अधूरी चीख –  बालेश्वर गुप्ता

 एक शोर उठा,भगदड़ मची,काफी लोग उसी दिशा में दौड़ लिये,कुछ अपने स्थान पर ही खड़े खड़े, क्या हुआ जानने का प्रयास करने लगे।कुली ने बताया कि एक कुलीन शालीन सा व्यक्ति यही बैंच पर काफी देर से बैठा था।सफेद झक धोती,ऊपर से सफेद ही कमीज।बस जैसे ही ट्रेन आयी वो एकदम झटके से उठकर  चलती ट्रेन के आगे कूद गया, कोई कुछ समझ पाता,इससे पहले ही उस व्यक्ति के फरख्च्चे उड़ चुके थे।वहाँ खड़े अन्य लोग उस दर्दनाक मौत की अपनी अपनी तरह से व्याख्या कर रहे थे।

           मोती राम मुज्जफरनगर की गुड़मंडी में एक बड़े आढ़ती थे।पचास वर्ष पूर्व तक अधिकतर परिवारों में सात आठ बच्चे होना कोई असामान्य नही होता था।मोती राम के भी चार बेटे और तीन बेटियां थी।बड़ा बेटा जो 12वी कक्षा में ही पढ़ रहा था कि आठवी संतान को जन्म देते समय  मोतीराम की पत्नी की मृत्यु हो गयी और बच्चे को भी नही बचाया जा सका।अब मोती राम के सामने अपने छोटे कच्ची उम्र के सात सात बच्चो के देखभाल,पढ़ाई आदि की अपने बड़े व्यापार के साथ जिम्मेदारी भी आ गयी।मोती राम अपने व्यवसाय में पहले ही इतना व्यस्त रहते थे  कि बच्चे कैसे पाले जाते हैं, उन्हें पता ही नही था।दो तीन महीनों में ही मोतीराम परेशान हो गये।

      अपनी एक बहन को कुछ दिनों के लिये अपने घर बुलाकर मोतीराम अपने व्यवसाय के चक्कर मे राजस्थान चले गये।जो उसके व्यापारिक मित्र थे,सभी ने मोतीराम के प्रति सहानुभूति प्रकट की।कुछ ने उन्हें दूसरी शादी की सलाह भी दी।मोतीराम असमंजस में थे कोई दूसरी महिला कैसे उसके सात सात बच्चो का पालन करेगी?इसी सोच के कारण वो चाहते हुए भी कोई निर्णय नही ले पा रहे थे।




       ऐसे समय मे उनकी स्थानीय निवासी बहन काफी सहायता कर रही थी।वो एक प्रकार से मोतीराम के घर पर ही रहने लगी थी,कभी कभार ही जाती थी।इससे मोतीराम को काफी राहत मिल गयी थी।एक मित्र ने इसी बीच उनकी मुलाकात एक दस वर्षीय बच्ची की माँ यशोदा जो विधवा थी और शिक्षिका भी थी,से करा दी।मोती राम को यशोदा अपने बच्चों की शिक्षा और देखभाल के लिये उपयुक्त लगी।उन्होंने यशोदा से बात करके उन्हें अपने बड़े दो मंजिला मकान में यशोदा को एक कमरा रहने को दे दिया,जिससे यशोदा उनके घर पर ही अपनी बच्ची सुम्मी के साथ रहने लगी।यशोदा को नौकरानी से घर का काम लेना और बच्चों की देखभाल एवम उनकी शिक्षा का ध्यान रखना था।कुछ ही दिनों में यशोदा ने पूरे घर को जिम्मेदारी के साथ संभाल लिया।यशोदा की खुद की रहने खाने तथा सुम्मी की पढ़ाई लिखाई की समस्या समाप्त हो गयी थी,सो वो इस नौकरी से संतुष्ट थी और मनोयोग से वो मोतीराम की गृहस्थी को संभाल रही थी।मोतीराम भी यशोदा से पूर्ण रूप से संतुष्ट थे।अब वो घर से बेफिक्र हो अपने व्यापार पर ध्यान देने लगे थे।

       पिछले दिनों उन्हें मालूम पड़ा कि उनके मुहल्ले का एक निवासी सुरेंद्र ने यशोदा को अपने यहां रहने का और मोतीराम से मिलने वाले वेतन से अधिक देने का ऑफर दिया।हालांकि यशोदा ने सुरेंद्र के आफर को ठुकरा दिया था,वैसे भी सुरेंद्र लंपट टाइप का व्यक्ति था।पर मोतीराम को चिंता रहने लगी कि यशोदा ने चलो सुरेंद्र को तो मना कर दिया,पर अन्य किसी का आफर यदि उसे भा गया तो यशोदा उसके घर क्यों रुकेगी?कैसे उसके बच्चो की परवरिश होगी?ये प्रश्न उसे रात दिन परेशान करने लगे।अपने मन की व्यथा मोतीराम ने अपनी बहन के सामने रखी।




     मोतीराम की बहन ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा कि हाँ भैया ये बात तो है, हमारा यशोदा पर कोई जोर थोड़े ही है, उसको यदि जाना होगा तो हम उसे कैसे रोक सकेंगे?फिर कुछ सोच कर बोली भैय्या एक उपाय है, यदि यशोदा मान जाये तो?मोतीराम बोले क्या उपाय है बहना?बताओ,मैं बच्चो के लिये यशोदा को कुछ भी वेतन देने को तैयार हूं।बात वेतन की नही भाई, बात यशोदा के घर मे ही रुक जाने की है,वो तभी सम्भव है जो यशोदा और तुम्हारी शादी हो जाये।

     इतना सुनते ही मोतीराम उखड़ गये, बोले बहन क्या तेरा दिमाग खराब हो गया है?मैं इस उम्र में जिसके सात बच्चे हो,शादी कर लूं,दुनिया क्या कहेगी?डूब के मरने को भी जगह नही मिलेगी।सब इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी।

      अरे भाई दुनिया की छोड़,दुनिया मे से कोई तेरे बच्चो को पालने नही आयेगा।देख मुझे लगता है यशोदा मान जायेगी, उसको भी अपनी बेटी को पालना है और शिक्षा दिलानी है,और इसी घर मे रह भी रही है,और वो यहाँ से संतुष्ट भी लगती है।वो शादी कर लेगी तो उसे भी तो सम्मानजनक स्थान समाज मे मिल जायेगा।अब भैय्या तू माने तो मैं फिर यशोदा से बात करूं।

     मोतीराम को बहन की बात तो तर्कसंगत लग रही थी,पर समाज का संकोच उसे हाँ कहने से रोक रहा था।बिना कोई उत्तर दिये ही मोतीराम उठकर चले गये।लेकिन मोतीराम की बहन एक सुलझे दिमाग की महिला थी,उसने समझ लिया कि भैया मान जायेगा, इसलिये अब यशोदा से बात करनी पड़ेगी।आखिर उसकी रजामंदी के बिना तो कुछ भी सम्भव नही होगा।




        आखिर मोतीराम की बहन ने एक दिन यशोदा से बात छेड़ ही दी,सब ऊंच नीच समझाया और इज्जत से जीने का यदि रास्ता मिल रहा हो तो उसे छोड़ना मूर्खता ही होता है।यशोदा ने एक दो दिन का समय सोचने को मांगा।दो दिन बाद यशोदा ने हाँ कर दी। एक सप्ताह में ही कुछ गिने चुने मेहमानों और रिश्तेदारों की उपस्थिति में मोतीराम और यशोदा का विवाह संपन्न हो गया।यह विवाह दोनो की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एक प्रकार से समाज की सहमति की मुहर थी।विवाह पश्चात भी यशोदा अपने कर्तव्य से पीछे नही हटी और मोतीराम के बच्चों और अपनी सुम्मी में कभी भेद नही किया।

        मोतीराम के बड़े बेटे को यह सब अच्छा नही लगा।वो इस विवाह का विरोध तो नही कर पाया पर उसके मन मे यह गाँठ पड़ गई थी कि उसके पिता ने अपने सुख के लिये उसकी माँ के साथ धोखा किया है।इस दुराग्रह के कारण वो यशोदा को तो दुश्मन मानने ही लगा,अपने पिता से भी घृणा करने लगा।पढ़ाई लिखाई से उसका मन उचट हो गया था।उसके पिता ने उसे अपने साथ ही आढ़त की दुकान पर ले जाना प्रारम्भ कर दिया। बेटा दिनोदिन उदण्ड होता जा रहा था।पिता को कभी सीधे मुँह किसी भी बात का उत्तर नही देता था।मोतीराम के सामने अब यह नई समस्या थी।उसे अब अपने बेटे से ही डर लगने लगा था कि वो किसी के सामने कभी भी किस प्रकार का जवाब ना दे दे जिससे उसकी इज्जत का फलूदा ना बन जाये।

        समय का पहिया घूमता रहा,मोतीराम ने अपनी लड़कियों की शादियां कर दी,बच्चे बड़े हो गये थे।सुम्मी की शादी भी मोतीराम ने धूमधाम से की।बड़ा बेटा उसका व्यापार संभाल रहा था।यशोदा परलोक सिधार गयी थी।




      मोतीराम यूँ तो संतुष्ट थे,पर बेटे ने उन्हें यशोदा से शादी के बाद से कभी भी सम्मान नही दिया।ये कसक मोतीराम के मन को सदैव ही कचौटती थी,वो कभी अपने बेटे को समझा नही पाये या यूं कहो बेटा कभी अपने पिता को समझ नही पाया।बेटे के अमर्यादित व्यवहार को देख मोतीराम अपने बेटे के सामने कम ही पड़ते थे।

      उस दिन जयपुर से एक व्यापारी का फोन मोतीराम पर आया था सो उसी के बारे में बताने वो अपने बेटे के पास गये।बेटे से बोले बेटा व्यापार में जबान ही विश्वास होती है, तुम्हे जयपुर वाले व्यापारी को समय से माल भेजना था।विश्वास ही तो हमारी पूंजी होती है।बेटे को पिता की नसीहत चुभी,वैसे भी वो पिता के प्रति मन मे ग्रंथि पाले था सो जवाब दे दिया हाँ, हाँ पापा मैं जानता हूँ विश्वास की पूंजी को। बेफिक्र रहिये जैसा आपने मां के साथ विश्वासघात किया है, कम से कम मैं किसी के साथ नही करूँगा।

      सुनकर मोतीराम धक से रह गये।क्या वास्तव में मैंने अपनी पत्नी के साथ विश्वासघात किया है?क्या मैंने अपने सुख वास्ते यशोदा से शादी की थी?क्या मैं अपनी ही औलाद से ऐसी ही इज्जत पाने का हकदार हू?सोचते  सोचते मोतीराम रेलवे प्लेटफॉर्म पर पहुँच जाते हैं।उन्हें लग रहा था अब उनके जीवन मे कुछ भी शेष नही बचा है।ट्रैन की सीटी बजी और धनधानते ट्रैन जैसे ही सामने आयी मोतीराम की चीख वायुमंडल में भी पूरी तरह गूंज नही पायी—–!




              बालेश्वर गुप्ता,पुणे

स्वरचित,अप्रकाशित

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