यात्रा-पथ – नरेश वर्मा

कर्नाटक एक्सप्रेस एक ही लय-ताल से भाग रही थी ।सामने फैले हुए मैदान, वृक्ष, ताल-तलैया सब भाग रहे थे ।खिड़की के पास बैठा वह ,इस भागते दृश्य को निर्लिप्त भाव से देख रहा था ।कहीं कुछ नहीं भाग रहा ,यह दृष्टि-भ्रम मात्र है ।यदि कोई भाग रहा है तो वह स्वयं ।क्यों भाग रहा है वह ,स्वयं अपने आप से।

 ट्रेन किसी छोटे स्टेशन को पीछे छोड़ रही है ।स्टेशन का फैला हुआ सुनसान प्लेटफ़ॉर्म, उस पर टहलता हुआ एक मरियल कुत्ता, बेंच पर बैठा एक साधु , केविन से झंडी हिलाता एक हाथ ।यह इस छोटे स्टेशन का संसार है जिसे यह सुपर-फ़ास्ट ट्रेन तेज़ी से पीछे छोड़ रही है ।क्या वह भी ट्रेन की तरह अपने उस छोटे से स्टेशन को नहीं छोड़ आया है ?

  देहली से ५० किलोमीटर दूर एक छोटा सा क़स्बा था ।उसी क़स्बे की एक गली में , वह एक कमरे में किराए पर रहता था ।मकान मालिक थपलियाल जी के यहाँ ही वह पेइंग-गेस्ट था ।उस क़स्बे में पेइंग-गेस्ट का कोई चलन तो नहीं था किंतु थपलियाल जी एवं उनकी पत्नी का उसके प्रति पुत्र-वत स्नेह था ।अत: उनके आग्रह पर भोजन-नाश्ते की व्यवस्था भी उसी घर से थी ।घर से कुछ ही  दूर गुरू नानक इंटर कॉलेज था , जिसमें पिछले एक साल से वह इंगलिश टीचर था।

 ट्रेन एक पुल से गुजर रही है…….खट-डम-खट-डम-खट-डम ….।पुल के खंभों के पास थोड़ा जल जमा है अन्यथा नदी दूर तक सूखा रेतीला मैदान नज़र आ रही है ।उसके मन में भी नदी का सूनापन घिर आया था ।वह ट्रेन की खिड़की बंद कर बर्थ पर लेट जाता है ।मन में विचारों की ट्रेन चलने लगती है ।उसका पिछला एक साल ………..?

 गुरू नानक इंटर कॉलेज में उसने नया-नया ज्वाइन किया था ।स्कूल में उसका तीसरा दिन था ।वह स्टाफ़ रूम में अपनी कक्षा के लिए नोट्स तैयार कर रहा था ।उसी समय २४-२५ वर्ष की युवती ने प्रवेश किया था ।हल्का गेहुँआ रंग ,आकर्षक छवि ,सुडौल काया।वर्मा ने परिचय करवाया-“ नवीन जी इनसे मिलिये यह हैं मिस श्वेता माथुर, हमारे स्कूल की विज्ञान शिक्षिका ।पिछले हफ़्ते छुट्टी पर थीं।” श्वेता ने एक हल्की मुस्कान के साथ परिचय की स्वीकारोक्ति में सिर हिलाया था ।  धीरे-धीरे वह स्कूल के क़स्बाई माहौल में अपने को ढाल रहा था ।आरंभ में तो उसका मन ही नहीं लगा।स्कूल में अध्यापकों के आपसी प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण से वह स्वयं का सामंजस्य नहीं बिठा पा रहा था ।स्टाफ़ रूम में वार्ता के मुख्य विषय थे कि शर्मा जी के पास कितने ट्यूशन हैं और वर्मा कैसे उनके ट्यूशनों को फोड़ने में प्रयासरत है ।मिसेज़ अवस्थी कैसे अपने यौवन की ढलती इमारत को अतिरिक्त बनाव-श्रंगार की सीमेंट से रोकने में प्रयत्नशील हैं ।हिन्दी टीचर नारंग और मिस अर्चना में कैसी छन रही है…आदि

               हरि अनंत हरि कथा अनंता ।

                कहहि सुनहि बहुविधि सब संता।।

इन सब वार्ताओं के बीच उसने कहा था कि उसे पर-निंदा चर्चा में कोई रस नहीं आता ।इस पर नारंग ने फ़िकरा कसा था-“ भइया शुरू-शुरू में दारू ज़्यादा कड़वी लगती है, पर बाद में यही कड़वाहट मज़ा बन जाती है ।अभी नये-नये हो ,पक जाओगे तो रस भी आने लगेगा।”



नवंबर का महीना आ गया था ।गली-मोहल्ले में गूंजती पटाखों की आवाज़ अहसास करा रही थी कि दीपावली पास है ।वातावरण में त्योहारी रंग की उमंग का अहसास छाने लगा था ।नौकरी लगने के बाद पहली बार छुट्टियों में घर जायेगा ।भैया-भाभी ,बच्चों के लिए उपहार भी ख़रीदने हैं ।आज उसे रह रह कर माँ की याद आ रही है ।जब वह बी.ए में था तो माँ का देहान्त हो गया था ।पिताजी का स्वर्गवास तो माँ से भी कई वर्ष पहले हो गया था ।माँ के स्वर्गवास के बाद उसके प्रति भाभी का तिरस्कार एवं उपेक्षा का व्यवहार उसे कचोट जाता था ।किंतु अब वह , यह सब भुला देना चाहता है ।

 “नवीन जी किसके ख़्यालों में खोए हो ।”-नारंग की आवाज़ से यादों का क्रम टूट गया था ।ठीक उसी समय श्वेता माथुर ने स्टाफ़ रूम में प्रवेश किया था ।निर्विकार भाव से हम दोनों की उपस्थिति पर कोई ध्यान दिए बिना, उसने अपना निजी लॉकर खोला और कोई पुस्तक निकाल, वापिस चली गई ।

उसे श्वेता का यह उपेक्षा पूर्ण व्यवहार अच्छा नहीं लगा था ।इस पर उसने नारंग से कहा था कि श्वेता न तो स्टाफ़ रूम में बैठती है और न ही साथी अध्यापकों से ज़्यादा बात करती है ।इस पर नारंग ने कहा था-“ भाईजान , जब प्रिंसिपल के कमरे की गद्दीदार कुर्सियाँ सेंकने से फ़ुर्सत मिले तब ही न वह यहाँ बैठेगी।” पुनः नारंग ने फुसफुसाते हुए राज़दाराना अंदाज़ में कहा-“ चपरासी रामदीन कह रहा था कि कई बार तो जब दोनों अंदर थे तो प्रिंसिपल के कमरे का दरवाज़ा भी बंद था……बंद कमरे में पता नहीं क्या क्या खुलता है…।

 यह सब सुनते उसका चेहरा तमतमा गया था ।उसने आवेश में लगभग चीखते हुए, नारंग की बात काटते कहा-“ बंद कीजिए यह बकवास , किसी के चरित्र पर लांछन लगाते आपको शर्म आनी चाहिए ।

नारंग , नवीन के तमतमाए चेहरे को देखकर पहले तो सकपकाया फिर चुटीले अंदाज़ में बोला-“ क्यूँ , बहुत बुरी लगी ? तेरी क्या कोई लगती है जो इतना भड़क रहा है ।”

“मेरी कोई लगती है या नहीं, किंतु मैं किसी भी स्त्री के प्रति ऐसी-वैसी बात सहन नहीं कर सकता ।”-उसने आवेश में कहा था ।

“ सच्ची बात कह दी तो ऐसी-वैसी बात हो गई।जाकर पूछ उससे दिल्ली के किसी अस्पताल में चुपचाप एक महीने रह कर कौन सा इलाज करवाया था उसने।”

“ बस अब एक भी लफ़्ज़ आगे कहा तो अच्छा न होगा “-नवीन ने तैश में कहा।

“ क्या कर लेगा तू ,जो कहूँगा ढोल बजा के कहूँगा ।”

   बात तू-तड़ाक से बढ़कर हाथापाई की स्टेज तक पहुँच रही थी ।शोर सुनकर चपरासी , कुछ अध्यापक , कुछ विद्यार्थी स्टाफ़ रूम के बाहर एकत्रित हो गए थे ।एक हंगामा सा मच गया था।जिस अध्यापिका की चर्चा थी उसकी अनुपस्थिति में लोग ,भिड़ते दो अध्यापकों की भिड़ंत का मज़ा ले रहे थे ।

 स्कूल के एकरस माहौल में चर्चा के लिए चटपटा मसालेदार एपिसोड तैयार हो गया था ।किंतु अगले दिन से पड़ने वाली   दीपावली की छुट्टियों ने बतरस की चटपटी चाट को बासी कर दिया था ।चलो जान बची सो लाखों पाए की सोच को लेकर नवीन अगले दिन अपने घर दिल्ली चला गया था ।

  घर से लौटने के बाद उसने अपने आप को एकाकी सा कर लिया था ।उसने स्टाफ़ रूम में बैठना बंद कर दिया था ।ख़ाली पीरियड में लाइब्रेरी या लॉन की गुनगुनी धूप उसके आशियाना थे।वह श्वेता को देखता तो बच कर निकल जाता था ।

 एक दिन जब वह लाइब्रेरी में बैठा था तो अचानक श्वेता ने लाइब्रेरी में प्रवेश किया ।उसने बच कर निकल जाना चाहा ,किंतु श्वेता की आवाज़ ने उसका प्रयास निष्फल कर दिया था ।उसके पैर थम गए थे, दिल की धड़कन तेज हो गई थी ।श्वेता ने आवेशयुक्त किंतु धीमी आवाज़ में कहा-“ मिस्टर नवीन, क्या मैं पूछ सकती हूँ कि उस दिन आपको मेरा तमाशा बनाकर क्या मिला  ? “

 “ श्वेता जी , किसी के व्यक्तिगत मामलों का तमाशा बनाने में मुझे कोई रुचि नहीं रही है ।उस दिन की घटना में मेरा अपराध बस इतना मात्र था कि नारंग द्वारा आपके बारे में की गई अशोभनीय टिप्पणियों से मैं अपना संतुलन खो बैठा।इस सब के लिए मैं कम आहत नहीं हुआ था, फिर भी जो कुछ हुआ उसके लिए मैं शर्मिंदा हूँ ।अनजाने में जो आपका अपमान हुआ उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ ।” क्षमा माँगने के बाद वह स्वयं को काफ़ी हल्का महसूस कर रहा था ।



  किंतु क्या इस घटना में वह पूरी तौर से निर्दोष था  ? घटना के मूल में थी जिज्ञासा ।किसी व्यक्ति-विशेष के विषय में जानने की जिज्ञासा ।श्वेता स्टाफ़ रूम में बैठती है या नहीं बैठती ,यह जानने की जिज्ञासा करना क्या नवीन के लिए उचित था ।

जीवन में कई क्षण आत्म-साक्षात्कार के आते हैं ,जब हमारा विवेक और मन आपने-सामने होते हैं ।इन्हीं आत्ममंथन के क्षणों में जब देर रात तक नींद ,नवीन की पलकों से दूर थी और उसका विवेक प्रश्नों के नश्तर चुभो कर पूछ रहा था कि क्या पहले दिन से ही श्वेता ने तुम्हें आकर्षित नहीं किया था ? क्या यह श्वेता के सानिध्य की चाह नहीं थी जिससे तुम चाहते थे कि वह स्टाफ़ रूम में बैठे ? नारंग की टिप्पणियों से तुम इतना उत्तेजित क्यों हो गए थे ? कहीं यह कोई प्रेम की चिंगारी तो नहीं ?

 दिसंबर का महीना बीत रहा था ।नववर्ष समय के गर्भ से बाहर आने को आतुर था ।स्कूल का वार्षिकोत्सव होना था ।इसी संदर्भ में एक दिन प्रिंसिपल अवस्थी जी ने उसे बुलवाया और कहा-“ मिस्टर नवीन मैंने आपका नाम सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए प्रस्तावित किया है ।इस कार्यक्रम की प्रभारी हैं मिस श्वेता तथा सह प्रभारी आप रहेंगे ।”

स्टाफ़ रूम की घटना के उपरांत अपने प्रति श्वेता की रुष्टता का स्मरण करके वह इस प्रस्ताव से संशय में पड़ गया  ।उसने शंकित भाव से कहा-“ सर आपका प्रस्ताव मेरे लिए आदेश है किंतु क्या यह उचित नहीं होगा कि इस मामले में श्वेता जी की पूर्व सहमति ले ली जाए।”

अवस्थी जी ने मुस्करा कर कहा-“ मि॰ नवीन जब आपके नाम का प्रस्ताव स्वयं श्वेता ने ही किया हो तो पूर्व सहमति का प्रश्न ही कहाँ उठता है ।”

 एक तरफ़ तो उसके प्रति श्वेता की रुष्टता और दूसरी तरफ़ उसके साथ कार्य करने की अभिलाषा? नारी-मन के इस विरोधाभास से वह असमंजस में पड़ गया था ।उसके असमंजस को लक्षित कर अवस्थी जी ने कहा-“ जाइए श्वेता से मिलकर कार्यक्रम की रूपरेखा एवं उसके कार्यान्वित पर विचार- विमर्श कर लीजिए ।”

 स्कूल की छुट्टी के बाद ,शाम तीन बजे से कार्यक्रम में भाग लेने वाले बच्चों को अभ्यास कराया जाने लगा ।पहले दिन जब वह अभ्यास सत्र के लिए गया तो श्वेता की सहज मुस्कराहट से उसका पूर्व-संचित संशय जाता रहा ।नृत्य-नाटिका, एकांकी नाटक , गीत गायन आदि का अभ्यास संचालन जिस दक्षता से श्वेता कर रही थी, उसे देखकर एक दिन नवीन ने कहा कि-“ आप जिस कुशलता से नृत्य, नाटक,संगीत आदि का निर्देशन कर रही हैं उससे ज़रा भी आभास नहीं होता कि आप विज्ञान जैसे शुष्क विषय की अध्यापिका हैं ।”

 श्वेता ने हल्की मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया-“ आपसे किसने कहा कि विज्ञान शुष्क विषय है ।संगीत में ध्वनि है-ध्वनि विज्ञान है ।तानपुरा के तारों में कंपन से स्वर लहरी है- कंपन विज्ञान है ।कॉफी के गर्मागर्म प्याले में आनंदानुभूति है- ताप विज्ञान है ……

 नवीन ने श्वेता की बात काटते किंचित् मुस्कान के साथ कहा-“ आपकी दलीलों को सुनकर तो आभास होता है कि आप कुशल वकील भी हैं ।इन सब के अतिरिक्त और क्या-क्या जानती हैं आप ?”

  “ मैं कॉफी भी बहुत अच्छी बनाती हूँ ।”

  “ जंगल में मोर नाचा किसने देखा ।”

  “मोर का नाच देखना है तो जंगल में जाना होगा ।”

  “ मतलब कॉफी पीनी हो तो आपके घर जाना होगा ।”

 “ घर तो आना ही होगा, किंतु एक शर्त का वादा भी निभाना होगा ।”

  “ यह आप आप का गाना बंद करके तुम पर आना होगा ।”

  “ यह तो सुंदर क़ाफ़िया हो गया ।”- नवीन ने कहा ।



 इस पर दोनों की सम्मिलित हँसी से नवीन के मन के रहे-सहे संशय के बादल भी छँट गए थे ।सहज निर्दोष मुस्कान स्वयं का ताप ही नहीं हरती बल्कि दूसरे को भी शीतल करती है ।

 स्कूल का वार्षिकोत्सव समारोह समाप्त हो चुका था ।इतने दिनों की व्यस्तता के बाद के ख़ालीपन से एक शून्यता सी व्याप्त हो गई थी ।संभवत: नवीन के लिए यह शून्यता किसी के सानिध्य के अभाव का अहसास ही था।उदासी की घनी धुँध की परतों के पार मन में जो पनप रहा था शायद उसी का नाम प्रेम है ।कई दिनों के प्रयास के बाद भी जब श्वेता से मुलाक़ात का अवसर नहीं मिल पाया तो नवीन की छटपटाहट बढ़ती गई ।

 कोहरे की चादर ओढ़े वह जनवरी की ठंडी रात थी।ह्रदय का आवेग इतना बढ़ा कि नवीन अपने कमरे में बैठ नहीं पाया।नींद में चलने की बीमारी से ग्रस्त रोगी की भाँति उसके पैर स्वतः ही उठते जा रहे थे ।संज्ञा-शून्य सा वह चलता जा रहा था……….और अचानक उसने अपने आपको श्वेता के घर के दरवाज़े पर खड़ा पाया।गली निर्जन सुनसान सी सोई पड़ी थी।सफ़ेद कोहरे की घनी धुँध के आग़ोश में डूबे श्वेता के घर के दरवाज़े के सामने वह दीवाना सा खड़ा था ।रात के नौ बज रहे थे पर अहसास होता था कि आधी रात बीत चुकी हो।ठंड के अहसास से उसे अपनी स्थिति का भान हुआ ।इतनी ठंडी रात में सिर्फ़ एक कुर्ता पहने वह एक लड़की के दरवाज़े पर खड़ा क्या कर रहा है ? इस स्थिति में कोई उसे यहाँ खड़ा देखें तो क्या सोचेगा  ? वह उल्टे पाँव ठंड में ठिठुरता हुआ तेज-तेज कदमों से चलता हुआ अपने कमरे में आकर सो गया ।

 अगली सुबह जब वह जागा तो उसका सारा शरीर पीड़ा से टूट रहा था ।उसे तेज़ ज्वर था ।दो दिन बेसुध वह ज्वर से तपता रहा था ।तीसरे दिन ज्वर तो टूट गया था पर दुर्बलता अधिक थी।आज रविवार है, सुबह के दस बज चुके हैं ।उसे लगा कि कोई उसका दरवाज़ा थपथपा रहा है ।उठकर उसने दरवाज़ा खोला….. विस्मय से उसने देखा श्वेता खड़ी है।हर्ष की एक लहर सी दौड़ गई , उसे लगा जैसे प्यासे चकोर के पास चांद स्वयं चलकर आ गया हो।

 “ अंदर आने के लिए नहीं कहोगे या ऐसे ही दरवाज़े पर खड़ा रखोगे ।”- श्वेता ने उलाहना देते कहा ।उसकी विचार-श्रृंखला टूटी-“ सोच रहा हूँ कि अपने इस अव्यवस्थित कमरे में तुमको कहाँ बिठलाऊँ ?”

श्वेता अंदर आकर एक मैली सी कुर्सी पर बैठ गई ।श्वेता ने कमरे का अवलोकन किया ।उसने देखा नवीन का रुग्ण चेहरा, बढ़ी हुई दाड़ी, पपड़ी जमें सूखे होंठ।अव्यवस्थित निवास, रुग्ण निवासी ।उसे इस पुरुष पर ममता हो आई।

श्वेता ने चिन्ता युक्त स्वर में कहा-“ दो दिन से स्कूल नहीं आए , चेहरा देखकर लगता है कि अस्वस्थ हो।”

 वह उससे कैसे कहें कि कोहरे भरी ठंडी रात में एक शिक्षक उसी की मर्यादा का तमाशा बनाने उसके दरवाज़े की चौखट तक गया था ।आत्मग्लानि युक्त स्वर में उसने कहा-“ कुछ नहीं बस ऐसे ही ज्वर हो गया था ।”

 “तुम्हारी अनुपस्थिति में तुम्हारा एक रजिस्टर्ड लेटर आया था जिसे मैंने ले लिया था ।लेटर देने ही मैं आई थी ।”- श्वेता ने हाथ में पकड़ा लेटर नवीन को देते हुए कहा ।

 नवीन ने लेटर खोलकर पढ़ा ।आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता उसके चेहरे पर लक्षित हो आई थी ।

श्वेता ने प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा और पूछा-“ लगता है कोई शुभ समाचार है ।”

 “ हाँ समाचार में ख़ुशी भी है और विषाद भी।”

 “ ख़ुशी और विषाद ?-श्वेता ने असमंजस से पूछा ।

 “ मैंने बैंक के प्रोवेश्नरी ऑफ़िसर की पोस्ट के लिए लिखित परीक्षा दी थी , तत्पश्चात् मेरा साक्षात्कार भी हुआ था ।मैं तो आशा ही छोड़ चुका था किंतु उस पोस्ट के लिए मेरा चयन कर लिया गया है ।मुझे एक महीने के भीतर बंगलौर में ज्वाइन करना है ।ख़ुशी अच्छे भविष्य की है, विषाद यहाँ सब से बिछुड़ने का है ।”-नवीन ने कहा ।

बिछुड़ने की बात सुनकर श्वेता के चेहरे पर अवसाद घिर आया था ।मन की वेदना को छुपाने के असफल प्रयास में उसने कहा-“ नवीन, क्या सच में तुम हम सब को छोड़ कर चले जाओगे ।मैं भी कैसी अबोध हूँ कि तुम्हारी विदाई का सम्मन तुम्हें स्वयं ही देने चली आई।” – कुछ क्षणों तक कोई कुछ न बोला। कमरे में व्याप्त सन्नाटे को तोड़ते श्वेता ने निःश्वास छोड़ते हुए पुनः कहा-“ मिलन और जुदाई तो जीवन की नियति है और वैसे भी इस छोटे से क़स्बे में रखा भी क्या है।बंगलौर बड़ी जगह है, जाओ मैं तुम्हारे सुखी भविष्य की कामना करती हूँ ।”

नवीन ने लक्ष किया कि यह कहते हुए श्वेता की आँखों में कुछ तैर सा गया था ।उसका मन इस सुख-समाचार की घड़ी में श्वेता से जुदाई की कल्पना से बुझ सा गया ।किंतु उसी क्षण उसके मन ने कहा कि नवीन आज नहीं कहा तो यह पल क्या पता पुनः आये या नहीं ।नवीन ने साहस बटोरते, श्वेता की आँखों में देखते हुए कहा-“ श्वेता तुमने कहा कि इस छोटे शहर में रखा ही क्या है , किंतु इसी छोटे शहर ने मेरे दिल को धड़कना सिखाया ।” नवीन एक पल को रुका फिर उसने कहा-“ श्वेता मैं तुमसे प्रेम करता हूँ….और तुम्हें जीवन संगिनी बनाना चाहता हूँ ।….क्या तुम मुझे स्वीकार करोगी…..? “

इस अप्रत्याशित स्वीकारोक्ति से श्वेता संज्ञा शून्य सी हो गई ।ऐसा नहीं कि वह आँखों की भाषा से अनजान थी।उसके स्वयं के अंतर में भी कहीं प्रेम का अंकुर फूट चुका था ।मन के भावों के कई द्वन्द परस्पर गुँथे हुए एक दूसरे को परास्त करने का प्रयास कर रहे थे ।…..उसी क्षण नवीन की मकान मालकिन श्रीमती थपलियाल कमरे में आईं और दो कप चाय रख कर चली गईं।



 चाय की चुस्की से श्वेता का मन संतुलित हुआ ।उसने लक्षित किया कि दो आतुर नयन उसके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे हैं ।चाय का प्याला रखते हुए श्वेता ने कहा-“ नवीन मेरे जीवन में जो बसंत कभी नहीं आया था उसे तुमने जगा दिया ।किंतु शायद यह सब मेरे लिए नहीं है ।मैं बंधनों में जकड़ी हूँ ,नियति के हाथों छली गई हूँ ।मैं तुम्हें कुछ न दे पाऊँगी ।”

 नवीन ने कुछ पल सोचा फिर गंभीरता से कहा-“ श्वेता मुझे तुमसे कोई चाहना नहीं है ।प्रेम कोई व्यापार नहीं जिसमें माँग और पूर्ति का लेखा-जोखा रखा जाए।बंधन तोड़े जा सकते हैं ।नियति चाहें दुरूह हो पर नीति तो संघर्ष है ।”

अपनी असमर्थता से श्वेता की आँखों में पीड़ा उभर आई थी ।ह्रदय के आवेग को रोककर उसने संतुलित होते हुए कहा-“ मेरी बीमार माँ , भविष्य के सपने संजोए मेरा छोटा भाई ।यह सब मेरे पर आश्रित हैं ।ये बंधन मैं चाह कर भी न तोड़ पाऊँगी……और नियति… दिल्ली के एक अस्पताल में गर्भाशय की जटिल बीमारी ने मुझसे माँ बनने का सपना छीन लिया है ।संघर्ष वे करते हैं जिन्हें जीत का विश्वास होता है, किंतु जो स्वयं पराजय स्वीकार कर ले ? “

यह कहते हुए श्वेता की पलकों में मोती झिलमिला आए थे ।कमरे में जैसे एक सन्नाटा सा पसर गया था ।शब्द खो चुके थे ।वाणी मूक हो गई थी ।

कमरे में व्याप्त खामोशी में नवीन की गंभीर वाणी गूँज उठी -“ श्वेता तुम जैसी भी हो मुझे स्वीकार हो …..

नवीन की बात काटते हुए श्वेता ने तीव्र स्वर में कहा-“ नहीं नहीं ! मैं जीवन भर बंजर भूमि के अपराध बोध की पीड़ा के साथ नहीं जी सकूँगी…” अपनी रुलाई के वेग को रोकने के प्रयास के साथ ही श्वेता तेज़ी से कमरे के बाहर निकल गई…..।

  रिक्त कमरे में रह गया था एक बोझिल सूनापन और किसी के होने के गवाह चाय के दो ख़ाली प्याले ।

   ट्रेन की खट-पट…खट-पट की आवाज़ ।ट्रेन शायद पटरियाँ बदल रही थी ।वह विगत से वर्तमान में आ गया था ।वह भी पटरियाँ बदल रहा था ।एक छोटे क़स्बे की पटरी छोड़ बड़े शहर की पटरी की ओर ।ट्रेन एक यंत्र है-संवेदनहीन , किंतु वह यंत्र नहीं है ।वह तो एक ऐसी जीवन यात्रा का पथिक भर है जिसका पथ नियति से नियंत्रित हैं ……..।

                                              ****समाप्त****

                                                                               लेखक— नरेश वर्मा

                                                                          (मौलिक एवं अप्रकाशित रचना)

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!