अभिमान या स्वाभिमान – नीलिमा सिंघल

बनारस रेलवे स्टेशन के बाहर गौरी अपनी रिक्शा पर बैठी कोई सवारी मिलने का इंतजार कर रही थी। गाड़ी आ चुकी थी। स्टेशन पर बहुत भीड़ थी। सभी को अपनी मंज़िल पर पहुंचने की जल्दी थी। बाहर बहुत से रिक्शा वाले थे। उन सब में एक गौरी ही अकेली लड़की थी जो रिक्शा चलाती थी। बहुत से यात्री उसे लड़की है, कमज़ोर होगी समझकर उसके पास से निकल गए और उसे सवारी नहीं मिली। आधा घंटा बीत चुका था। उसका ध्यान अब भी रेलवे स्टेशन के फाटक की तरफ था जहां अब इक्का-दुक्का लोग ही बाकी रह गए थे ।

मई के महीने की गर्मी में वह पसीने से तर हो चुकी थी। उसके काले घने लंबे बाल जुड़े में बंधे थे और बालों की कुछ लटें उसके कानों और चेहरे पर झूल रही थीं। उसके चेहरे पर पसीने की बूंदे चमकने लगी थीं। उसका खूबसूरत सांवला चेहरा धूप में लाल पड़ गया था मगर उसके चेहरे की मुस्कुराहट और आंखों की चमक कम नहीं हुई थी।

“बी. एच. यू. चलोगी? ” आवाज़ सुन कर उसने पीछे मुड़ कर देखा। एक आकर्षक नौजवान उससे पूछ रहा था। “बी.एच.यू के हॉस्टल चलोगी?” उसने सवाल दोहराया। गौरी ने हां में सिर हिला दिया, “हां पर तीस रूपये लगेंगे।” “ठीक है।” नौजवान ने हां में सर हिला दिया। उसके कंधे पर सिर्फ एक बैग था। वह रिक्शा पर सवार हो गया। 




गौरी खुश थी कि आज उसे खाली हाथ नहीं लौटना पड़ेगा। उसके लिए यह रास्ता कोई ज्यादा नहीं था। गौरी को देखकर उस नौजवान के मन में कई सवाल उठ रहे थे। वह सोच रहा था यह लड़की अन्य औरतों की तरह लोगों के घरों में काम न करके मर्दों की तरह सड़कों पर रिक्शा ही क्यों चलाती है। जब उससे रहा नहीं गया तो वह गौरी से पूछ बैठा, “कब से रिक्शा चला रही हो?” गौरी मुस्कुरा दी। उसने पीछे मुड़कर देखा और बोली, ” दो साल हो गए साहब रिक्शा चलाते हुए।” “तुम्हारे मां और बाबा! मेरा मतलब है उन्हें अजीब नहीं लगता?” उस नौजवान ने पूछा। “मेरा कोई होता तो शायद उसे बुरा लगता साहब। मेरे पैदा होते ही मेरी मां चल बसी। जब बारह बरस की हुई तो बाबा भी मुझे इस दुनिया में अकेला छोड़ कर चले गए। मेरे बाबा रिक्शा चलाते थे । जब वह हर  रोज़ थक कर लौटते और मैं उनके हाथ में पानी का गिलास रखती तो वह मुस्कुरा कर अपना हाथ मेरे सर पर रख देते। मैं यह सोचती थी कि काश! कोई ऐसी तरकीब निकल आए कि मोटर की तरह मेरे बाबा का यह रिक्शा भी अपने आप चलने लगे ताकि मेरे बाबा के पैरों को थकना न पड़े।” 

उस नौजवान की उत्सुकता अभी भी कम नहीं हुई थी। उसने फिर सवाल पूछा, “मगर तुम्हारी रिक्शा में तो मोटर है, देखो! रिक्शा अपने आप चल रहा है।” गौरी ने फिर पीछे मुड़कर देखा, “हां साहब! अब रिक्शा अपने आप चल रहा है। बाबा के जाने के बाद मैंने कई साल तक  हर दिन इस रिक्शा को लेकर एक ही सपना देखा था। मेरे बाबा की बस यही एक निशानी है मेरे पास। मैं लोगों के घर में झाड़ू बर्तन करती लेकिन जब हर रात घर आकर अपने बिस्तर पर पड़ती तो मेरी आंखे बाबा के इस रिक्शा को देखते हुए बंद हो जाती। मैंने कई साल तक थोड़े थोड़े पैसे बचाकर अभी दो साल पहले ही इसमें मोटर लगाने का अपना सपना सच कर दिया है। कभी कभी सपने सच भी होते हैं साहब।” कहकर वह फिर मुस्कुरा दी।  “साहब मैं जब भी इस रिक्शा को देखती हूं मुझे ऐसा लगता है कि जैसे मैंने अपने बाबा के थके हुए पैरों पर मरहम लगा दिया हो, जैसे मेरे बाबा ने मेरे सिर पर प्यार से हाथ रख दिया हो।”




 रिक्शा अपने गंतव्य पर पहुंच गया। जैसे ही वह नौजवान वहां उतरा और गौरी को किराए के पैसे देने के लिए अपनी जेब को टटोला। उसके पास पांच सौ का नोट था।  “छुट्टा दीजिए साहब” गौरी ने कहा”

“अरे,,सारे रख लो,,तुम्हें जरूरत पड़ेगी,,गर्मी भी इतनी है कहाँ तक और कितना रिक्शा चलाओगी “

गौरी ने कहा, ” साहब, मेहनत की खाती हूं और जरूरत का लेती हूं मुझे आपका या किसी का अहसान नहीं चाहिए “

“इसमे अहसान जैसा कुछ नहीं है,,अहंकार,,

अभिमान से दुनिया मे कुछ नहीं हो सकता “नौजवान ने आगे कहा। 

“पर साहब ये मेरा स्वाभिमान है,,ना कि अभिमान”

गौरी ने शांत आवाज मे कहा। 

“तुम यहां रुको, मैं पैसे लेकर अभी आता हूं।” यह कहकर वह भीतर चला गया। थोड़ी देर में वह  लौटा और पैसे ले कर गौरी ने  हमेशा की तरह बिना गिने हुए रूपये अपने दुपट्टे की गांठ में बांध लिए।

घर आकर जब उसने उन मुड़े हुए दस दस के नोटों को खोला तो उसमें से एक   कागज़  निकला। गौरी कभी स्कूल नहीं गई थी। वह पढ़ना लिखना नहीं जानती थी इसलिए समझ नहीं पाई कि उस कागज़ पर क्या लिखा था। अब वह कागज़ किसे दिखाती। जाने क्या लिख होगा उस अनजाने मुसाफिर ने। वह जानना ज़रूर चाहती थी कि वह अजनबी उसे कहना क्या चाहता था। उसकी इसी सोच ने उसे पढ़ना लिखना सीखने के लिए विवश कर दिया। शाम के वक्त मोहल्ले के 




मास्टर जी के पास जाकर वह पढ़ने लगी। जब तक वह ख़त पढ़ने लायक हुई तब तक सूरज आसमान पर कई महीने का सफर तय कर चुका था। 

उसने वह कागज संदूक से निकाला। शब्दों को जोड़ जोड़ कर खत पढ़ने की अपनी कोशिश में वह कामयाब हुई। उस खत में लिखा था, “तुम बहुत बहुत प्यारी हो ।मैं तुम्हारी सादगी, खुद्दारी स्वाभिमान लेकिन siऔर अपने पिता के लिए तुम्हारे प्यार से बहुत प्रभावित हुआ हूं। तुम जितनी सुंदर हो उससे भी ज्यादा प्यारा और सुंदर तुम्हारा मन है। मेरा नाम योगेश है। मैं यहां बी एच यू में विद्यार्थी हूं। किसी बड़े घर का नहीं हूं लेकिन हां! मेरे इम्तेहान होने वाले हैं। उम्मीद है कोई न कोई नौकरी ज़रूर मिल जाएगी। पंद्रह  दिन के बाद मैं यहां से हमेशा के लिए चला जाऊंगा। यदि मुझ पर भरोसा कर सको तो  जान लो सिर्फ एक ही मुलाकात में मेरे दिल ने ये चाहा है कि अपने जीवन का बाकी हिस्सा तुम्हारे साथ गुज़ार दूं। अगर तुम इसके लिए राज़ी हो तो पंद्रह दिन के भीतर मुझे उसी समय और उसी जगह आकर मिलो जहां तुम ने मुझे छोड़ा था। मैं हर दिन तुम्हारा इंतज़ार करूंगा। 

पढ़कर गौरी की आंखों से आंसू लगातार बहने लगे। वह अंजाना मुसाफिर जो कुछ देर के लिए उसके रिक्शा पर बैठा था, जीवन भर का साथ निभाने का सपना दिखा गया था उसे। काश ! वह पढ़ी लिखी होती। काश! वह उन शब्दों को समय रहते पढ़ पाती। काश! वह अनजाने अजनबी मुसाफिर से फिर मिल सकती। अपने बाबा के जाने के बाद पहली बार गौरी इतना रोई थी। रोते रोते  सुबह हो गई। गौरी अपनी रिक्शा को चमकाने लगी ताकि वह फिर से काशी रेलवे स्टेशन पर जाकर सवारियों को उनकी  मंज़िल तक पहुंचा सके।

वो फिर स्टेशन पहुंच गयी आँखों मे नमी छुपाकर। 

फिर से सवारियों को उनकी मंजिल तक पहुंचाने लगी,,

लेकिन अब उसकी आँखों मे उस नौजवान की प्रतीक्षा तैरती रहती,,,शायद वो एक बार फिर से उसको मिल जाए,,उसको बता पाए कि वो पढ़ना लिखना नहीं जानती थी,,,,अगर जानती तो,,,तो,,और उसके गले मे बाकी शब्द फंस जाता करते थे,,,क्यूंकि खत के अनुसार उसको सिर्फ 15 दिन मे जवाब देना था,,वो 15 दिन जो उसकी जिन्दगी से रूठ कर जा चुके थे। 

इतिश्री 

#अभिमान 

नीलिमा सिंघल 

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