाओगे तुम…साथ अपने इतना दर्द इतनी वेदना लेकर और मुझे दुनिया जहाँ का दर्द देकर…

जाना अपने आप में एक पीड़ादायक क्रिया है..जाने क्यूँ जाना शब्द सुनकर ही मन आहत हो ऊठता है..एक लहर सी दौर उठती है धमनियों में पीड़ा की…उसपर तुम्हारा जाना.. किसी वज्रपात से कम नहीं….

तुम जिंदगी से क्या गए मानों जिंदगी ही रूठ गई मुझसे..

जबसे गए हो खाली खाली सी हो गयी हूँ मैं…जिंदगी की हर कड़ी रिक्त हो गई हो जैसे…सूना घर काटने को दौड़ता है….अनबोलती दीवारें अक्सरहां असहनीय पीड़ा से सरोबर कर देती हैं मुझे,खिड़कियों से आती रौशनी आँखों को इतनी चुभती हैं कि कह नहीं सकती..

दिन डूबते ही मन भी डूबने लगता है शाम होते ही…दर्द अपनी हर हद से बढ़ने लगता है…

वो कहते हैं न अंधेरे से रौशनी की यात्रा जितनी रोमांचकारी होती है..रौशनी से अंधेरे का सफर उतना ही डरावना और भयावह…इसलिए डर कर सारी खिड़कियां बंद कर देती हूँ.

जब भी तुम्हें सोचती हूँ मन वेदना से भर उठता है मेरा..जाने क्यूँ सहम सी जाती हूँ मैं..और लड़खड़ा कर बैठ जाती हूँ मैं

सच कहूँ तो उस समय तुम्हारे सहारे की सख्त जरूरत का



एहसास होता है मुझे….

तुम्हारे साथ बिताए सारे पल सामने आन खड़े होते हैं मेरे….

तुम्हारा हँसना तुम्हारा मुझे देख मुस्कुराना..तुम्हारा मेरा हाँथ पकड़़कर मुझे संतावना देना..और यह कहना “मैं हूँ न”…बहुत सालता है मन को…एक निवाला तक नहीं उतरता हलक से

सालों से आदत जो हो गई थी एक दूसरे को पहला निवाला खिलाने की…

जानते हो मैं अब भी हर सुबह दो कप चाय बनाती हूँ..

एक कप मैं मेरे लिए..और दूसरी तुम्हारे हिस्से की…

जिसे रख देती हूँ साथ वाली कुर्सी के सामने जिसपर पर तुम्हारी तस्वीर..रख छोड़ी है मैने…मैं पागल…तुम्हारी तस्वीर में

तुम्हें ही ढूँढती हूँ. …स्पर्श करती हूँ..महसूस करती हूँ.

तुमसे बाते करती हूँ..और..चाय की हर चुस्कियों में अपना

गम हलका करती हूँ..और तुम्हारे हर एहसासों को जीती हूँ..

फिर ऐसा कोई एहसास भी तो नहीं था,..जो तुमसे अनछुआ था…

अक्सर कहते थे..तुम..

तुम मेरा इतना खयाल रखती हो कभी मुझे भी अपना खयाल रखने दो…

मैं हँसकर कहती जब समय आएगा तो रख लेना…जब मेरी हड्डियों में जान नहीं रहेगी….जब मेरी साँसें शिथिलता का



अनचाहा आवरण ओढ़ लेंगी..तब रखना. तुम मेरा खयाल…

तुम हँस देते…चाय की चुस्की ले कहते…

तुम और तुम्हारी बातें…

दोनों को समझना काफी मुश्किल है…

सुनो…आज मैं बिलकुल तन्हा और नितांत अकेली हूँ….

मेरा एकाकीपन.. रास नहीं आता मुझे…आओ न मेरा खयाल रखने..आओ देखो कि बिना तुम्हारे खयाल के कैसे जी रही हूँ मैं…जिंदा हूँ भी या नहीं…

कभी कभी आंतरिक इच्छा होती है कि जोर से चिल्लाऊँ इतनी जोर से कि मेरी चीखें मेरे अंतस तक को झखझोर दे….

जार रोना चाहती हूँ..पर रो नहीं पाती..आँखों के आँसू पलकों तक आकर रूक से जाते हैं..और धीरे धीरे ओसबिंदू बनकर बहते रहते हैं रातदिन..दर्द देते हैं पीड़ा देते हैं..

ये असहनीय पीड़ा अब सही नहीं जाती…बहुत दर्द देता है तुम्हारा यूँ मुझे छोड़ जाना….मुझे मेरे खालीफन के साथ….

तुम थे तो मेरी दुनिया तुम और तुमसे थी तुम नहीं तो अब ये दुनिया रही दुनिया नहीं..

सुनो  अब इन हड्डियों में जान नहीं रहीं…कई दरारें भी आ गई हैं ..और चेहरे पर झुर्रियों ने अपना स्थान बनाना शुरू कर दिया है…जिनसे सिर्फ़ दर्द और वेदना झलकती हैं..

आ जाओ न फिर से मेरी दुनिया बनकर..मेरी लाठ़ी बनकर मेरा खयाल रखने..या बस यूँ ही कहा करते थे तुम…

“खयाल रखने को दो मुझे अपना….”

विनोद सिन्हा “सुदामा”

 

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