अलार्म बजे जा रहा था और स्वरा बार-बार उसे snooze करके 5 मिनट की एक्स्ट्रा नींद लेने की कोशिश कर रही थी।
बार-बार इस तरह अलार्म बजने से उसका हस्बैंड रमेश चिड़चिड़ा गया “स्वरा, पता नहीं कितना आलस भरा है तुममें। अलार्म बजते ही नहीं उठ सकती क्या? सारी नींद खराब कर दी है। आदमी चैन से सो भी नहीं सकता। दिनभर ऑफिस में खटो। फिर घर में भी चैन नहीं।”
उसके इस तरह चिड़चिड़ाने से स्वरा तुरंत बिस्तर से उठ खड़ी हुई और अलार्म बंद करके बाथरूम की ओर भागी।घड़ी में देखा तो 5:30 बज गए थे। “हे भगवान! आज फिर लेट हो गई।” मन ही मन बुदबुदाते हुए वह फटाफट तैयार होने लगी। “मैं तो खुद अलार्म के बजते ही 5:00 बजे ही उठना चाहती हूॅं। लेकिन, ऑफिस का काम निपटाते निपटाते रात के 2:00 बज गए थे तो सुबह नींद कैसे खुले?” ये सोचते-सोचते वह किचन की ओर भागी।
उसने सोचा “पहले एक कप चाय पी लूॅं, फिर काम में लगूॅं।” लेकिन फिर उसे सासू माॅं के नियम कायदे याद आ गए। नहा-धोकर किचन में बासी बर्तन धो-माॅंज कर, साफ- सफाई करके ठाकुर जी को भोग लगाने के बाद ही कुछ खाना-पीना है। मन मार कर वह साफ सफाई में जुट गई। साफ-सफाई करते-करते ही 6:30 बज गए।
“अरे! मुन्नू अभी तक नहीं उठा।एक घंटे में तो बस आ जाएगी।” यह सोचते हुए स्वरा भाग कर मुन्नू के पास गई। उसे उठाकर रेडी होने के लिए भेज कर जल्दी-जल्दी ब्रेकफास्ट और टिफिन बनाने लगी।
7:30 बजने वाले थे।तभी रमेश ऑंख मलते-मलते बाहर आया। उसे देखते ही स्वर बोली “अच्छा हुआ, आप उठ गए।इसे जल्दी से बस स्टॉप छोड़ आइए ना। बस का टाइम हो रहा है।”
यह सुनते ही रमेश भड़क गया “अभी ऑंख पूरी खुली भी नहीं और लगी काम बताने। चाय-पानी पूछना तो दूर की बात है। मैं कहीं नहीं जाऊॅंगा समझी।”
यह सुनते ही स्वरा मुन्नू का हाथ पकड़ कर बस स्टॉप की ओर भागी। यदि बस छूट जाती तो उसे ही उसे स्कूल छोड़कर आना पड़ता। जैसे ही वह मुन्नू को छोड़कर आ रही थी उसे सामने सब्जी का ठेला खड़ा दिख गया। “घर में तो सब्जियाॅं भी खत्म हो गई है।” यह सोचकर वह सब्जियाॅं खरीदने लगी।
जैसे ही वह सब्जियाॅं लेकर घर में घुसी। सासू माॅं और रमेश दोनों ही उसपर भड़क पड़े “कितनी लेट कर दी तुमने। कहाॅं खड़ी होकर गप्पें मार रही थी? घर का कुछ ध्यान भी है कि नहीं? हम दोनों कब से चाय का इंतजार कर रहे हैं? जल्दी से चाय बनाओ।”
“सब्जियाॅं लेने लग गई थी। सब्जियाॅं खत्म हो गई थी।” उसने धीरे से कहा।
“बाद में मेन मार्केट जाकर भी तो ला सकती थी। यहाॅं ठेले पर ₹1के ₹2 देने में मजा आता है।” सासू माॅं की बडबडाहट जारी थी। उसने जल्दी से दोनों को चाय दी और फिर बाकी के कामों में लग गई। सासू माॅं को कामवाली का काम पसंद नहीं था। इसलिए सारा काम स्वरा को अकेले ही करना पड़ता था।
नाश्ता, टिफिन,कपड़े, बर्तन करने के बाद वह 11:00 बजे अपना नाश्ता करने बैठी ही थी कि तभी उसकी सासू माॅं ने कहा “सारा दिन नाश्ता ही करती रहेगी कि और भी कुछ करेगी? सारे मसाले धूप में दिखा दो।”
“माॅंजी, आज मुझे ऑफिस का कुछ जरूरी काम है।मसाले कल धूप दे दूॅंगी।”
“मसालों को धूप में देने में कितना समय लगता है। उसके बाद अपना काम कर लेना। कामचोर कहीं की।”
स्वरा बहस ना करते हुए जल्दी से मसालों को धूप में डालकर आई और अपने ऑफिस के काम में लग गई। स्वरा एक बहुत बड़ी ऐड एजेंसी में काम करती थी। उसके काम को देखते हुए ही कंपनी ने उसे वर्क फ्रॉम होम की फैसिलिटी दे रखी थी और सैलरी भी अच्छी खासी थी। अभी थोड़ा सा ही काम हो पाया था कि मुन्नू को बस स्टॉप से लाने का समय हो गया। फिर, तो उसे लाना, खाना खिलाना, घर के काम निपटाते-निपटाते उसे रात के 10:00 बज गए। एक टांग पर नाच कर वह भी बुरी तरह थक गई थी। लेकिन, अभी ऑफिस का काम बाकी था। तभी रमेश ने कहा “सुनो, मैं सोने जा रहा हूॅं। मुझे डिस्टर्ब मत करना। तुम अपने लैपटॉप की किटीर-पिटीर हाॅल में कर लेना और हाॅं, कल टिफिन में कुछ अच्छा बना देना। ऐसा खाना रहता है कि खाने का ही मन नहीं करता।”
रमेश की बात सुनते ही उसकी सास बोली “पता नहीं, सारा दिन करती क्या है? ढंग का खाना भी नहीं बना सकती।” यह सुनते ही स्वरा की ऑंखों में ऑंसू आ गए।
लेकिन, अपने ऑंसुओं को छुपाते हुए वह लैपटॉप लेकर हाल में आ गई और वहाॅं बैठकर अपना काम कंप्लीट करने लगी। पूरा बदन दर्द से टूट रहा था। लेकिन, काम भी जरूरी था। रमेश ने घर के लिए लोन उठा रखा था जिसकी इंस्टॉलमेंट उसकी सैलरी से कटती थी। काम करते-करते उसे आज फिर रात के 2:00 बज गए। यह तो स्वरा की रोज की कहानी थी। ऑफिस और घर का काम निपटाते – निपटाते रात के एक -दो बजना तो आम बात थी। इतनी हाड़-तोड़ मेहनत के बाद भी उसे प्यार और सम्मान के दो बोल नसीब नहीं होते थे। इन सबसे वह धीरे-धीरे मुरझाती जा रही थी। ऑंखों के नीचे काले धब्बे हो गए थे। वह मानो जिंदा लाश बन गई थी जो दूसरों की ख्वाहिशों और जिम्मेदारियों का बोझ उठाए जा रही थी।
ऐसे ही दिन बीतते जा रहे थे। एक दिन स्वरा घर का राशन खरीद कर सामान से लदी-फदी जल्दी-जल्दी घर की ओर बढी जा रही थी। तभी अचानक एक आवाज ने उसके कदम रोक दिए। सामने उसकी फ्रेंड मौसमी खड़ी थी। “स्वरा क्या हाल है? ऑफिस छोड़ने के बाद तो तेरा कोई अता-पता ही नहीं।” फिर उसकी ओर देखते हुए बोली “क्या हाल बना रखा है तूने? तबीयत तो ठीक है ना?”
“हाॅं, यार बस जरा जल्दी में हूॅं।”
“जल्दी-वल्दी कुछ नहीं। अब इतने दिनों बाद मिली हो तो एक कप चाय तो साथ में पीनी ही पड़ेगी।” यह कहते हुए वह उसे जबरदस्ती रेस्टोरेंट में ले गई।
“स्वरा, यह क्या हो गया है तुझे? कैसे मुरझा गई हो?”
इतने समय बाद किसी के स्नेह भरे शब्दों को सुनते ही स्वरा फफक पड़ी “मौसमी, मशीन बन गई है मेरी जिंदगी। सारा दिन बस काम, काम और काम। कितना ही कुछ कर लूॅं, लेकिन किसी को खुश नहीं कर पाती। सुबह से रात तक लगी रहती हूॅं। लेकिन,फिर भी इन लोगों की शिकायतें कभी खत्म नहीं होती। ताने, अपमान, धुटन यही मेरी जिंदगी बन गई है।”
यह सुनकर मौसमी ने उसकी और देखकर कहा अपनी इस हालत की जिम्मेदार तुम खुद हो। यदि तू खुद की परवाह नहीं करेगी तो कोई और क्यों करेगा?”
“लेकिन, मैं क्या करूॅं?” ऑंखों में ऑंसू भरकर स्वरा बोली।
“सबसे पहले तो तुझे रोना-धोना बंद कर। तू बेचारी नहीं है। अच्छा खासा कमाती है। फिर क्यों इतना अपमान सहती है? घर वालों की परवाह अच्छी बात है। लेकिन, यह परवाह तो दोनों ओर से होनी चाहिए ना। वह तुम्हारा अपमान करते रहे और तुम उन लोगों के लिए मरती रहो यह क्या बात हुई। याद रख स्वरा, ‘सम्मान की सूखी रोटी’ अपमान के पकवानों से अच्छी होती है। अपने सम्मान के लिए तुझे खुद ही आवाज उठानी होगी।”
मौसमी की बात सुनकर स्वरा नए उत्साह से भरकर घर पहुॅंची ।सारा काम रोज की तरह निपटाया। लेकिन,दूसरे दिन की सुबह कुछ अलग थी। दूसरे दिन स्वर आराम से 6:00 उठी और किचन में आकर अपने लिए चाय बनाकर चाय की चुस्की लेते हुए न्यूजपेपर पढ़ने लगी।
तभी उसकी सासू माॅं वहाॅं आ गई “स्वरा, यह क्या बेहूदगी है? बिना नहाए-धोए, किचन में चाय बना दी और जूठे मुॅंह चाय पी रही है। ना बर्तन मांजे, ना साफ सफाई की। कोई शर्म है या नहीं?”
यह सुन न्यूजपेपर से नजरें बिना उठाए स्वरा ने कहा “माॅंजी ,रात में ऑफिस का काम करते-करते 2:00 बज गए थे। इसलिए सर थोड़ा भारी हो रहा था। मुन्नू को स्कूल भेज कर नहा लूॅंगी।” यह कहकर उन्हें इग्नोर करते हुए स्वरा मुन्नू के कमरे में जाकर उसे उठाने लगी।
मुन्नू को जगाकर वह किचन में जाकर नाश्ता बनाने लगी। यह देखकर सासू माॅं का पारा चढ़ गया।वह गुस्से से बौखलाते हुए अपने बेटे रमेश के पास गई “बेटा, जल्दी उठ।”
“क्या हो गया माॅं? कौन सा तूफान आ गया है? सोने भी नहीं देती हो।” रमेशने कहा।
“बाहर चल कर देख।” बोलते हुए वह रमेश को किचन में ले गई।
“बेटा, देख अपनी बीवी के लक्षण। ना नहाई है ना झाड़ू-पोंछा किया है ,ना बर्तन मांजे है। बस ऐसे ही नाश्ता बनाने लगी है। मेरी पूरी रसोई अशुद्ध कर दी है। अब ठाकुर जी का भोग कैसे लगेगा?”
“स्वरा, यह क्या हरकत है? तुम्हें पता है ना माॅं ने इस घर में कुछ नियम बनाए हैं। वह अपनी रसोई की शुद्धता का कितना ख्याल रखती है।जाओ, पहले नहा कर आओ और आगे से ऐसी कोई गलती दोबारा नहीं होनी चाहिए। एक काम ढंग से नहीं कर सकती।”
“सही कहा, तुमने रमेश। मुझसे कोई भी काम ढंग से नहीं होता।इसलिए मैंने झाड़ू- पोछा और बर्तन के लिए कामवाली बाई लगा ली है। वह थोड़ी ही देर में आती होगी।”
“क्या कहा कामवाली! मेरे जीते जी इस घर में कोई कामवाली बाई नहीं आ सकती। आखिर घर में काम ही कितना है!” सासू माॅं दहाड़ी।
“ठीक है। माॅंजी, यदि कामवाली बाई नहीं आएगी तो फिर तो दो ही उपाय है।पहला यह कि मैं ऑफिस का काम छोड़ दूॅं क्योंकि, मैं घर और ऑफिस का काम एक साथ अकेले नहीं कर सकती हूॅं।”
“लेकिन, यदि तुम ऑफिस का काम छोड़ दोगी तो घर के लोन के इंस्टॉलमेंट कैसे भरेंगे?” रमेश ने तुरंत कहा।
यह सुनते ही स्वरा ने कहा ,”इसका मतलब मैं नौकरी नहीं छोड़ सकती और घर में कामवाली बाई भी नहीं आ सकती तब तो फिर दूसरा ही उपाय बचता है। सॉरी माॅंजी, लेकिन अब से झाड़ू पोछा और बर्तन आपको करना होगा क्योंकि, मैं घर का सारा काम और ऑफिस का काम एक साथ अकेले नहीं कर सकती हूॅं । वैसे भी अपने घर में काम ही कितना है?
यह सुनते ही रमेश स्वरा पर चिल्ला पड़ा
“स्वरा, तुम्हारी यह हिम्मत?”
“रमेश, आवाज नीचे।’’ मैं मुन्नू को बस स्टॉप तक छोड़ने जा रही हूॅं।।जबतक आऊॅं, तब तक विचार कर लेना कि तुम लोगों को कौन सा उपाय मंजूर है।” यह कहकर स्वरा मुन्नू को लेकर निकल गई।
जब वह वापस आई तो उसने देखा घर में कामवाली बाई साफ-सफाई कर रही है। यह देखकर स्वरा मुस्कुराते हुए रेडी होने के लिए अपने रूम की ओर बढ़ गई। उसकी हिम्मत से आखिर उसे उसका खुद का छोटा सा आसमान मिल ही गया था।
धन्यवाद
साप्ताहिक विषय कहानी प्रतियोगिता-#सम्मान की सूखी रोटी
शीर्षक -स्वरा
लेखिका -श्वेता अग्रवाल