अभिमान कैसा? –  विभा गुप्ता

  ” नहीं दीनदयाल, तुमने विवाह में कार देने की बात कहकर अब मुकर रहे हो, यह ठीक नहीं है।आखिर मैं बेटे का बाप हूँ, समाज में मेरी इज़्जत रह जायेगी।” रामकृष्ण अपने समधी से तीखे स्वर में बोले तो दीनदयाल बोले कि हाँ रामकृष्ण, मैंने तुमने कार देने की बात कही थी लेकिन तब छोटी बेटी ने एमबीए करने की बात नहीं कही थी,अब अगर मैं दामाद के लिये कार खरीदता हूँ तो बेटी की पढ़ाई रुक जायेगी।फिर तुम्हारे पास तो बुलैरो है ना।”

  ” मेरे पास क्या है, क्या नहीं, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता।बेटे का बाप होने के नाते मेरी एक सामाजिक प्रतिष्ठा है। बेटे की शादी में कुछ न मिलने से मेरी प्रतिष्ठा पर धब्बा न लग जायेगा।तुम गाड़ी के पैसे दे दो और बेटी को विदा कर लो।मेरी इज़ाजत बिना ले जाना है तो ले जाओ,पर फिर वापस मत भेजना।” दीनदयाल की बात सुनकर रामकृष्ण निरुत्तर हो गये।दरवाज़े की ओट में खड़ी अपनी बेटी को देखा तो नज़र नहीं मिला पाये।

           दीनदयाल और रामकृष्ण घनिष्ठ मित्र थें।बेटे आशीष की नौकरी लगते ही दीनदयाल ने ही रामकृष्ण की बेटी नयना को अपनी बहू बनाने की पहल की थी।रामकृष्ण ने तो कहा भी था कि हम तुम्हारी बराबरी नहीं कर सकते, तब दीनदयाल ने कहा कि हम मित्र हैं और मुझे बस तुम्हारी बेटी चाहिए।सगाई तक तो सब ठीक




था।बारात का स्वागत और जयमाला भी हो गया।फ़ेरे के समय अचानक ही दीनदयाल ने रामकृष्ण से एक गाड़ी की माँग कर दी।आशीष ने अपने पिता से कहा भी कि ये क्या है पापा? तब जवाब में दीनदयाल अभिमान से बोले कि हम लड़के वाले हैं।उस वक्त तो रामकृष्ण ने हामी भर दी,सोचा कि बाद में ठंडे दिमाग से बातचीत हो जायेगी।

     अब रामकृष्ण शादी के बाद पहली बार बेटी को विदा कराने आयें तो दीनदयाल ने उसी बात को फिर से छेड़ कर अपने मित्र के साथ बड़ी बत्तमीज़ी से पेश आयें।

        आशीष को पिता का व्यवहार अच्छा नहीं लगा।उसने रामकृष्ण से पिता के व्यवहार के लिए क्षमा माँगी और दो मिनट कहकर वह अपने पिता के पास गया और बोला, ” पापा, ये अचानक आपको बेटे का पिता होने का अभिमान कैसे हो गया? भूल गये, पिछले साल निम्मी दीदी की शादी में जब हम लोग जबलपुर गयें थें, दीदी के श्वसुर जब घमंड से बोले थें कि आखिर हम बेटे वाले हैं,तब आपने ही उन्हें समझाया था कि बेटा वाला होने का घमंड कैसा? आप हमें बेटा दे रहें हैं और हम अपनी बेटी आपको सौंप रहें हैं।रिश्ता प्यार और विश्वास का है ,फिर अहंकार या अभिमान कैसा?और आज आप ही अपने विचारों से भटक रहें है।हमारे पास तो किसी चीज की कमी नहीं है, फिर आप क्यों…?”

   ” वो सब तो ठीक है लेकिन हमारा समाज,हमारी बिरादरी…”

” पापा, समाज और बिरादरी के लिए तो विवाह दो घंटे का खेल होता है।मेरा विवाह हुए तीन महीने होने को आये,किसी को कुछ भी याद नहीं है और ना ही उन्हें कोई फ़र्क पड़ता है।आप बेवजह ही अपने व्यवहार से रिश्तों में क्लेश पैदा कर रहें हैं।”

       तभी आशीष की माँ आ गईं,  बोली, ” बेटा, रामकृष्ण जी जा रहें हैं, तुम ज़रा…।

   ” ठहरो! ” कहकर दीनदयाल अंदर गयें और नयना को लेकर ड्राइंग रूम में बैठे रामकृष्ण के पास गये।मुस्कुराते हुए रामकृष्ण से बोले, ” मित्र, ये रही मेरी बहू।इसे मेरी अमानत समझ कर संभालना।थोड़ी देर के लिए मैं भटक गया था,हो सके तो मुझे माफ़…..”कहते हुए उन्होंने अपने दोनों हाथ जोड़ लिये तो रामकृष्ण ने दीनानाथ को अपने गले से लगा लिया।सच है,रिश्तों में अभिमान कैसा।

                             विभा गुप्ता

                              स्वरचित

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