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डॉक्टर रेखा ने राघव को बुलाया और कहा कि “सावित्री जी को घर लेकर जाओ और उनके साथ वक्त बिताओ क्योंकि अब वो कुछ ही दिनों की मेहमान हैं।अब दवा का कोई भी असर उन पर होना बंद हो गया है।चंद सांसें शेष हैं उनके पास। जितनी खुशी दे सकते हो दो और उनकी जो भी अधूरी ख्वाहिश हो तो कोशिश करो की पूरी हो जाए।”
जीवन हुआ है तो मृत्यु भी निश्चित ही है,पर हम कहां अवगत होते हैं की ये सांसें कब तक हमारे शरीर की डोर को थामे हुए हैं।जब किसी को ये बात मालूम हो जाए की वो थोड़े दिनों का ही मेहमान हैं तो उसके लिए वो पल भी काटना कितना मुश्किल होगा। इंसान कितना भी तकलीफ़ क्यों ना बर्दाश्त कर ले, लेकिन अपनों का वियोग किसी मृत्यु से कम नहीं होता है।
सावित्री जी को ऐसी बीमारी थी जो लाइलाज थी। घर आ गई थी। बेटे-बेटियां दोनों ने मां के सामने अपनी तकलीफ़ को छुपा कर उनको खुश रखने और उनकी ख्वाहिशों को पूरा करने की पूरी कोशिश में लग गए थे। अकेले में दोनों बहुत रोते लेकिन मां के सामने हिम्मत से काम लिया करते थे। सावित्री जी भी बच्चों को खुश देखना चाहतीं थीं तो अपने दर्द को छिपाने की पूरी कोशिश करती रहती थी।
बच्चों से बहुत सारी बातें करनी थी उन्हें,ना जाने कितनी जानकारी भी साझा करनी थी क्योंकि उनको जीवन का अनुभव था और बच्चे तो बच्चे ही होते हैं मां के लिए।
सावित्री जी को हमेशा ये लगा रहता की ना जाने कौन सी सांस आखिरी हो और उनके पीछे बच्चे कैसे संभालेंगे अपने आप को। बिस्तर पर लेटी – लेटी थक गई थीं ।एक शाम बच्चों से कहा कि,” मुझे बागीचे में ले चलो… मैं अपने पौधों को देखना चाहतीं हूं।” शरीर से कमजोर हो गई थी पर बच्चे मां की हर इच्छा पूरी करने की कोशिश करते थे।
कुर्सी पर संभाल कर बैठा दिया गया और बेटी मां के पास ही खड़ी थी। बहुत शौक था उनको पेड़ पौधे का। तबीयत बिगड़ी तो उनके देखभाल में भी कमी आ गई थी।कई पौधे सूख गए थे।
एक गमले में एक नन्हा सा पौधा दिखाई दे रहा था,जिसको देख कर वो मुस्कुराने लगी। तभी बेटी राधा ने पूछा मां!” आप बहुत खुश लग रही हैं अपने पौधों से मिलकर। देखिए ना आपके बिना ये भी उदास हैं और इतना कहते-कहते उसका गला भर आया। सावित्री जी ने कस कर उसका हांथ पकड़ लिया और बोली राधा ” तुमने मुरझाया हुआ पेड़ देखा
और मैंने उस नन्हे से पौधे को देखा जो नया जीवन लेकर इस दुनिया में आने को बेताब है। बेटा जीना – मरना अपने हांथ में नहीं है। अगर अंत है तो शुरुआत भी है।कितने लोगों को तो पता ही नहीं होता और वो अपनों से दूर चले जाते हैं। मैं तो खुशनसीब हूं जो मैं जाती हुई सांसों के साथ हर एक पल तुम लोगों के साथ बिता रही हूं। मैं कहीं भी रहूं पर हमेशा तुम लोगों के साथ तुम्हारी यादों में तुम्हारी बातों में रहूंगी। तुम इस नन्हे पौधे को देखती रहना बस समझना की मैं तुम्हारे साथ ही हूं।”
कहां से इतना हिम्मत जुटा पातीं हैं मां… राधा का दिल कर रहा था की मां की गोद में सिर रखकर जी भर कर रो ले, पता नहीं ये साथ कब उससे बहुत दूर चला जाएगा और कभी भी नहीं मिलेगा। सचमुच मां जैसा प्यार और फ़िक्र कोई नहीं दे सकता है।
मां!” बहुत देर हो गई है चलो कमरे में चलते हैं। तुम्हारे लिए इतनी देर बैठना ठीक नहीं है।” राधा व्हील चेयर से सावित्री जी को कमरे में ले जा रही थी, तभी उन्होंने कहा बेटा ” मुझे सारे कमरे और रसोई घर में ले चलो। बहुत दिन हो गए घर को ही नहीं देखा है। अस्पताल में ही वक्त गुजर गया मेरा तो।” राधा उनकी हर इच्छा पूरी करना चाहती थी। सावित्री जी हर कमरे में थोड़ी देर ठहर कर ख्यालों में डूब जातीं।हर कोने में उनकी आत्मा बसती थी।कितने प्यार से सजाया था उन्होंने घर को,
लेकिन अब सब अस्त व्यस्त सा दिख रहा था। वजह भी थी बच्चे मां की सेवा और अपने कामकाज में लगे रहते थे उनके पास कहां इतना वक्त था और जब मन उदास हो तो उसका असर घर पर भी दिखाई देता है। रसोई घर में और देर तक रूकीं और ख्यालों में डूब गई की वो जब नई – नई आईं थीं तो उनको खाना बनाना ज्यादा नहीं आता था
तब राकेश जी कैसे मिलकर काम में हांथ बटाते और उनका हौसला बढ़ाया करते थे।बाद में तो वो कितना अच्छा खाना बनाने लगी थी।इसी रसोई घर में तो आधा जीवन निकल गया था।उनका मन कर रहा था कि वो वो कुछ बना कर बच्चों को खिलाएं…पता नहीं कभी उनको मां के हांथ का खाना कहां नसीब होगा। सावित्री जी ने जिद्द करके राधा की मदद से सूजी का हलवा बनाया। राधा भी मां की तकलीफ़ को समझती थी कि उनको कितना कष्ट हो रहा होगा हम सब को छोड़कर जाने में।
पहले भगवान जी को भोग लगा देना राधा..”.कितने दिनों से कान्हा को भी तो कुछ नहीं खिलाया है।”राधा का कलेजा मुंह को वो रहा था मां की एक – एक बातों से, लेकिन वो उनकी सारी इच्छाएं पूरी करना चाहती थी।पूरे परिवार ने एक ही प्लेट में बैठ कर हलवा खाया। सावित्री जी अपने हाथों से बच्चों को हलवा खिला रहीं थीं। जैसे कोई भी इच्छा अधूरी ना रह जाए उनके मन में। मां! ” अब आराम करो…अब कोई भी जिद्द नहीं सुनूंगा मैं” राघव डांटते हुए बोला।
बिस्तर पर लेटे-लेटे सोच रहीं थीं की भगवान जी कुछ और सांसें दे देते तो राधा – राधव की शादी तो कर पाती।एक मां के दिल के अरमानों को किसी सीमा में बांध कर कहां रख सकते हैं।पति राकेश जी तो पहले ही सारी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ कर चले गए थे और अब मैं. … कैसा न्याय है प्रभु आपका की मेरे बच्चों को अनाथ कर रहे हो। कैसे करेंगे ये सब… उनको कहां मालूम है दुनियादारी। सोचते – सोचते नींद आ गई… शरीर तो कमजोर था ही और दवाइयां खाने से नींद आ जाती थी।
दूसरे दिन सुबह राधा ने चाय के साथ उपमा बनाया जो मां आसानी से खा लेंगी और उन्हें पसंद भी था उसके हांथ का।
मां!” उठो मंजन करा देती हूं…देखो आज मैंने तुम्हारी पसंद का उपमा बनाया है” राधा मां से बातें करती – करती मेज पर नाश्ता लगा रही थी। मां…. जैसे ही उसने जगाने के लिए हांथ लगाया तो सावित्री जी का शरीर ठंडा पड़ चुका था वो घबड़ा गई और जोर -जोर से उनको हिलाने लगी तभी राघव दौड़ कर आया और वो भी मां के मुंह के सामने हांथ लगाया तो सांसें रुक चुकी थी और मां सबको छोड़कर दूसरी दुनिया
में चलीं गईं थीं। सबको पता था इस सच्चाई के बारे में की वो कुछ दिन की मेहमान हैं पर ये स्वीकार करने को कोई तैयार नहीं था। सभी को लगता था कि ईश्वर कोई तो चमत्कार कर दें और मां ठीक हो जाएं।
राधा फूट – फूट कर रो रही थी… राघव वहीं खड़ा का खड़ा रह गया था जैसे किसी ने उसके पैर जमीन में बांध दिए हों।वो राधा को संभालने में लगा था। दोनों भाई-बहन गले लग कर रो रहें थे और एक – दूसरे को हिम्मत बंधा रहे थे। राघव ने सभी रिश्तेदारों और पड़ोसियों को खबर पहुंचा दिया था। थोड़ी देर में अंतिम संस्कार की तैयारी हो गई थी और मां अब इस घर से हमेशा के लिए विदा हो गईं थीं पर उनकी मौजूदगी अभी भी उस घर के हर कोने में थी। ऐसा लगता की मां अभी आवाज देंगी। अंतिम यात्रा पर वो तो चली गईं थीं उनको अपने कष्टों से मुक्ति मिल गई थी पर राधा और राघव के लिए जीवन भर का कष्ट दे गईं थीं।
राधा बागीचे में उस नन्हे से पौधे को पानी डाला करती और ऐसा लगता की मां उसे देख रहीं हैं और कह रही है कि क्यों उदास हो मैं हमेशा तुम सब के साथ किसी ना किसी रूप में रहूंगी।
जिंदगी की यही सच्चाई है जाने वाला तो चला जाता है लेकिन जो पीछे रह जाते हैं उनको भी इतनी तकलीफ़ के बावजूद जिंदा रहना भी पड़ता है और जिंदगी जीने के लिए दिनचर्या भी निभानी पड़ती है। मां की यादों के सहारे जिंदगी तो गुजारनी ही थी।अब वो कमरा बेजान सा हो गया था जहां मां ने अंतिम सांसें लीं थीं।
प्रतिमा श्रीवास्तव
नोएडा यूपी