जशन बाईक पर से जा रहा था तो अचानक उसे रोशन दिखा। एक छोटी सी चाय की गुमठी के पास बैठा चाय पी रहा था। उसे मिलने की इच्छा से बाईक उसी और मोड़ दी। पास आने पर देखा कि वह कुछ परेशान सा दिख रहा था। चिंता की लकीरें साफ उसके माथे पर नजर आ रही थी। दोनों पुराने दोस्त थे। पहले एक ही मुहल्ले में रहते थे, स्कूल से ही इकट्ठे पढ़े और बी. काम एक ही कालिज से की। आज कल दोनों के घर काफी दूरी पर हैं।
“ कैसे हो दोस्त, कुछ उदास से लग रहे हो”, जशन ने बाईक का स्टैंड लगाते हुए कहा।
“ कुछ नहीं , बस यूं ही”, रोशन ने कहा और उसके लिए भी चाय का आर्डर दे दिया। कुछ देर यहां वहां की बातों के बाद जिगरी दोस्त को सामने पाकर उसके मन की बात बाहर आ गई। “ पता नहीं यार , मैं कैसी किस्मत ले कर पैदा हुआ हूं, बचपन में ही पिताजी चल बसे, वो तो आर्थिक तंगी महसूस नहीं हुई, क्यूंकि दादा जी और ताऊ जी ने साथ दिया। “।
“ तुझे तो सब पता ही है, बचपन से हम इकटठे् ही रहे हैं। बड़े भाई ने तो पुशतैनी काम संभाल लिया, मुझे भी कहा लेकिन मेरी बिजनेस में कोई दिलचस्पी नहीं थी, मैं नौकरी करना चाहता था, लेकिन पता नहीं क्यों , तकदीर ने कभी मेरा साथ नहीं दिया”।
कुछ रूक कर फिर बोला” मुझे तुझसे कोई जलन नहीं, आज तूं सरकारी बैंक में मैनेजर है और मैं अब तक पांच प्राईवेट नौकरियां बदल चुका हूं, सरकारी तो मिली नहीं,मेरी तो तकदीर ही फूटी हुई है”।
थोड़ी देर बैठकर और उसे हौंसला देते हुए जशन उठ कर चला गया। जब वो घर में अकेला बैठा था तो उसे रोशन की बातें याद आई। उसे रोशन से पूरी हमदर्दी थी।लेकिन उसकी आदतें भी उसे याद थी। बचपन में जब वो इकट्ठे स्कूल जाते तो रोशन अक्सर ही लेट हो जाता। टीचर उसे क्लास के बाहर ही खड़ा कर देते। उसकी साईकल ज्यादातर खराब ही रहती,
आलसी इतना कि दो तीन दिन ठीक ही न करवाता तो उसकी साईकिल के पीछे बैठकर आता। पास पास घर थे तो जब जशन उसके घर के बाहर से उसे आवाज लगाता तो आते आते वो उसे भी लेट करवा देता, दरअसल वो देर तक सोया रहता, फिर भाग भाग कर तैयार होता, बहुत बार तो नहा कर भी न आता।
उसकी मां भी बहुत परेशान रहती , कई बार बना बनाया लंच बाक्स भी उठाना भूल जाता। उसकी ममी उसे देने स्कूल तक आती। दिमाग तो तेज था, लेकिन पढ़ाई के लिए समय भी तो निकालना पड़ता है।
दसवीं में एक बार फेल ही हो गया। दूसरी बार भी कम नंबर आए। दोस्त तो वो थे, लेकिन अब क्लास एक नहीं रही। जशन मेहनती, होशियार, और समय मुताबिक सारे काम करता। रोशन भी किसी तरह कालिज तक पहुचं गया। यहां भी एक साल खराब हो गया। दरअसल उसका एक्सीडैंट हो गया , लापरवाह तो वो था ही। पैपर नहीं दे पाया।
किस्मत को कोसना जैसे उसकी आदत में शुमार हो चुका था। बी. काम. तो हो गई लेकिन अंक कम आए। जशन ने एम़ काम . भी पूरी कर ली, बैंकिग की तैयारी की तो सिलैक्शन भी हो गई।
फिर तो उसने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। रोशन के भाई और ताऊ ने बहुत जोर लगाया कि वो बिजनैस में ही हाथ बंटा दे, लेकिन उसे तो नौकरी करनी थी। दादा जी तो अब रहे नहीं थे। दरअसल उनकी आटे, तेल, मसालों वगैरह की चक्की थी, जो कि बहुत अच्छी चलती थी, लेकिन रोशन को तो बाबूगिरी पंसद थी।
आगे पढ़ाई की कोशिश तो की, लेकिन कहीं सफलता नहीं मिली , हां कुछ कम्यूटर का काम सीख लिया तो प्राईवेट फर्मों में नौकरी मिल तो जाती पर वो टिक न पाता। इसी बीच दोनों भाईयों की शादी भी हो गई। वो तो जशन का भाई बहुत अच्छे स्वभाव का था जो एडजस्ट कर रहा था। चक्की का काम बहुत बढ़िया था,
साथ लगती दुकान खरीद ली थी तो राशन का काम भी शुरू हो गया था। अब ताया जी का बेटा भी साथ ही बैठता। ताया जी की उम्र हो गई थी तो कभी कभी चक्कर लगा जाते। भाई के परिवार को उन्होंने पूरा सहारा दिया। सब ठीक चल रहा था लेकिन जशन की चिंता सबको रहती।
अब तो परिवार भी हो गया। पत्नी भी समझाती लेकिन रोशन समझे तब ना। इसी बीच जशन की भी शादी हो गई, बेटा हो गया और प्रमोशन होने के साथ साथ ट्रांसफर भी हो गई। जशन के भाई ने उसकी कम्पयूटर में रूचि देखते हुए अपना कम्पयूटर सैंटर खोल कर दे दिया। तीन साल होने को आए, बड़ी मुशकिल से खर्च निकलता।
रोशन की निराशा और बढ़ गई जब उसकी पत्नी ने दो जुड़वा बेटियों को जन्म दिया। इसी बीच एक बार फिर रोशन जश्न की मुलाकात हुई। वही शिकायतों की पोटली, तकदीर का रोना।
जशन ने एक बार फिर उसे समझाने की कोशिश करते हुए कहा “ मेरे भाई , माना कि तकदीर होती है लेकिन मेहनत, अनुशासन, कर्मठता और लगन ये सब हो तो सफलता निशचित है।कुदरत हर इन्सान का पहला और आखरी पन्ना लिख कर भेजती है, बीच के खाली पन्ने खुद से लिखने पड़ते है। रूकावटें, मुशकलें,
चुनौतियां तो आती ही रहती है , लेकिन तकदीर को कोसने की बजाए, हल खोजना होगा और जरूरी नहीं कि सब हमारी मर्जी का ही हो, और अगर तुम तकदीर को इतना ही मानते हो तो जिस राह पर चल रहे हो, उसे बदल कर देखो, शायद मजिंल वहां तुम्हारी राह देख रही हो”।
समय बीतता रहा, बीच में जशन के तबादले होते रहे, आपस में बात लगभग ना के बराबर ही हुई, वैसे भी कहने सुनने को था भी क्या, सब अपनी अपनी गृहस्थी में उलझ कर रह गए। कुछ सालों बाद जशन बच्चों की छुट्टियों में परिवार से मिलने आया हुआ था तो बाजार घूमने निकल पड़ा। कुछ सामान लेने के लिए दुकान पर रूका तो देखा वहां मालिक की कुर्सी पर रोशन बैठा हुआ था। दोनों दोस्तों के चेहरे खिल उठे। बातचीत करने पर पता चला कि जब जश्न और रोशन की कुछ साल पहले आखिरी मुलाकात हुई थी तब उसने उसकी बात पर गौर किया और किस्मत आजमाने के लिए पुशतैनी काम सभांलने का ही फैसला किया। कुछ दिक्कतें तो आई पर फिर सब ठीक होता चला गया।
अब वो समझ गया था कि अगर तकदीर फूटने जैसा शब्द डिक्शनरी में है तो तकदीर बदलने या सवांरने जैसा भी होगा। पापा की असमय मृत्यु , एक्सीडैंट होना जैसी घटनाएं अपने बस में नहीं। माना कि सब कुछ इन्सान के हाथ में नहीं लेकिन बहुत कुछ है भी ,अगर मेहनत और लगन हो तो। जिन बच्चियों के जन्म पर वो उदास हो गया था वो तो उसकी तकदीर बन कर आई और सब ठीक होता चला गया। अब उसे कोई गिला नहीं अपनी तकदीर से। और दोनों दोस्तों ने फिर मिलने के वायदे के
साथ विदा ली।
विमला गुगलानी
चंडीगढ़