अपने घर की लक्ष्मी और अन्नपूर्णा रश्मि…
जिसके हाथों में ऐसा जादू था जिससे वो साधारण से खाने को भी इतना स्वादिष्ट बना देती कि,खाने वाला तृप्त हो जाता।
उसके पिताजी हमेशा कहा करते कि, मेरी रश्मि तो साक्षात अन्नपूर्णा का स्वरूप है…
रश्मि हर दिन भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यंजन बना कर सबको खिलाया करती…
सीमित संसाधनों में भी भोजन बनाने की उसकी कला के सभी कायल थे।
उसे ये हूनर अपने घर के सांझा चूल्हे से मिला था जिसमें मां ताई चाची सब मिलजुल कर भोजन बनाया करती थी…
रश्मि में अपनी मां ताई और चाची तीनों का समावेश था..
उसके घरवाले सदैव कहा करते थे कि हमारी रश्मि तो अपने पाक कला से ससुराल में सबका मन मोह लेगी..
समय के साथ वो समय भी आया जब रश्मि तीन बहूओं में सबसे बड़ी बहू बन ससुराल में आई।
पहली रसोई के रश्म के दौरान हीं उसके द्वारा बनाए गए खाने की सबने खूब प्रशंसा की।
उसके पैतृक गांव में तो चूल्हा सांझा हीं था परंतु बहुत सारे लोग शहरों में बस गये थे।
रश्मि अपने परिवार के साथ शहर में चली आई।
एक बड़े घर से आई हुई बेटी जब बड़ी बहू बनी तो उसे घर संभालते जरा भी देर नहीं लगी…
दो चार दिनों तक सांस ने कहा कि अभी तुम रसोई से दूर रहो..
हमारे घर के भोजन का तौर-तरीका सीख लो फिर पूरी उम्र तो तुम्हें हीं बनाना है।
रश्मि को अपने सास को भोजन बनाते देख बड़ा हीं अजीब सा लगता क्यों कि वो भोजन तो बनाती मगर इतनी फुहड़ता और भद्दे तरीके से कि रश्मि की तो भोजन की इच्छा हीं मर जाती…
उसकी ननद घर के किसी भी कार्य में मां की कोई मदद नहीं करती…
एक अच्छी सी मुहूर्त देखकर रश्मि को शहर में भी पहली रसोई की रश्म करवाई गई जिसके बाद वो हर दिन भोजन बनाने लगी..
भोजन क्या ऐसा समझो ठाकुर का प्रसाद हुआ करता, उसका बनाया भोजन…
लेकिन कहते हैं कि जिसने जो खाया है उसे वहीं अच्छा लगेगा चाहे वो अच्छा हो या खराब…
वहीं रश्मि के साथ भी हुआ..
केवल एक माह हीं बीते थे कि सास-ससुर ने रंग दिखाने शुरू कर दिए और शुरू हुआ उसके बनाए भोजन को लेकर तानों और कटाक्ष का दौर…
रश्मि तो समझ भी नहीं पा रही थी कि उसकी गलती क्या और कहां है???
क्या अच्छा भोजन बनाना गुनाह है??
नयी जगह नये लोग..
भोजन बनाना उसके लिए उसका सबसे पसंदीदा शौक था और उसके लिए उसे इतने ताने???
कभी रोते-रोते पति के साथ झगड़ पड़ती तो कभी स्वयं को अकेले कमरे में बंद कर लेती…
समय गुजरा…
उसकी दो देवरानियां भी आ गई..
उसके सास-ससुर ने उनके साथ भी वहीं किया।
वो दोनों भी रश्मि से हीं पूछ कर रसोई बनाया करती क्यों कि तीनों जेठानी देवरानी सहेलियों की भांति घर में रहा करती..
अपना सुख दुःख बांटा करती…
ससुर हर बार कहते कि मेरे पैसे से घर चलता है तो भोजन भी मेरी पसंद का बनना चाहिए…
हर दिन एक नया बवंडर..
एक नयी फरमाइश..
भोजन को लेकर नया नया तमाशा…
ससुर को बस इसी बात का अहंकार रहता कि ये घर मेरे पैसे से चलता है.. तो मैं जो कहूंगा वो बनेगा और वैसा बनेगा..
जिसे अच्छा लगे वो यहां रहे वरना इस घर से निकल जाए।
बहूएं अच्छे अच्छे घरों से आईं थीं मगर एक ऐसे घर में आ गयी जहां उन्हें ना तो कोई सम्मान मिलता और ना हीं कोई स्नेह…
क्यों कि उनके पति एक साधारण नौकरी करते थे वो अपने परिवार का भार उठाने में सक्षम नहीं थे और इस बात का सीधा असर पड़ा उनके सांझा चूल्हे पर..
कहने भर को तो चूल्हा सांझा था मगर सबके मन आपस में बांट चुके थे..
भोजन तो बनता मगर उसमें स्वाद की जगह महज एक औपचारिकता रह जाती..
ना कोई स्वाद ना कोई अपनापन..
क्यों कि आप कितनी भी पाक कला में निपुण क्यों ना हो भोजन का स्वाद तभी आता है जब भोजन प्यार और अपनत्व की भावना से बनाई जाए…
धीरे-धीरे घर की स्थिति ऐसी आई हर दिन क्लेश होने लगा..
घर के खर्चे तो बढ़ गये मगर कमाने वाले नहीं..
सबके मन में ये भावना घर करने लगी कि मैं ज्यादा खर्च कर रहा हूं..
बहूओं का तालमेल भी गड़बड़ाने लगा…
उनकी दुर्बल आर्थिक स्थिति उनके आपसी सामंजस्य पर भारी पड़ने लगी ..
अब तो चूल्हे का बंटवारा हीं अंतिम विकल्प रह गया…
सास-ससुर को सबसे अधिक भरोसा अपने छोटे और आर्थिक स्थिति से मजबूत बेटे पर था..
अतः उन्होंने उसके साथ हीं रहना स्वीकार किया…
बंटवारे की तिथि तय कर दी गई..
सांझा रसोई में जिसका जो सामान था सब अपने अपने साथ रखने लगीं…
गैस चूल्हा रश्मि का था मगर सिलिंडर सास-ससुर का था…
छोटी बहू ने सिलिंडर से चूल्हे को अलग कर दिया और रश्मि
से बोली – ले लो दीदी अपना चूल्हा…
रश्मि उस चूल्हे को टकटकी लगाए देखती रही आंखों से झरझर आंसू बह रहे थे..
रहने दें छोटी इसे यहीं रहने दें..
इसी चूल्हे पर मैंने अपनी पहली रसोई बनाई थी।
जब मैंने इस पर स्वास्तिक का निशान बना कर भोजन बनाना आरंभ किया था तब कभी नहीं सोचा था कि ये सांझा चूल्हा एक दिन एकल हो जाएगा..
बड़ी बहू रश्मि सिसकियां भरती हुई धीरे-धीरे अपनी नयी गृहस्थी बसाने चल पड़ी ..
आंगन में झुककर वहां की मिट्टी को स्पर्श किया और बिना पलटे घर से निकल पड़ी.. …
घर के मुखिया के व्यर्थ के अहंकार ने एक हंसते खेलते संयुक्त परिवार को अकेलेपन के अंधेरे में डूबा दिया।
लेखिका : डोली पाठक
#संयुक्त परिवार