सूखी सूखी होली – संजय मृदुल

स्वर्णा की यह कॉलोनी में पहली होली है, उसके पति मानव बैंक में जॉब करते हैं छोटे से कस्बे में रहने वाले मानव की पोस्टिंग प्रमोशन के साथ बैंक के क्षेत्रीय कार्यालय में हो गयी तो घर परिवार छोड़ कर स्वर्णा को भी साथ आना पड़ा। सालों तक ससुराल में बिना पति के रहने के बाद साथ रहने का सुख मिला था उपर से पहली होली जिसमे वो अकेले साथ रहने वाले थे। जहां सास ससुर का कोई बंधन नही। ससुराल का कोई नियम कायदा नही। उसके पांव जमीन पर नही पड़ रहे थे मारे खुशी के। आज होली जलनी है, कॉलोनी में ज्यादा परिचय तो नही हुआ है मगर बच्चे होलिका दहन की तैयारी करते दिखाई दे रहे हैं। रात में सब के साथ मिलकर होली जलाएंगे ये सोच वह मन ही मन खुश रही है। जैसे ससुराल में घर के पास चौराहे पर सब इकट्ठा होते, फाग गाई जाती, विधि विधान से पूजा कर फिर होली जलाते और ढेर सारा गुलाल हवा में बिखर जाता। बड़ो के पैर छूकर आशीर्वाद लेना, छोटो को आशीष देना कितना अच्छा लगता था वहां

उसे रात का बेसब्री से इंतजार था। होली पर बस एक दिन की छुट्टी है इसलिए घर जाना नही हो पायेगा ये सोच मानव थोड़ा उदास था, पहली बार होली बिना परिवार के होगी। मगर स्वर्णा की खुशी देखकर उसे अच्छा लग रहा था। शाम ढलने लगी है चारो तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। ससुराल में तो दोपहर बाद से मार्केट बन्द हो जाते थे। कानफोड़ू गानों की आवाज गूंजने लगती थी, होली है कि हुंकार, और होली के पकवानों की खुशबू से मुंह मे पानी आने लगता।यहां तो कोई हलचल नही। जाने कैसे मनाते होंगे होली?स्वर्णा सोच रही थी।

आठ बजे तो उसने होली का थाल सजाया, बच्चे बता गए थे 8 बजे होलिका दहन होगा। दोनो चौक पर पहुंचे तो देखा गिने चुने लोग इकट्ठा हैं। वो भी ग्रुप बनाकर बातें कर रहे हैं। कुछ मोबाइल से फोटो वीडियो बनाने में मग्न है। स्वर्णा ने होली की पूजा की और आकर मानव के पास खड़ी हो गयी। किसी की कोई प्रतिक्रिया नही। कोई हेलो हाय नही। सब अपने में मगन। भले ज्यादा समय नही हुआ कॉलोनी में आये ऐसा भी नही की फॉर्मल परिचय नही है। एक बुजुर्ग ने होली दहन किया, स्वर्णा ने उन्हें टीका लगाकर पैर छुए तो वो ठिठक से गए। फिर हंसकर बोले खुश रहो बेटी, नए आये हो लगता है यहां। जी कुछ समय हुआ है स्वर्णा ने जवाब दिया।




सब औपचारिक सा चलता रहा। लोग एक दूसरे को टीका लगाकर बधाई देते रहे, बच्चे फिर से सेल्फी लेने में लग गए। महिलाएं बतियाने लगी आपस में और पुरुष प्लान करने लगे कि किसके यहां बैठकर पीने की महफ़िल जमाई जाए।

मानव और स्वर्णा सबसे मिले टीका लगाया और फिर खड़े हो गए। स्वर्णा ने कहा चलो जी यहां रुकने से कोई फायदा नही। वो निकलने लगे तो किसी ने पूछा भी नही।

होली की सुबह से दोनो होली के लिये तैयार होकर बैठ गए। दस बज गए कोई हलचल नही। बच्चो की थोड़ी बहुत आवाज आ जाती थी कुछ कुछ देर बाद। मानव बोले मैं बाहर देख कर आता हूँ शायद कहीं इकट्ठा हुए हों सब।

पूरी कॉलोनी का एक चक्कर मार कर वापस आ गए सूखे के सूखे। जो  बच्चे मिले वो इस डर में रंग नही डाले की नए हैं क्या पता बुरा मान जाएं अंकल।

सुनो, इधर आओ। स्वर्णा को पुकारा मानव ने। जैसे ही वो पास आई हाथों में भरा गुलाल उसके गालों में लगाकर मानव ने कहा, छोड़ो सबको। हम दोनों हैं न फिर किसी की क्या जरूरत, चलो आंगन में जम कर रंग खेलेंगे। ये शहर है यहां के लोग होली को गंवारों का त्योहार मानते हैं। शायद ये अपनी जड़ से उखड़ चुके हैं।

यहां के लोग क्या जाने पारम्परिक त्योहारों की मिठास उसका मजा। हम ऐसे न हो जाएं इसलिये चलो दोनो मिलकर होली खेलें।

म्यूजिक सिस्टम पर होली के गीत लगाए और दोनो शुरू हो गए होली का आनंद लेने को।

©संजय मृदुल

रायपुर

मौलिक एवम अप्रकाशित रचना

संजय मृदुल

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