“ये मेरे अपने हैं”  – डॉ .अनुपमा श्रीवास्तवा

छोड़ दीजिये उनको ! उनका सही इलाज हो रहा है। जैसी करनी वैसी भरनी !

आकाश ,बेटा ऐसे क्यों बोले तुम?

  वह गैर थोड़े ही है जैसे भी हैं तुम्हारे चाचा हैं।रिस्तों का लिहाज मत भूलो बेटा ! 

आकाश अपनी भौ टेढ़ी करते हुए बोला-”  पता नहीं आप किस मिट्टी की बनी हुई हैं। जितना हो सकता था उतना बेइज्जत किया उन्होंने आपका सब कैसे भूल गई आप !”

माँ घबड़ाते हुए बोली-“देखो अभी यह सब फिजूल की बातों का समय नहीं है चलो मेरे साथ बुरे वक्त में अपने ही अपनों के काम आते हैं।”

“बूरा वक्त!!”

“माँ आपसे भी बूरा वक्त किसी का हुआ था क्या! बताईये जरा मुझे ।उस समय तो उन्होंने हमें अपना नहीं समझा था।”

“आकाश, बेटा क्या जरुरी है कि कोई हमारे साथ गलत करे तो हम भी उसके साथ वैसा ही वर्ताव करें। कुछ तो अन्तर होना चाहिये न अच्छे और बुरे विचार में। “

तुम चलो मेरे साथ। आकाश ने अपनी नई नवेली कार गैराज से निकाली जो उसने इस धनतेरस पर लिया था । माँ को बिठाया और चल पड़ा अपने पिता के गाँव। जिसे वह पांच साल के उम्र में छोड़ गया था।  दो घंटे सफर तय करने के बाद वह गाँव के पास आकर बोला -” माँ रास्ता बताना मुझे अच्छे से याद नहीं है।”



बेचारी माँ को भी कहां याद था। उनकी आँखें आंसुओं से भरी हुई थी। बचपन से वह यही सुनते आयी थीं कि ससुराल से अंतिम विदाई  अर्थी पर ही होती है लेकिन वक्त ने उसे विधवा बनाकर घर से बाहर निकाल दिया। दुल्हन बनकर आयी थी शादी के समय पति के साथ जीप पर बैठकर। लंबा सा घूंघट दोनों हाथों से संभालती हुई छुई -मूई सी। रास्ता का ध्यान कहां था। हाँ इतना याद था कि गाँव में घुसने से पहले एक बड़ा सा पीपल का पेड़ था। पता नहीं इतने दिनों बाद वह पेड़ होगा या नहीं। फिर भी पूरे विश्वास के साथ बोली ठीक है मैं बता दूँगी तुम चलो तो सही ।

दो घंटे तक कार सड़कों पर सरपट दौड़ती रही उसके बाद दोनों माँ -बेटे गाँव के नजदीक पहुंचे। आकाश खुद- बखुद बोल उठा माँ लगता है हम अपने डेस्टीनेशन के समीप हैं। जन्म-धरती था उसका ध्यान कैसे नहीं आता उसे माँ ने हाँ में अपना सिर हिलाया।

गाँव के उबर- खाबड़ रास्ते में कार के हिचकोले माँ की यादों के दर्द को जोर -जोर से हिलाकर ताजा करने लगी थी। बाइस साल पहले ब्याह के बाद पति के साथ बिदा होकर वह इसी तरह हिचकोले खाते गाँव आई थीं । शहर में पली बढ़ी कभी सोचा भी नहीं था कि वह गाँव जाएगी। पर भाग्य ने गाँव भी दिखा दिया। पिताजी को पति और उनके परिवार की समृद्धि ऐसा भाया कि चट मंगनी कर दिया था और देखते-देखते ब्याह भी हो गया। लेकिन क्या फर्क पड़ता है कि शहर है या गाँव जब प्यार करने वाला साथ हो। माँ को ससुराल में सभी का प्यार मिला। उनका व्यवहार ही ऐसा था जिसने सब का दिल जीत लिया था।

सब कुछ बहुत अच्छा था पर शायद अनहोनी की नजर जिंदगी को लग चुकी थी।  वक्त ऐसा करवट लेगा  किसे पता था। असमय काल ने पति को निगल लिया। सतरंगी चादर सी जिंदगी एकाएक स्याह हो गई। इस आंधी ने बेचारी  माँ की सारी खुशियों को  तहस- नहस कर दिया।



परिवार में अब तक जहां प्यार बरसाये जाते थे वहां अब लांछनों का बौछार होने लगा। पति के गुजरते ही वह दूध की मक्खी बन गईं। सुबह की शुरुआत तानों से शुरू होती और शाम होते- होते कोई न कोई घर से चले जाने का सुझाव पेश कर देता। बेचारी की आँचल का कोर हमेशा आंसू पोंछने के लिए तैयार रहता था। नन्हा सा पाँच साल का आकाश जब अपने नन्हे हाथों से आंसू पोछता तो वह उसे अपने कलेजे से लिपटा लेतीं। वह पूछ बैठता माँ पिताजी कहां चले गए? उसके इस प्रश्न पर वह अपना धर्य खो देती और फूट -फूटकर रोने लगतीं।

जैसे- तैसे वक्त गुजर रहा था कि बेटे के गम में सास चल बसी। सास के बाद ससुर जी भी स्वर्गवासी हो गये। उनलोगों के बाद घर के मालिक दोनों देवर हो गए। उनका शासन सास ससुर से भी ज्यादा सख्त था। ननद बड़ी थीं उन्होंने और उनके पति ने सबको समझाने की कोशिश की पर सब बेकार ।माँ घर से चली जाए इसके लिए नित नया साजिश रचाया जाता।  कामयाबी नहीं मिली तो देवर ने अपनी पत्नी के जेवर चुराने का इल्जाम माँ पर लगा दिया जिसको माँ सहन नहीं कर पायी और आधी रात को नन्हे आकाश को कलेजे से लगाये ससुराल की देहरी छोड़ अनजाने गाँव के बाहर निकल गई। वह तो भला हो उस भले मानस जिसने उसे सही बस पर बिठा दिया जिससे वह अपने मायके पहुंच गई। उसके बाद किसी ने उनलोगों की कोई खोज खबर नहीं ली। सालों बीत गए। ना किसी खुशी में पूछा गया और ना गम में।

“माँ सामने वाला ही घर है ना?”

“माँ…माँ..ओ हो कहां खो गई आप। झटके से कार को रोकते हुए आकाश ने कहा।”

घर के बाहर काफी लोग जमा थे। दो दिन तक इनके बेटे का इंतजार किया गया जब वह नहीं आया तो   माँ को फोन किया गया था।



सबके मूंह से एक ही बात निकल रही थी-”  बड़की बहुरिया कैसे आ गईं उन्हें तो अपमानित कर के घर से निकलने पर मजबूर किया गया था।”

दोनों माँ बेटा गाड़ी से उतरकर घर के अंदर गये। चाचा की सांसे चल रही थीं। पूरा शरीर पारालाईज हो चुका था। माँ ने इशारे से कुछ कहा बेटे ने बिना कुछ पूछे दो लोगों की मदद से चाचा को गाड़ी में चढ़ाया और शहर के बड़े हॉस्पीटल की तरफ चल पड़ा।

आज एक सप्ताह हो चुके हैं। चाचा खतरे से बाहर हैं। होश में आने के बाद उनकी आँखें अपने बेटे को तलाश रही हैं पर वह छुट्टी का बहाना कर नहीं आया है।  चाचा को  आश्चर्य है कि बेटा नहीं आया तो उन्हें हॉस्पीटल कौन लाया। माँ खाना लेकर पहुंच गई है ।माँ को देखते ही डॉक्टर ने कहा अब ये खुद से कुछ नहीं कर पाएंगे। इनको एक सहारे की जरूरत होगी। कौन -कौन है इनके परिवार में? किसी अपने को बुला लीजिये। 

सुनते ही चाचा की आंखों से आंसुओं की धारा बह चली ।अब कौन देखेगा। किसके सहारे जियेंगे वह



पत्नी दो साल पहले गुजर गई और जिस बेटे के लिए उन्होंने भतीजे को घर से बाहर किया वह बेटा देखने तक नहीं आया। माँ पर नजर पड़ते ही शर्मिंदगी से अपनी आखें झुका ली।  माँ ने आगे बढ़कर बोला-” डॉक्टर साहब मैं इनकी देखभाल करूंगी ये मेरे अपने ही हैं। “

स्वरचित एवं मौलिक

डॉ .अनुपमा श्रीवास्तवा

मुजफ्फरपुर ,बिहार 

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