सास “मुर्गी” नहीं बहू “बंदरिया” है – मीनू झा 

क्या नाम है तुम्हारा बेटा..–लगभग रोज पार्क में मिल रही उन आंटी ने उस दिन प्रिया को टोक ही दिया।

प्रिया…आप हमारे बिल्कुल सामने वाले घर में आई है ना आंटी…भैया की मम्मी है या भाभी की??

बेटे बहू है मेरे सुकेश और रिया…आठ दिन हो गए आए यहां मुझे।

आंटी बेटे के घर में दिन नहीं गिनने चाहिए..रहिए मस्ती से और क्या…भाभी ने तो हर काम के लिए बाईं लगा ही रखी है,देखती हूं मैं बालकनी से,अच्छा है ना आराम से खाइए, पीजिए,घुमिए फिरिये और हरि नाम लीजिए और क्या??

इसी की तो आदत नहीं है ना बेटी …गांव में रहती हूं घर द्वार,चूल्हा चौकी गाय बछड़े करते करते शाम हो जाती फिर अगल बगल वालियों के साथ बतिया लेती…और सांझ बाती करके खाकर सो जाती …समय कब बीत जाता था पता भी नहीं चलता था यहां तो घड़ी देख देखकर समय काटती हूं

भैया इकलौते बच्चे हैं क्या आपके??

नहीं..एक बेटा और है मुकेश वो अभी पढ़ाई कर रहा है इंजीनियर बनेगा वो भी..जिस साल उसका दाखिला हुआ उसी साल उनके पिता चल बसे…उम्र तो नहीं थी जाने की पर होनी पर किसका बस है…सुकेश ने आने कहा था आपने पास पर बुढ़ी सास और घर,पशु सबको किसके भरोसे छोड़ती..और भी दो देवर है मेरे,पर सास की उन बहुओं से बिल्कुल नहीं जमती..और अब तो मैं अकेली ही हूं तो दोनों सास बहू को एक दूसरे का साथ मिल जाता है…पर सुकेश बड़े दिनों से जिद कर रहा था तो सोचा एक महीने के लिए हो आती हूं,सास तो कहीं नहीं जाना चाहती तो उनको बड़ी मुश्किल से मनाकर छोटे देवर देवरानी के पास छोड़ आई हूं।

इधर‌ बहू बड़े घर की है ना,सुकेश के साथ पढ़ती थी…एक तो पढ़ी लिखी दूसरा अमीर खानदान की..भला उसका और मेरा क्या मेल??आती हूं पैर छूकर प्रणाम कर लेती है उसी में खुश हो लेती हूं…बात तो ना के बराबर होती है क्योंकि ज्यादातर वो अंग्रेजी ही बोलती है,पर अक्सर कहती रहती हैं सुकेश से कि जब मम्मीजी का मन नहीं लग रहा यहां तो क्यों कैद करके रखा है सुकेश तुमने इन्हें…पर बेटा है ना सुकेश उसका दिल करता है मां पास रहें थोड़े दिन ही सही… मैं भी उसी को देख बेबस हो जाती हूं।



— आंटी को तो मानों टोकने भर का ही इंतजार था।

अच्छा…पर आराम करने की आदत डाल लीजिए आंटी..दो बेटे हैं आपके दोनों लायक…अभी तो आपकी ज्यादा उम्र नहीं तो गांव में रह रही है पर कल को तो इनके पास ही रहना होगा ना….।

हम्मम… शायद सही ही कह रही हो बेटा–कुछ सोचती हुई बोली वो ।

आंटी…अब मैं चलूं शाम होने को है तो ठंड बढ़ रही है… बहुत छोटा है ना ये अभी—गोद में सो रहे सात महीने के नानू की तरफ इशारा करके बोली प्रिया।

अगले दिन फिर जब प्रिया पार्क पहुंची तो आंटी पहले से बैठी हुई मिली।हाल समाचार के बाद आंटी बोल उठी

बुरा ना मानो तो एक बात बोलूं बेटा…तुम्हारे पास अगर ऊन की गोलियां और सलाईयां पड़ी हो तो दोगी मुझे…. मुझे स्वेटर बनाने का बहुत शौक रहा है….अपने दोनों बच्चों को मैंने अपने हाथ का स्वेटर ही पहनाया था उनके काॅलेज तक…और कोई समझ भी नहीं पाता था कि वो हाथ के बने हैं.. मुकेश तो अब दक्षिण भारत में है वहां सर्दी पड़ती नहीं…और सुकेश….रिया को सिर्फ ब्रांडेड कपड़े ही पसंद है तो मैंने अब बनाना छोड़ दिया है

फिर आप ऊन और सलाईयां क्यों ढूंढ रही हैं आंटी–प्रिया पूछ बैठी

तुम्हारा बाबू छोटा सा है ना और इसकी पहली सर्दी है…हाथ से बने स्वेटर की गर्माहट से इसे ठंड का एहसास नहीं होगा…भले घर में ही पहनाना पर अच्छा रहेगा इसके लिए।

आंटी की बातों में इतना अपनापन और स्नेह था कि प्रिया का मन भर आया…उसकी मां तो थी नहीं,सास भी एक से एक स्वेटर बनाती थी पर आंखों से लाचार होने के बाद कुछ नहीं कर पाती अब तो।

आंटी…मेरे पास तो फिलहाल ऊन और सलाईयां नहीं है पर कल संडे है ना तो हम बाहर जाने वाले हैं, वहां से मैं पक्का ऊन लेती आऊंगी…आप बना देना–प्रिया ने कहा।



आंटी के चेहरे पर आए संतोष को देखकर प्रिया को बहुत अच्छा लगा।

अगले दिन उसका कोई प्लान नहीं था मार्केट का और पति ने मना भी किया कि इन चक्करों में मत पड़ो, पर वो नानू को पति के पास छोड़कर अकेली मार्केट जाकर ढेर सारे रंग बिरंगे अच्छे ऊन के गोले,सलाईयां,सुई वगैरह ले आई।इतने सारे ऊन देखकर आंटी बच्चों की तरह खुश हो गई…।

इतने छोटे बच्चे का तो मैं एक दिन में एक स्वेटर बना दूंगी और देखना तुम कहीं से पता नहीं कर पाओगी कि ये हाथ से बने हैं या मशीन से

आंटी उतना भी स्ट्रेस लेने की जरूरत नहीं है,आपके कंधों और हाथों में दर्द ना हो जाए आप आराम से बनाना..कौन सा अभी भयंकर ठंड आ गई है.. थैंक्यू आंटी इतना सोचने के लिए ।

बेटा… धन्यवाद तो मुझे करना चाहिए तुम्हें कि तुमने मुझे काम दे दिया…दस दिन दस युगों की तरह कटे हैं मेरे अभी तक और देखना अब ये ऊन और सलाईयां मिल गई ना… यहां बचे दिन कब कट जाएंगे मुझे भी पता नहीं चलेगा।

बालकनी से प्रिया देखती…आंटी जब बाहर निकलती उनके हाथ में ऊन और सलाईयां होती…और सच में दो दिन बाद ही वो एक बहुत ही खुबसूरत सफेद और गुलाबी रंग की हाईनेक पुलोवर बनाकर ले आई…

सच में आपके हाथों में तो जादू है आंटी…इतना सुंदर बनाया है आपने…एक टैग लगाकर शो रूम में टांग दें तो हजार बारह सौ आराम से आ जाएंगे… बहुत प्यारा बनाया है आपने

अभी तो दूसरी स्वेटर बना रही हूं उसके बाद ऐसी ही टोपी और जुराबें भी बना दूंगी..सेट लगाकर पहनाना बड़ा प्यारा लगेगा नानू इसमें —आंटी के मुंह से तारीफ सुनकर शब्द नहीं निकल रहे थे।

प्रिया भी खुश थी कि उसके बच्चे को नानी दादी ना सही किसी बड़े बुजुर्ग के हाथों से बना स्वेटर और उसमें छुपा प्रेम और आशीष तो मिल रहा है।

पर फिर दो दिन से आंटी ना बालकनी में दिखी ना पार्क में आई तो प्रिया को चिंता सी हुई कि कहीं वो बीमार तो नहीं पड़ गई,तीसरे दिन प्रिया उनके घर जाने का सोच ही रही थी कि दोपहर को आंटी हड़बड़ाई सी आई..और उनके हाथ में वो झोला था जो प्रिया ने उन्हें ऊन भरकर दिया था।

क्या बात है आंटी सब ठीक तो है ना??आप कहां थी दो दिन से?



बेटा… मैं तुमसे माफी मांगने आई हूं

किस बात की माफी??

मैं गांव जा रही हूं…मेरी सास की तबीयत बहुत बिगड़ गई है…तुमसे इतने सारे ऊन मंगाकर मैंने तुम्हारे पैसे बर्बाद करा दिये इसके लिए मुझे माफ़ कर दो बेटा–कहते हुए वो प्रिया के कदमों पर झुकने लगीं।

अरे ये आप ये क्या कर रही है आप मुझसे इतनी बड़ी हैं, कोई बात नहीं परिस्थितियां बताकर कहां आती है आपका इसमें क्या दोष,आपका अभी अपनी सास के पास होना ज्यादा जरूरी है….पर आप बुरा ना माने आंटी तो ये ऊन वगैरह अपने साथ लेती जाएं…जब दुबारा आएंगी तब तक बनाकर लेते आना या कभी भैया गांव गए तो उनसे ही भिजवा देना…मेरे पास तो ऐसे भी पड़े ही रहेंगे…ना मुझे बीनना आता है ना आसपास कोई स्वेटर बनाता है आजकल…।

मन तो मेरा भी था पर वो क्या है बेटा…—आंटी को कोई जवाब ना सुझता देखकर प्रिया को पता चल गया कि आंटी के ऊन लौटाने और वापस जाने की वजह उनकी सास नहीं कोई घरेलू बात है…शायद उनकी माॅर्डन और हाई क्लास से जुड़ी बहू को अपनी सास की ये मिडिल क्लास बात पसंद ना आई हो…वो ऐसे भी कहां किसी से बात करती थी..सुना था कि कुछ दिन के लिए ही इस सोसायटी में आई है,एक बड़ी सोसायटी में एक बंगला बुक किया हुआ है,जिसके बनते ही शिफ्ट करने की योजना है।

कोई बात नहीं आंटी…आप बेफिक्र होकर जाओ और मन से अपनी सास की सेवा करना ताकि वो जल्दी से ठीक हो जाएं…और मेरा फ़ोन नंबर रख लो जब मन करे बात कर लेना—प्रिया ने समझाया

चाय पिलाकर और पूरी इज्ज़त के साथ आंटी को विदा कर प्रिया अंदर आई तो झोले में एक स्वेटर जो आंटी बना रही थी वो पूरा बना हुआ रखा था और टोपी आधी बनी थी और एक जुराब बना था…बांकी के ऊन जस के तस रखें थे…बेचारी आंटी इधर से कितनी खुश दिखने लगी थी…और स्वेटर की तारीफ से जो उनके चेहरे पर खुशी आती थी वो तो अद्भुत थी…।

अपनी पसंद का काम मिल जाए तो इंसान रेगिस्तान में भी मन लगा लेता है…पर शायद आंटी की बहू को उनका खुश रहना पसंद नहीं आया…सोच रही होंगी खुश रहने लगी तो कहीं यही ना रह जाए… इसलिए जल्दी से चलता कर दिया आंटी को…।

शाम को पति को भी वही बताएगी जो आंटी ने उससे कहा वरना वो भी बिगड़ेंगे कि मना किया था इन चक्करों में मत पड़ो…पर उन्होंने सारा ऊन नहीं देखा था… दोनों स्वेटर दिखा देगी और बांकी का ऊन बेड बाॅक्स में रखकर कह देगी कि एक ही स्वेटर का ऊन रह गया है…

पर जब जब उस अधूरी टोपी और अकेली जुराब पर नजर जाएगी तो उन आंटी का उतरा चेहरा नजर में जरूर उतर आएगा..प्रिया के लिए आंटी के हाथ के बने वो स्वेटर कितने अमूल्य थे और उनकी बहू के लिए दो कौड़ी की चीज…जिसके पास जो होता है वो उसका महत्व कहां समझता है..तभी तो “घर की मुर्गी दाल बराबर ” कहावत बनी है।

काश वो कह पाती आंटी से आंटी आप घर की मुर्गी दाल बराबर नहीं आपकी बहू बंदरिया हैं जिसे अदरक का स्वाद नहीं पता…।

मीनू झा 

 

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