सांवला रंग और दोहरे हाड़ काठ की प्रमिला काकी जब तन कर चलती तो लोगों को उनके स्त्री कम पुरूष होने का आभास अधिक हुआ करता…
तीन बेटियां और दो बेटे होने के दंभ के साथ वो जब रास्ते में निकलती तो…
अनायास हीं मुहल्ले की स्त्रियां ईर्ष्या से भर उठती…
प्रमिला काकी की बेटियां इतनी सुघड़ और मातृभक्त थीं कि, मां को रानी बना कर रखतीं…
घर का सारा काम काज तो वो समय से पूरा करती हीं थीं….
मां का भरपूर ध्यान भी रखा करती थीं…
प्रमिला काकी केवल शारीरिक रुप से हीं पुरूषों जैसी नहीं थीं बल्कि वो घर के पुरूषों से कंधे से कंधा मिलाकर हर कठिन से कठिन कार्य भी किया करती थीं….
घर में वैसे तो उनका हीं राज चलता था मगर प्रमिला काकी ने कभी भी अपने इस आनंद को अपनी पांवों की बेड़ियां नहीं बनने दिया…
वो हर उस कार्य को बड़ी हीं सहजता से किया करती थीं।
पुरूषों के दालान में बैठकर बड़े बड़े फैसले लेने हों या खेती-बाड़ी का कोई मुश्किल काम…
प्रमिला काकी हर कार्य को बड़ी हीं दक्षता से किया करतीं….
समय अपनी रफ्तार से चलता रहा….
प्रमिला काकी ने दो बेटियों के साथ पीले कर के ससुराल भेज दिया….
अब बड़े बेटे का विवाह संपन्न कर के फिर छोटी बेटी का विवाह करने का निर्णय प्रमिला काकी ने जब घर में रखा तो सबने उसका विरोध किया मगर प्रमिला काकी अपने जिद पर अड़ी रही…
आखिरकार प्रमिला काकी की बात हीं घर में मानी गई और बड़े बेटे का विवाह हो गया….
प्रमिला काकी का ये फैसला शायद उनके जीवन का सबसे गलत फैसला साबित हुआ…
जिस घर आंगन में खुशियां लोटपोट होती रहती थीं उस आंगन में अब क्लेश और कलह ने अपना घर बना लिया…
जो प्रमिला काकी बेटियों के दम पर रानी बन कर रहा करती थी उस घर में बहू के आते हीं सब-कुछ बदल गया….
प्रमिला काकी और उनकी छोटी बेटी बहू के हाथों की कठपुतली बनकर रह गये…
ना चैन बचा ना सुकून…..
झाड़ू लगाना घर को गोबर से लीपना, चूल्हा चौका साफ करना, ईंधन की व्यवस्था करना सब-कुछ करने के बाद भी बहू दो वक्त का भोजन बना कर नहीं खिलाती….
बेटा जब मां और बहन की तरफदारी करता तो बहू शरीर पेट्रोल लगा कर जलने की धमकी देने लगती…
घर की शांति बनाएं रखने के लिए प्रमिला काकी ने मौन धारण कर हर दुःख दर्द को स्वीकार कर लिया…..
क्लेश की धूप में सुख के सुमन मुरझा गए…
प्रमिला काकी का घर अब घर नहीं एक मौन अखाड़ा बन कर रह गया…
जहां प्रेम और सम्मान का कहीं कोई नामोनिशान नहीं रह गया….
समय के साथ बहू ने दो बच्चों को जन्म दिया….
प्रमिला काकी ने सोचा कि, शायद बच्चों के आ जाने से घर का माहौल सुधर जाए मगर उनकी सोच पर तब पानी फिर गया…
बहू अपना सारा क्रोध सारी कुंठा बच्चों पर निकाला करती..
प्रमिला काकी बच्चों की ये दुर्गति देख हर दिन घुट-घुट कर मरने लगी….
इस बीच छोटे बेटे की बहुरिया भी आ गई।
कहते हैं कि खरबूजा खरबूजे को देख कर रंग बदलता है वैसे हीं नयी बहू शुरू में तो ठीक रही परंतु जेठानी का रवैया देख वो भी उसी रास्ते पर चल पड़ी….
ढलती उम्र, घरेलू क्लेश, और पत्नी की दुर्गति देख काका हृदयाघात से चल बसे…
पीछे प्रमिला काकी वैधव्य की अथाह पीड़ा में गोते लगाती अपने जीवन के एक एक दिन पहाड़ सा काटने लगी…
बड़ी बहू को ना तो सुधरना था और ना हीं सुधरी…
छोटी बहू को आए हुए पांच वर्ष हो गए मगर वंश वृद्धि ना कर पाने के कारण वो भी अक्सर जेठानी के व्यंग और तानों से छलनी होती रहती..
परंतु वृद्धा सास के लिए उसके भी हृदय में तनिक भी मोह न था…
ईश्वर ने उसे संतान विहिन क्या बनाया उसके हृदय की ममता रुपी नदी भी सुख गई….
कभी पूरे घर की मालकिन और बेटे-बेटियों समेत पति के हृदय की महारानी प्रमिला काकी बहूओं के हाथों की कठपुतली बनकर रह गई…
लोक लाज के भय से वो घर छोड़ कर बेटियों के घर भी नहीं जा सकती थी…
हद तो तब हो गई जब प्रमिला काकी को लकवा मार गया मगर फिर भी बहूओं ने आपसी होड़ के कारण उन्हें तड़पता छोड़ दिया..
कहते हैं कि स्त्री दया की मूरत होती है मगर इन्हें तो दया छू भी ना सकी थी….
प्रमिला काकी को बहूओं से कभी शिकायत ना रही शिकायत तो उन बेटों से रही जिन्हें अपना लहू पिलाकर पाला था…
उन्होंने मुंह से तो कभी कुछ नहीं कहा मगर उनका लकवाग्रस्त एक एक अंग चीख-चीख कर कह रहा था कि,
मेरी आत्मा को तकलीफ देकर तू कभी सुखी नहीं रह सकती…..सांवला रंग और दोहरे हाड़ काठ की प्रमिला काकी जब तन कर चलती तो लोगों को उनके स्त्री कम पुरूष होने का आभास अधिक हुआ करता…
तीन बेटियां और दो बेटे होने के दंभ के साथ वो जब रास्ते में निकलती तो…
अनायास हीं मुहल्ले की स्त्रियां ईर्ष्या से भर उठती…
प्रमिला काकी की बेटियां इतनी सुघड़ और मातृभक्त थीं कि, मां को रानी बना कर रखतीं…
घर का सारा काम काज तो वो समय से पूरा करती हीं थीं….
मां का भरपूर ध्यान भी रखा करती थीं…
प्रमिला काकी केवल शारीरिक रुप से हीं पुरूषों जैसी नहीं थीं बल्कि वो घर के पुरूषों से कंधे से कंधा मिलाकर हर कठिन से कठिन कार्य भी किया करती थीं….
घर में वैसे तो उनका हीं राज चलता था मगर प्रमिला काकी ने कभी भी अपने इस आनंद को अपनी पांवों की बेड़ियां नहीं बनने दिया…
वो हर उस कार्य को बड़ी हीं सहजता से किया करती थीं।
पुरूषों के दालान में बैठकर बड़े बड़े फैसले लेने हों या खेती-बाड़ी का कोई मुश्किल काम…
प्रमिला काकी हर कार्य को बड़ी हीं दक्षता से किया करतीं….
समय अपनी रफ्तार से चलता रहा….
प्रमिला काकी ने दो बेटियों के साथ पीले कर के ससुराल भेज दिया….
अब बड़े बेटे का विवाह संपन्न कर के फिर छोटी बेटी का विवाह करने का निर्णय प्रमिला काकी ने जब घर में रखा तो सबने उसका विरोध किया मगर प्रमिला काकी अपने जिद पर अड़ी रही…
आखिरकार प्रमिला काकी की बात हीं घर में मानी गई और बड़े बेटे का विवाह हो गया….
प्रमिला काकी का ये फैसला शायद उनके जीवन का सबसे गलत फैसला साबित हुआ…
जिस घर आंगन में खुशियां लोटपोट होती रहती थीं उस आंगन में अब क्लेश और कलह ने अपना घर बना लिया…
जो प्रमिला काकी बेटियों के दम पर रानी बन कर रहा करती थी उस घर में बहू के आते हीं सब-कुछ बदल गया….
प्रमिला काकी और उनकी छोटी बेटी बहू के हाथों की कठपुतली बनकर रह गये…
ना चैन बचा ना सुकून…..
झाड़ू लगाना घर को गोबर से लीपना, चूल्हा चौका साफ करना, ईंधन की व्यवस्था करना सब-कुछ करने के बाद भी बहू दो वक्त का भोजन बना कर नहीं खिलाती….
बेटा जब मां और बहन की तरफदारी करता तो बहू शरीर पेट्रोल लगा कर जलने की धमकी देने लगती…
घर की शांति बनाएं रखने के लिए प्रमिला काकी ने मौन धारण कर हर दुःख दर्द को स्वीकार कर लिया…..
क्लेश की धूप में सुख के सुमन मुरझा गए…
प्रमिला काकी का घर अब घर नहीं एक मौन अखाड़ा बन कर रह गया…
जहां प्रेम और सम्मान का कहीं कोई नामोनिशान नहीं रह गया….
समय के साथ बहू ने दो बच्चों को जन्म दिया….
प्रमिला काकी ने सोचा कि, शायद बच्चों के आ जाने से घर का माहौल सुधर जाए मगर उनकी सोच पर तब पानी फिर गया…
बहू अपना सारा क्रोध सारी कुंठा बच्चों पर निकाला करती..
प्रमिला काकी बच्चों की ये दुर्गति देख हर दिन घुट-घुट कर मरने लगी….
इस बीच छोटे बेटे की बहुरिया भी आ गई।
कहते हैं कि खरबूजा खरबूजे को देख कर रंग बदलता है वैसे हीं नयी बहू शुरू में तो ठीक रही परंतु जेठानी का रवैया देख वो भी उसी रास्ते पर चल पड़ी….
ढलती उम्र, घरेलू क्लेश, और पत्नी की दुर्गति देख काका हृदयाघात से चल बसे…
पीछे प्रमिला काकी वैधव्य की अथाह पीड़ा में गोते लगाती अपने जीवन के एक एक दिन पहाड़ सा काटने लगी…
बड़ी बहू को ना तो सुधरना था और ना हीं सुधरी…
छोटी बहू को आए हुए पांच वर्ष हो गए मगर वंश वृद्धि ना कर पाने के कारण वो भी अक्सर जेठानी के व्यंग और तानों से छलनी होती रहती..
परंतु वृद्धा सास के लिए उसके भी हृदय में तनिक भी मोह न था…
ईश्वर ने उसे संतान विहिन क्या बनाया उसके हृदय की ममता रुपी नदी भी सुख गई….
कभी पूरे घर की मालकिन और बेटे-बेटियों समेत पति के हृदय की महारानी प्रमिला काकी बहूओं के हाथों की कठपुतली बनकर रह गई…
लोक लाज के भय से वो घर छोड़ कर बेटियों के घर भी नहीं जा सकती थी…
हद तो तब हो गई जब प्रमिला काकी को लकवा मार गया मगर फिर भी बहूओं ने आपसी होड़ के कारण उन्हें तड़पता छोड़ दिया..
कहते हैं कि स्त्री दया की मूरत होती है मगर इन्हें तो दया छू भी ना सकी थी….
प्रमिला काकी को बहूओं से कभी शिकायत ना रही शिकायत तो उन बेटों से रही जिन्हें अपना लहू पिलाकर पाला था…
उन्होंने मुंह से तो कभी कुछ नहीं कहा मगर उनका लकवाग्रस्त एक एक अंग चीख-चीख कर कह रहा था कि,
मेरी आत्मा को तकलीफ देकर तू कभी सुखी नहीं रह सकती…..
डोली पाठक
पटना बिहार