भाभी, आप इतना सब कुछ कैसे सह लेती हो और फिर सहने की ज़रूरत भी क्या है? जब भी अपने मायके जाती हो , हमेशा परेशान होकर ही आती हो । जब वहाँ आपको मान- सम्मान मिलता ही नहीं तो रिश्ता ख़त्म करके अपने घर में सुख- चैन से रहो । सुबह भाई से बात हुई थी तभी पता चला आपके अचानक ब्लड प्रेशर लो होने का कारण ।
नहीं…नहीं कनिका , ऐसी बात नहीं कि वहाँ मुझे सम्मान नहीं मिलता । क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हारी भाभी बिना सम्मान के वहाँ जाएगी?
तो क्या बात है? पूरे दो साल हो गए आपके पिता की मृत्यु को ….. क्या मैंने अपनी आँखों से नहीं देखा था कि कैसे आपके सौतेले भाई- भाभी ने आपके साथ व्यवहार किया था ….
कनिका प्लीज़…. अभी मेरी तबियत ठीक नहीं, मैं एक- दो दिन बाद बात करती हूँ ।
ठीक है भाभी, आराम कीजिए और कहें तो मैं आ जाऊँ एक- दो दिन के लिए ?
थोड़े आराम के बाद ही बता पाऊँगी ।
इतना कहकर सलोनी ने फ़ोन रख दिया । इस समय कनिका के साथ बात करने का ज़रा भी मन नहीं था ।वैसे तो कनिका उसके भले की बात कर रही थी पर कभी-कभी इंसान ख़ुद से बातें करना चाहता है…. चुपचाप रहना चाहता है और मायके से आने के बाद कनिका हमेशा की तरह हफ़्ता दस दिन मानसिक रूप से एकदम चुप हो जाती थी । पति कबीर को भी उसका यह रवैया समझ नहीं आता था । इसलिए वह हर बार अपनी बहन से कहता कि सलोनी से बात करे , उसे मायके जाने से रोके ।
सलोनी अपने पति कबीर को चाहते हुए भी नहीं बता पाती थी कि अपनी परेशानी का कारण वह खुद है । अगर कबीर को या कनिका को पता चल गया तो क्या अहमियत रह जाएगी मेरी ?
उसे आज भी अच्छी तरह याद है वो रात जब उसकी मम्मी को लेकर पापा और दादी अस्पताल गए थे । सलोनी ने भी उनके साथ जाने की ज़िद की पर दादी ने कहा—-
आज चाची के पास सो जाना और सुबह अपने भाई से मिलने आना हॉस्पिटल में , अभी जाकर क्या करेगी ?
उस दिन चाची के घर में बड़ा मज़ा आया । चाची के दोनों बेटों के साथ खूब उधम मचाया , मनपसंद खाना खाया और चाचा आइसक्रीम भी लेकर आए थे । उस रात चाची के साथ ही सोई । सुबह होने पर सलोनी ने हॉस्पिटल जाने की ज़िद की पर चाची ने उसे बहका- फुसलाकर कभी खेल में, कभी टेलीविजन में और कभी कहानियों में उलझा लिया । शाम होने पर अचानक घर में कोहराम मच गया और चाची उसे कलेजे से लगाकर रोते- रोते बोली —-
हाय ! भगवान ये तूने क्या किया ? इतने सालों बाद बेटा दिया भी ….. पर दोनों माँ- बेटे को छीन लिया…..
मम्मी कहाँ है ? मुझे मम्मी से और अपने भाई से मिलना है, हॉस्पिटल ले चलो ।
तभी बाहर गाड़ी रूकी और लोगों ने स्ट्रेचर पर लेटी मम्मी को बाहर बरामदे में रख दिया । शायद दादी या औरतों के इशारे पर चाची सलोनी को लेकर ऊपर अपने घर चली गई । और धीरे-धीरे पाँच साल की सलोनी मम्मी की जगह चाची- चाची की रट लगाना सीख गई । सलोनी के पापा और दादी अक्सर उसकी चाची सुनीता का आभार व्यक्त करते कि कितनी अच्छी तरह से उन्होंने सलोनी को सँभाल लिया ।
साल भर के बाद सलोनी की मामी की विधवा बहन सुषमा से उसके पापा की शादी हो गई । और जिस दिन सुषमा आने वाली थी तो उसकी दादी बोली —-
सलोनी! आज तेरी नई माँ तेरे भाई के साथ पहुँचने वाली है । तेरे पापा लेने गए हैं ।
तो क्या अम्मा, सुषमा के साथ पीछे का लड़का भी आ रहा है? आपने तो एक बार ज़िक्र तक भी ना किया ?
अरे , फेरे फिर गए , यही बहुत है । उस बेचारी का लड़का है और हमारे घर में बेटी । चलो दो भाई- बहन हो गए और तेरे जेठ का घर बस गया … नहीं तो लड़की के पिता की बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होती है । शुक्र है कि सलोनी की मामी ने सुषमा को समझा- बुझाकर शादी के लिए तैयार कर दिया वरना उसने तो साफ़ मना कर दिया था कि वह अपने बेटे के सहारे जीवन काट लेगी ।
वैसे सलोनी की मामी बहुत चालाक निकली , अम्मा! एक तीर से दो निशाने साध लिए । अपनी विधवा बहन को लाखों की जायदाद की मालकिन भी बना दिया और एहसान भी चढ़ा दिया……
सुनीता….. शर्म नहीं आती, इस तरह की बातें करते । अच्छा नहीं तो कम से कम बुरा भी मत निकाल अपने मुँह से ।
सलोनी की चाची पैर पटकती ऊपर चली गई और
अपनी नई जेठानी से मिलने सास के बुलाने पर भी नीचे नहीं उतरी । उसके पीछे- पीछे सलोनी भी चली गई——
चाची, नई मम्मी मेरे भाई को लेकर आई है ना ?
अरे ! वो कौन सा तेरा सगा भाई है ? पीछे का है, सौतेला ।
छह साल की छोटी सी बच्ची के मन में यह बात घर कर गई कि ना तो सुषमा उसकी मम्मी हो सकती हैं और ना उसका बेटा सलोनी का भाई ।
सलोनी तो चाचा के बेटों को ही अपना भाई मानती और बेचारा चार/ पाँच साल का ईशान दूर से बैठा उन तीनों को खेलता देखता । सुषमा ने सलोनी को अपनत्व और ममत्व देने की लाख कोशिश की पर सलोनी ने कभी उससे सीधे मुँह बात नहीं की । वह एक महीने पहले से ही अंश और वंश के लिए राखी और भाई- दूज पर तैयारी शुरू कर देती पर ईशान अपनी सूनी कलाई पर राखी बँधने और माथे पर टीका लगने का इंतज़ार करता ही रह जाता । थोड़ा बड़ा होने पर अक्सर माँ से पूछता-
सलोनी तो मेरी बहन है फिर वो अंश – वंश को राखी क्यों बाँधती है ?
वे भी तो भाई हैं तुम्हारे…. और वे दोनों तुमसे बड़े हैं ।
जैसे-जैसे ईशान बड़ा होता गया , उसने यह बात पूछनी बंद कर दी शायद वह समझने लगा था कि उन तीनों का खून का रिश्ता है ।
समय गुजरता गया और बच्चे विवाह योग्य हो गए । सलोनी के विवाह में अंश और वंश तो मेहमान बनकर आए पर ईशान ने एक भाई का सही फ़र्ज़ निभाया । वह सुबह से शाम तक बाइक उठाए घूमता रहता । पिता ने अगले ही साल ईशान का विवाह कर दिया । ईशान ने पिता का कारोबार बड़ी कुशलता से सँभाल लिया था ।
सलोनी जब भी आती । ईशान और वंशिका को अप्रत्यक्ष रूप से मानसिक यंत्रणा देती । पिता भी मजबूर थे क्योंकि जब समझने की उम्र थी , सलोनी ने तो तभी कुछ नहीं समझा था । वह चाची के पास ही घुसी रहती जो पट्टी चाची पढ़ाती उसी पर अमल करती —
सलोनी, अपने पापा की जायदाद पर तेरा हक़ है । उनकी भी उम्र होने लगी है ।समय रहते अपने नाम करवा लेना । ऐसा ना हो कि पुरखों की अमानत किसी भी ऐरे- गैरे के हाथों में चली जाए।
पर चाची, अगर मेरी ससुराल में पता चला कि मैंने ज़बरदस्ती सारी संपत्ति अपने नाम करवा ली तो वे क्या सोचेंगे ।
तो अंश- वंश के नाम करने को बोल अपने पापा को । कम से कम अपना खून तो है ।
कबीर को पग फेरे की रस्म के बाद सलोनी कभी मायके लेकर नहीं आई । उसने माँ- भाई की ऐसी छवि प्रस्तुत की कि कबीर को ऐसा लगा कि अगर ससुराल में किसी ने अपमान कर दिया तो बेकार ही संबंध ख़राब हो जाएँगे । यहाँ तक कि ईशान की शादी में भी कबीर नहीं आया था । सलोनी को तो उसके पापा ने बड़ी मुश्किल से अपनी क़सम देकर बुलाया था।
जिस बेटी के लिए नई माँ और भाई लेकर आए थे उसने तो उन दोनों को अपना दुश्मन ही समझा था । धीरे-धीरे सलोनी के पापा बीमार रहने लगे और एक दिन मानसिक तनाव के कारण उनके आधे शरीर पर अधरंग का असर हो गया । ऐसे में केवल ईशान- वंशिका और सुषमा ने उनकी देखभाल की । सलोनी तो केवल फ़ोन पर बात करके कर्तव्य निभाती थी ।
एक दिन सुबह- सुबह सलोनी को ईशान ने बताया कि पापा नहीं रहे । वह कबीर के साथ पहुँची । अंतिम क्रिया के बाद सुषमा ने कबीर और सलोनी दोनों के सिर पर हाथ रखते हुए कहा—-
जब तक मैं ज़िंदा हूँ, चिंता मत करना मेरे बच्चों । रीत के अनुसार आज तो आप दोनों को जाना पड़ेगा पर बेटा , दो-तीन दिन बाद दोनों आ जाना । दुख के समय मिलजुल कर रहेंगे तो समय कट जाएगा । तेरहवीं तक यहीं रहना ।
रास्ते में कबीर ने कहा—- सलोनी तुम्हारी सौतेली माँ मुझे तो बुरी लगी नहीं, तुमने तो अलग ही रूप दिखा रखा था मुझे ।
नौटंकी करना जानती है । चाची बताएँगी इनका असली रूप, तेरहवीं पर सुनवाऊँगी इनकी कथा ।
ज़रूरत क्या है इतने पचड़े में पड़ने की तुम्हें ? मुझे ये पूछ- पूछाई बिल्कुल पसंद नहीं ।
जिस अंदाज में कबीर ने यह बात कही ,सलोनी सहम गई ।
तेरहवीं के दिन भी ईशान और वंशिका अपनी तरफ़ से यही कोशिश कर रहे थे कि सारी औपचारिकता सलोनी के हाथों ही करवाएँ।
तभी किसी एक रस्म को निभाने के लिए पंडित जी ने कहा तो ईशान सलोनी को बुलाने के लिए अंदर जाने लगा तभी सलोनी के मामा ने कहा—-
तुम कर दो ईशान, एक ही बात है बेटा ।
इतने में सलोनी आई और बोली—-
अरे , मैं नहीं थी तो अंश या वंश भइया को कहते । तुम्हारे हाथों से की गई रस्म से मेरे पापा को मुक्ति नहीं मिलेगी । तुम कौन सा इस परिवार का खून हो ?
ईशान इस अपमान को सहन नहीं कर पाया । वह तुरंत अंदर गया और वंशिका तथा सुषमा को अपने पास बुलाकर उन्हें सब बता दिया ।शायद सुषमा बहू- बेटे को उस समय धैर्य रखने के लिए समझा रही थी कि तभी सलोनी उनके पास पहुँची और बोली—-
जिसे भड़का रहे हो उसे क्या बड़ी तोप समझते हो? कोई इज़्ज़त है क्या इनकी ? जो पति के मरते ही लड़के को लेकर यहाँ आ गई…..
सलोनी की आवाज़ सुनकर कबीर और कनिका उनके पास आए और उन्होंने सुना कि ईशान और वंशिका सलोनी का हाथ पकड़ कर बाहर का रास्ता दिखाते हुए कह रहे थे——
ख़बरदार! एकदम चुप …. निकलो यहाँ से और आगे से यहाँ आने की ज़रूरत नहीं….
तभी सलोनी की नज़र पति और ननद पर पड़ी । वह चाहते हुए भी कुछ नहीं कह सकी क्योंकि कबीर और कनिका के सामने वह अपनी सीधी सादी छवि बिगाड़ना नहीं चाहती थी । पर उसने मन ही मन सोच लिया कि सुषमा को बहू- बेटे सहित घर से निकाल कर रहेगी ।
कबीर ने तो उस दिन कह दिया—
ओह , ये तो माँ- बेटा सचमुच अच्छा बनने का ढोंग करते हैं । कोई ज़रूरत नहीं वहाँ जाने की ।
नहीं कबीर , तुम नहीं जानते मायके का प्यार । मेरी चाची हैं जिन्होंने कभी माँ की कमी महसूस नहीं होने दी । मेरे भाई हैं ।
करो ….जो करना है । तुम्हें तो अपनी चलानी होती है । मुझे वहाँ की कोई बात मत बताना ।
वह मायके जाती और चाची के साथ मिलकर तरह-तरह की योजनाएँ बनाती पर उसके पिता वसीयत करके गए थे । चाचा के दोनों बेटे सलोनी के साथ मिलकर भागदौड़ में लगे थे और वसीयत को झूठी साबित करने की कोशिश में लगे थे । आख़िर उन्हें अपनी जीत नज़र आने लगी और उन्होंने ईशान के पास लीगल नोटिस भिजवाया । सुषमा ने बहन- बहनोई को बुलाकर बीते सालों का एक – एक दिन का हिसाब बताया——
जीजी , मैं बताना तो नहीं चाहती थी पर अब तो पानी सिर के ऊपर से गुजर रहा है । आख़िर मेरी और मेरे बेटे की क्या गलती थी । आपने मुझे किस नरक में धकेल दिया था । जहाँ बेटी ही दुश्मनी पाल बैठी ।
और जब इस बार सलोनी केस- सुनवाई पर गई तो अदालत के बाहर खड़े मामाजी को देखकर वह और चचेरे भाई सकपका गए । पर सलोनी के मामाजी ने कहा——
अरे सलोनी! तुम और यहाँ? मैं तो अपने किसी परिचित के साथ आया था । कबीर जी कहाँ है? चलो , घर चलो अपनी मामी से मिल लेना ।
और उस दिन सलोनी बाहर से ही उल्टे पाँव लौट आई क्योंकि वह मामाजी के साथ इस बारे में बात करना नहीं चाहती थी । घर पहुँच कर तथा चाय पीकर मामाजी ने अपनी अलमारी खोली और कुछ पुरानी नीली चिट्ठियाँ निकाल कर सलोनी के सामने रखकर बोले——
ये तुम्हारी मम्मी यानि मेरी बहन की चिट्ठियाँ है । पढ़ो बेटा , ये ज्यादातर चिट्ठियाँ तुम्हारी मम्मी ने उस समय लिखी थी जब तुम पैदा नहीं हुई थी । विवाह के कई सालों बाद तक संतान नहीं हुई तो वह मन ही मन कितनी प्रसन्न थी। ये पत्र पढकर तुम्हें अपने चाचा- चाची का असली मक़सद समझ आएगा कि किस तरह उसने तुम्हारे पैदा होने पर तुम्हारी मम्मी पर अपने बेटों का रोब झाड़ा और कैसे पहले ही ऐलान कर दिया था कि तुम्हारे पापा के यहाँ कोई वारिस नहीं होगा । और तुम हमारी किसी की बात बिना सुने , उसी औरत के कहे में चलती हो ।
अपनी मम्मी की लिखी चिट्ठियों को पढ़कर सलोनी की आँखों से आँसू बह रहे थे और उसने केवल इतना कहा—-
मामाजी, आप बेफिक्र रहिए । आपकी बहन और जीजा की ज़मीन- जायदाद सही हाथों में जाएगी ।
और आज जब अदालत में केस वापस लेने की दरख्वास्त देने के बाद वह अपने घर गई तो ईशान और वंशिका ने घर और कारोबार के असली काग़ज़ात उसके हाथ में पकड़ाते हुए कहा— दीदी, लो ये आपकी अमानत है । मैंने तो मरते हुए पापा को वचन दिया था कि घर परिवार और तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ूँगा पर लगता है, मैं कभी कामयाब नहीं हो सकता । मेरी तरफ़ से तुम रखो या अपने चाचा के बेटों को दो । हम जल्दी ही मम्मी को लेकर चले जाएँगे ।
ईशान, क्या तुम मुझे माफ़ नहीं कर सकते ? मैं अंधी थी पर तुम ख़ुद सोचो , एक छह साल की छोटी बच्ची का दिमाग़, उसे जो रटाया गया वह बोलती गई । वंशिका! तुम दोनों सोचो , अगर आज तुमने मेरा साथ नहीं दिया तो चाची अपने मक़सद में कामयाब हो जाएगी ।
सलोनी ने लाख समझाने की कोशिश की पर ईशान और वंशिका कुछ सुनने को तैयार नहीं थे । थक-हार कर सलोनी लौट आई । बहुत सोच- विचार के बाद उसने निश्चय किया कि वह कबीर को सारी सच्चाई बताएगी क्योंकि अब ईशान को मनाना उसके हाथ में नहीं है, उसने बहुत दिल दुखाया था ।
सलोनी सारा दिन बिस्तर पर पड़ी रही । शाम को कबीर के साथ कनिका को देखकर, एक बार तो सलोनी सकपकाई पर अगले ही पल उसने ठान लिया कि वह इस मामले में देर नहीं करेगी ।
उसी समय उसने दोनों भाई- बहन को सारी हक़ीक़त बताई और कबीर के सामने हाथ जोड़कर कहा——
कबीर! अब केवल तुम्हारा सहारा है । ईशान और वंशिका को रोक कर पापा की मेहनत की कमाई लुटने- पिटने से बचा लो …. मेरा मायका बचा लो प्लीज़ ।
कनिका ने भी भाई से कहा—- भाई! गलती तो भाभी की है पर इस समय गिले शिकवे भुलाकर सबसे पहले ईशान और वंशिका को समझाओ । मुझे पूरी उम्मीद है कि वे लोग आपकी बात नहीं टालेंगे ।
उसी समय कबीर सलोनी को लेकर ससुराल पहुँचा । ईशान और वंशिका को बुलाकर कहा—- मैं तुम दोनों से बड़ा हूँ । सलोनी ने मुझे भी बहुत बड़े धोखे में रखा । न जाने इसकी बुद्धि कहाँ चली गई थी । इसकी तरफ़ से मैं माफ़ी…..
नहीं..नहीं जीजा जी! आप माफ़ी मत माँगिए । कबीर की बात बीच में काटते हुए ईशान बोला ।
अगर अपने जीजा का इतना सम्मान करते हो तो ईशान मुझसे वादा करो कि अपने घर को छोड़कर कहीं नहीं जाओगे ।
तभी सुषमा ने वंशिका को रात का भोजन तैयार करने के लिए कहा ।देर रात तक सब बैठे बातें करते रहे ।
जब अगले दिन सुबह सलोनी और कबीर जाने लगे तो सलोनी की नज़र पर्दे की ओट में खड़ी होकर देखती चाची पर पड़ी । वह ज़ोर से चिल्लाकर बोली—-
नमस्ते चाची ! रात आए थे हम ….मम्मी और भाई- भाभी से मिलने, चलती हूँ । बाय….
पर्दे की ओट से निकलती चाची ने केवल हाथ हिला दिया ।
लेखिका : करुणा मलिक