वितृष्णा – ऋतु यादव : Moral Stories in Hindi

आँगन में पहला कदम रखते ही जैसे वक्त की धूल झाड़ कर पुराने दृश्य मेरी आँखों के सामने उभरने लगे। वही आँगन, वही तुलसी चौरा, और वही कोना जहाँ अक्सर बैठकर दादी रामायण पढ़ा करती थीं। पर सबसे पहले जो चेहरा सामने उभरा, वो था उस झीनी फ्रॉक वाली लड़की का।

झीनी गुलाबी फ्रॉक में लिपटी, गहरी आँखों वाली वो लड़की—टिक्की। उम्र रही होगी आठ या नौ साल। छोटी सी जान, लेकिन हाथों में झाड़ू, बर्तनों की खनक, और पैरों में चाची के तीखे तानों की आवाज़ें।
चाची उसे बर्दाश्त नहीं करती थीं। डांटना, ताने देना, और ज़रा-ज़रा सी बात पर चिल्लाना—ये तो उनकी दिनचर्या का हिस्सा था।
मैंने कई बार कहा भी, “चाची, बच्ची है, इतना मत चिल्लाओ उस पर,”
तो वो बस नाक चढ़ाकर कहतीं,
“तुझे नहीं पता, किसी और की जवान होती लड़की को घर में रखना क्या होता है। खानदान का कुछ अता-पता नहीं, कल को कुछ ऊँच-नीच हो गई तो कौन ज़िम्मेदार होगा?”

फिर एक दिन माँ ने बताया कि टिक्की के माँ-बाप हमारे ही यहाँ काम करते थे। माँ की एक दुर्घटना में मौत हो गई, और बापू ने गाँव जाकर दूसरी शादी कर ली। टिक्की को यहीं छोड़ दिया — नौकरानी बनकर जीने के लिए।

वो सब आज से 15 साल पहले की बातें थीं। उसके बाद मेरी शादी हो गई और मैं परिवार के साथ दूसरे शहर जा बसी। चाचा और दादी भी एक-एक कर चल बसे। चाची अकेली रह गईं। कई बार कहा कि मेरे साथ चलो, लेकिन उन्होंने हर बार यही कहा,
“चाचा की यादें हैं यहाँ, और फिर अड़ोस-पड़ोस भी तो है। तेरे परदेस में किससे बोलूंगी? बहू तो वैसे भी विदेशी है।”

आज इतने बरसों बाद पहली बार अपने पुश्तैनी घर लौटी थी। गेट खोला तो एक संजीदा, सुंदर औरत सामने खड़ी थी — मुस्कुराती आँखों से बोली,
“पैर छू… जीजी, मैं टिक्की। भूल गईं?”
मैं ठिठक गई। मुस्कुराहट खुद-ब-खुद चेहरे पर आ गई,
“अरे टिक्की! तू तो बिल्कुल बदल गई। कितनी सुंदर हो गई है!”

वो लजा गई, और तभी एक चार-पाँच साल का लड़का दौड़ता हुआ आया।
“पैर छू बेटा, बड़ी मौसी मेम हैं तेरी,” उसने स्नेह से बेटे को झुकाया।

घर वही था, पर अब कुछ और ही अहसास दे रहा था। अंदर गई तो चाची पलंग पर लेटी थीं। लकवा मार गया था उन्हें। मुझे देखकर आँखें भर आईं, पर चेहरा जैसे वर्षों के बोझ से हल्का हो गया।
“कैसी हैं चाची?” मैंने धीरे से पूछा।
“जितनी भी ठीक हूँ, बस इस टिक्की की वजह से हूँ।”
और फिर चाची एक-एक करके सब बताने लगीं—कैसे डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था, कैसे कोई उम्मीद नहीं थी, और कैसे टिक्की ने उन्हें संभाल लिया।

“खाना खिलाना, नहलाना, दवा देना, सब करती है… कोई अपनी सगी बेटी भी ऐसा नहीं करती, जैसी सेवा इसने की है। तुम सब तो चले गए थे, लेकिन मेरा सहारा तो यही बनी।”

चाची के स्वर में कोई शिकवा नहीं था, बल्कि वो हर शब्द जैसे पश्चाताप से धुला हुआ था।
रात में जब सब सो चुके थे, चाची ने मुझे पास बुलाया,
“कलिका, तुझे एक खास काम के लिए बुलाया है। पता नहीं कितने दिन और बाकी हैं मेरी ज़िंदगी के। ये टिक्की… और इसका बेटा… मेरे बाद इनका क्या होगा?”
उनकी आवाज़ काँप रही थी।

“पति शराबी है, रोज़ मारता है इसे। पर ये सब सहती है, बस मेरा ख्याल रखने के लिए। ये घर… और जो ज़रा सी ज़मीन बची है… सब इसके नाम करा जा। मेरी गलती थी, जो इसे उसकी माँ की सज़ा दी। सोचती थी नाजायज़ है… पर अब लगने लगा है, यही मेरी जायज़ है।”

मैं अवाक रह गई। वर्षों पहले की वो कठोर चाची, जो कभी एक लड़की की मासूमियत को नहीं समझ पाईं थीं, आज उसी लड़की को अपनी विरासत देना चाहती थीं। ये बदलाव… ये स्वीकार… एक सच्चे पछतावे की निशानी थी।

अगले ही दिन मैंने वकील को बुलाया। सारे कागज़ात तैयार कराए और घर व ज़मीनें टिक्की के नाम कर दीं।
टिक्की को जब यह बताया तो वह सुबक पड़ी।
“मैं तो बस अपना फ़र्ज निभा रही थी, जीजी,” उसने कहा।

फिर एक दिन… अचानक चाची की साँसें उखड़ने लगीं। मैं और टिक्की दौड़कर पास पहुँचे। चाची ने धीरे से कहा,
“अब चैन से जा रही हूँ…”
और एक आखिरी हिचकी के साथ, चाची टिक्की की गोद में सिर रखकर हमेशा के लिए सो गईं।

उस दिन जैसे उस नफ़रत की दीवार भी सदा के लिए ढह गई थी।
झीनी फ्रॉक वाली बच्ची, जो कभी तिरस्कार का पात्र थी, आज एक सम्पूर्ण घर की मालकिन थी — और एक टूटी हुई आत्मा की सबसे बड़ी तसल्ली भी।


“कभी-कभी जिनसे सबसे ज़्यादा नफ़रत करते हैं, वही हमारे जीवन की सबसे बड़ी सीख दे जाते हैं… और वही हमारे सबसे अपने बन जाते हैं।”
VM

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