आत्मोत्सर्ग ….होलिका का – लतिका श्रीवास्तव 

होलिका दहन का समय हो गया है मंजूषा जल्दी आ बेटा क्या कर रही है अभी तक …. मां जोर जोर से आवाज़ लगा रही थीं..उसके ना दिखने पर उनकी आवाज में एक प्रकार की बेचैनी और व्यथा भी झलक जाती थी..मंजूषा रसोई में खामोशी से डिनर की अंतिम डिश मावा वाली सेंवइयां बना रही थी…और अपने अंतर्मन के होलिका दहन में दग्ध हो रही थी… पिछली होली पर घटित वो हादसा उसकी आंखों के समक्ष रह रह कर कौंध रहा था जिसने उसकी पूरी ज़िंदगी बदल दी…

मंजूषा बहुत उच्चशिक्षित थी उसे  मनचाही नौकरी भी मिल गई थी परंतु तभी कार्तिक से उसकी शादी का प्रस्ताव आ गया था …. सास ससुर को अपनी बहू का घर से बाहर निकल कर नौकरी करना कतई पसंद नहीं था…मंजूषा के मां बाप कार्तिक जैसा सुंदर कमाऊ दामाद प्राप्त करने के लिए अपनी बेटी की नौकरी करने की ख्वाहिशों का बलिदान करने को तत्क्षण तैयार हो गए… उस दिन मंजूषा के अंतर्मन में होलिका जल उठी थी जिसमे उसने  अपनी ख्वाहिशों की चादर उतारकर अपने मां बाप की ख्वाहिशों में लपेट दिया था….परिस्थितियों के समक्ष विवश मंजूषा अपनी मनचाही नौकरी त्याग कर खामोशी से शादी के बाद अपने ससुराल  को अपना घर मानते हुए  उत्साह से अपने कर्तव्यों में कर्मरत हो गई थी…

….मां जी..इस बार हम घर पर ही होली के रंग बनाएंगे इनके भी सभी दोस्तों और पिताजी के भी सभी बुजुर्ग मित्रों को बुलाएंगे….आप और मैं मिल कर सबकी दावत की पूरी व्यवस्था कर लेंगे ….मंजूषा बहुत उत्साह से कार्तिक और मां के सामने एक हफ्ते बाद आने वाली होली की  योजना बता रही थी….अपने मायके में भी वो अपनी मां के साथ हमेशा ऐसे ही उत्साह से घर पर ही सारी तैयारियां करवाती थी।

दो तीन बार कहने पर भी जब किसी ने ध्यान नहीं दिया तो मंजूषा ने थोड़ी ऊंची आवाज़ में पूछ ही लिया क्यों मेरा प्लान ठीक है ना!!खूब मजा आयेगा है ना!!

एकदम बकवास प्लान है तुम्हारा … उतना ही बकवास जितनी तुम खुद हो….क्यों ठीक कहा न मां मैने!!




कार्तिक के गुर्राकर कहने पर मां ने कुछ नहीं कहा था….पर उनके चेहरे की छिपी मुस्कान मंजूषा की नजरो से छिप नहीं पाई थी

यहां मेरे दोस्तों को बुलाओगी इतनी बकवास तैयारी में!!ये तुमने सोचा भी कैसे….हमेशा की तरह मैं इस बार भी अपने दोस्तों के साथ उनके घर पर ही होली मनाने जाऊंगा तुम लोगों को यहां जो करना हो करो…कार्तिक ने बहुत तल्ख लहजे में बात समाप्त कर दी थी।

कार्तिक की दोस्तों की पार्टी का मतलब …..वो जानती थी।

फिर मंजूषा ने कुछ भी नही कहा था….होली के दिन उसने खामोशी से ही सारे पकवान बना लिए थे….सुबह का खाना  बनाकर जैसे ही वो किचेन से निकली ….तभी मोबाइल बज उठा था… कार्तिक का दोस्त शमन बोल रहा हूं भाभी जी ….वो….वो….आगे के शब्द मानो उलझ से गए थे…!मंजूषा का कलेजा कांप गया था…हमेशा की तरह उस दिन भी बहुत ज्यादा ड्रिंक की थी कार्तिक ने…

…बेतहाशा ड्रिंक लेने की उसकी इसी आदत ने  मंजूषा की ज़िंदगी को नर्क बना दिया था….शानदार नौकरी और अच्छा परिवार देख कर ही मां बाबूजी ने मंजूषा के लिए कार्तिक को पसंद किया था ….पर इस नशे की आदत ने कार्तिक को तबाही का रास्ता ही दिखाया था….अपनी शादी के दिन भी मंडप में उससे बैठा नहीं जा रहा था…कई बार झूमता सा उसका शरीर जमीन पर गिरते हुए संभाला गया था …ऐसा अकल्पनीय दृश्य देख कर ही तभी मंजूषा का मासूम दिल अपनी आने वाली जिंदगी की कल्पना कर दहल गया था….!

शादी के बाद से ही भयावह ज़िंदगी का अध्याय उसके लिए खुल चुका था…कार्तिक का बेलगाम मर्यादा हीन आचरण,मासिक आमदनी की नशेबाजी में बर्बादी और बेरोकटोक उश्रिंखल जीवन शैली और सास ससुर का एकतरफा पारंपरिक पुत्र मोह  मंजूषा के अंतर्मन का होलिका दहन बन जाता था…अपने दोनो अबोध बच्चों की आने वाली ज़िंदगी की अनवरत चिंता  उस घर को छोड़कर मायके या अन्यत्र जाने के उसके इरादे को हर बार बेड़ियां पहना देते थे….!

…और आज ये दुखद हादसा !!नशे की हालत में कार्तिक दोस्तों के साथ डांस करता गया तभी उसका पैर ऐसा फिसला कि वो सीढ़ियों से गिरता हुआ सीधे नीचे गिरा और फिर उठ नहीं पाया

वास्तव में नशे की आदत घर का सर्वनाश ही करती हैं

कार्तिक के माता पिता तो मानो जड़ हो गए थे ….!!फिर भी ऐसी दुरूह परिस्थिति में भी अपनी बहू को ही दोषी ठहराने से बाज नहीं आए थे

चल बेटी अपने घर चल …बहुत सह लिया तूने….दामाद जी और अपने सास ससुर की थोथी सामाजिक प्रतिष्ठा को बचाने की खातिर कब तक अपनी जिंदगी कुर्बान करती रहेगी…यूं अपने ही अरमानों की होली जलाती रहेगी…अब तो दामाद जी भी नहीं रहे अब चल बेटा अपनी जिंदगी अपनी तरह से जी ले…चल….मां की सहानुभूति और ममत्व ने मंजूषा के असीमित धैर्य के सारे बांध तोड़ दिए थे… आंसुओं की बाढ़ उफन आई थी…!

मंजूषा की मां बेसुध बेटी को अपने साथ घर ले आई थीं

समय के साथ मंजूषा अपने दिल के घाव भरने की तैयारी करने लगी थी…एक वर्ष बीतने के बाद आज फिर होली ने पुराने  घाव खोल दिए थे….अचानक मां की आवाज के साथ कुछ और जानी पहचानी आवाजों ने मंजूषा को किचन से बाहर आने पर विवश कर दिया था

अरे मांजी बाबूजी आप लोग ….अकस्मात अपने सास ससुर को अपने घर आया देख कर मंजूषा सकपका सी गई थी..ससुराल ले जाने का एक अनजाना भय अचानक उसके मासूम कलेजे को आतंकित करने लगा था।

..”हां बहू हम जानते हैं तुम्हें हमारी जरूरत नहीं है परंतु अब हमें तुम्हारी जरूरत है….चलो हम लोगों के साथ हम तुम्हें और बच्चों को लेने आए हैं….

शायद अब पुत्र मोह से आजाद उनका दिल अपनी बहू की वर्षो की खामोश यातनाओं को महसूस कर उठा था या उनका अकेलापन या पुत्र की मृत्यु के पश्चात योग्य बहू को मिलने वाली अनुकंपा नियुक्ति का आदेश  उन्हें खीच कर यहां ले आया था…ये देखो ये रहा तुम्हारा नौकरी का नियुक्ति पत्र….बाबूजी ने मंजूषा की ओर क्षमाप्रार्थी नजरो से देखते हुए कहा तो एक बार फिर से मंजूषा के अंतर्मन में होलिका दहन होने लगा था..नौकरी ….!!..जो नौकरी इन लोगों ने मेरी लाख मिन्नतों पर भी छुड़वा दी थी..आज अपने स्वार्थ के लिए खुद उसीकी मिन्नत कर रहे हैं….अंतर्मन में सूखी लकड़ियां चटक कर जल उठी थीं…परंतु आज फिर स्व की भावना धूमिल हो गई थी

एक बार फिर से मंजूषा ने अपनी ख्वाहिशों की चादर उतारकर अपने सास ससुर की ख्वाहिशों में लपेट दी थी..खामोशी से मां बाबूजी के साथ ससुराल आ गई थी

होलिका दहन के बाद आज ससुराल में मंजूषा के कारण होली के रंग बिखर गए थे।

#संघर्ष 

लतिका श्रीवास्तव

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