जैसे ही वह कमरे से निकली माँ ने एक झनाटेदार थप्पड़ उसके गाल पर जड़ दिया। वह अचानक से पड़े इस थप्पड़ से सहम गई ।
माँ जी आप ….आपने मुझे थप्पड़ क्यूँ…?
“मर्यादा में रहो समझी तुम!”
“चलो जाओ अपने कमरे में संस्कारहीन कहीं की “
माँ के गुस्से को देखते हुए सलोनी चुपचाप से वहाँ से चली गई पर वह समझ नहीं पाई थी कि माँ जी अचानक इतनी उग्र कैसे हो गई ।
अब तक तो ऐसा रूप उसने सासु माँ का कभी नहीं देखा था। सलोनी बहुत देर तक अपने गाल को पकड़े रोती रही। जाने कौन सा गुनाह था कि आज मुझे …..
वह सोच रही थी कि जब से देवर बीमार पड़े हैं तब से दूध और दवा देने रोज ही तो जाती है उनके कमरे में फिर आज क्या हुआ….?”
मुश्किल से वह अठारह उन्नीस साल की थी जब वह ब्याह कर आई थी इस घर में। चार भाई बहनों में पति सबसे बड़े थे,उसके बाद देवर का नंबर था बाकी दोनों ननद इनसे भी छोटी थीं। शादी के पहले ही दिन पति ने समझा दिया था कि भले ही वे सौतेले हैं पर कभी भी इसकी भनक उसके किसी भी
प्रकार के व्यवहार से इन्हें नहीं लगना चाहिए। उन्होंने कहा था कि मैं चाहता तो इस सच्चाई को तुमसे छुपा सकता था लेकिन तुम मेरी अर्धांगिनी हो और अब इस परिवार की सदस्य हो इसलिए तुम्हें हक है कि तुम सब-कुछ जान लो। उन्होंने परिवार के सभी सदस्यों का एक एक कर के परिचय दिया।
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उसी दिन से सलोनी ने गांठ बाँध लिया। वह हर सम्भव प्रयास करती थी कि सारे परिवार के लोग उससे खुश रहें। सबको खिलाकर खाना, सबका ख्याल रखना,जब घर के सारे लोग सो जाए तब अंत में सोने जाना। सलोनी की यही दिनचर्या थी। घर में एक ससुर ही थे जिनकी नजर में सलोनी एक संस्कारी बहु थी। वे ज्यादातर बीमार ही रहते थे जिनकी सेवा सुश्रुसा की जिम्मेदारी सलोनी पर ही थी। उनको कभी-कभी दया आती थी सलोनी पर बाकि लोगों को तो बस एक कामवाली बाई मिल गई थी मुफ्त में।
सलोनी ने हमेशा यही महसुस किया था कि चाहे वह कुछ भी कर ले पर सबका व्यवहार उसके प्रति सौतेला ही था। रिश्ते में तो सब छोटे थे पर जरा सी चूक हुई नहीं कि उसके संस्कारों की घंटी बजा दी जाती थी। दोनों छोटी ननदें जलती हुई माचिस की तीली थीं। हर घड़ी सलोनी के कामों में नुक्ताचीनी निकालती रहतीं थीं। उससे भी मन नहीं भरता तो चुगली कर उसे डांट खिलवाती।
कमरे में आई तो पति गहरी नींद में सो रहे थे। उनकी नींद भंग न हो जाए इसलिए अपने हिचकियों को अपने हाथों से दबाते हुए बगल में पड़े सोफ़े पर बैठ गई। उनपर नजर पड़ते ही सलोनी के दर्द कुछ कम हो गए। चलो जैसा भी परिवार मिला हो। पति तो देवता ही पाया है उसने।
वह सोचने लगी कि अगर वह भी बाकि लोगों की तरह होते तो क्या होता! बिन माँ की बच्ची सलोनी को मायके में प्यार कम ही मिला था। लेकिन संस्कार देने में कोई कोताही नहीं की गई थी। पापा फौजी थे वो हमेशा उससे दूर ही रहे तो उसका पालन पोषण दादा -दादी चाचा- चाची ने किया था। इन्टर पास करते ही शादी के लिए तैयारियां शुरू हो गई थी।शादी के लिए उसका मन बिल्कुल भी तैयार नहीं था। वह और भी पढ़ना चाहती थी पर माँ थी नहीं मन की बात सुनता कौन?
परिवार वालों ने मिलजुलकर शादी कर दी। बिदाई के समय पापा से गले लगकर खूब रोई। पिता ने दहेज के साथ- साथ संस्कारों की गठरी भी उसे दी जिसे हरदम साथ रखने की नसीहत भी थी कि उसे गठरी की गांठ को कस कर बाँध कर रखना है। पापा ने उससे वादा लिया था कि वह कभी भी उनके द्वारा दिए गए संस्कारों पर आंच नहीं आने देगी।
शादी के इन चार सालों में बस एक बार पग- फेरे के समय वह अपने मायके गई थी। उसके बाद कोई न कोई बहाना बनाकर ससुराल वालों द्वारा उसे वहाँ जाने से रोक दिया जाता था। मैके से ही कभी -कभी मिलने के लिए चाचा -चाची भाई- बहन आ जाया करते थे। सब कुशल मंगल पूछते रहते पर सलोनी हाँ ठीक हुँ में सिर हिलाकर चुप हो जाती। उसे पता था कि उनके जाते ही सब उसके पीछे हाथ धोकर पड़ जायेंगे। फिर उसके हिस्से आंसुओं के अलावा कुछ नहीं बचेगा। यही सब सोचते -सोचते जाने कब वह सो गई।
सुबह सासु माँ की झल्लाहट भरे शिकायत से उसकी नींद खुली। वह पति के ऊपर भड़की हुई थी। बात क्या है यह जानने के लिए वह बाहर निकली। उसे देखते ही सासु माँ उसपर बिफर पड़ी। घर के सभी सदस्य वहां खड़े थे।
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सलोनी के तरफ हाथ नचाते हुए बोली- ” मैं पूछना चाहती हूं कि यह महारानी जी यह क्या नया गुल खिला रहीं हैं सारे संस्कारों को घोड़ कर पी गई है क्या तुम्हारी पत्नी ?”
“अरे माँ हुआ क्या?” कुछ बताओगी भी।
“सुनोगे तो पाँव के नीचे से जमीन खिसक जाएगी समझे!”
“संस्कारहीन कहीं की।”
सलोनी को समझ में नहीं आ रहा था कि वह कहना क्या चाहती हैं।
ससुर जी चीखने की आवाज सुनकर बिस्तर से उठ कर बैठक में आ चुके थे। आते ही उन्होंने कहा यह सुबह- सुबह तुम्हारा ब्लडप्रेशर क्यों बढ़ा हुआ है?
“आप तो चुप ही रहिये ।खबरदार जो यहां पर आपने बहु का पक्ष लिया।”
सास की दहाड़ सुनकर ससुर जी थोड़े झेप गये।
“देवर ने कमरे में से लेटे -लेटे ही पूछा क्या हुआ माँ कुछ बताओ भी।”
सास मूंह बीचकाते हुए बोली-
“क्या बताऊँ मैं! मेरी तो जुबान कटी जा रही है बताते हुए।
पति ने थोड़ा सख्ती से कहा-” पहेलियां मत बूझाओ माँ हुआ क्या है?”
बेटा मैं न कहती थी कि लाना है तो संस्कार वाले घर से बहु लाओ पर मेरी बातों का असर ही कहां होता है। चार दिन से मैं देख रही थी। सबके सो जाने के बाद यह तुम्हारे भाई के कमरे में यह डोरे डालने जाती जाती थी। कल मैंने इसे निकलते देखा मेरे तमाचे के निशान अब भी उसके गाल पर होगा। बुलाकर देख लो। संस्कारहीन कहीं की। सभी भौचक्के सलोनी के तरफ देखने लगे।
छोटी ननद ने मूंह पर हाथ रखकर बोला- “छी …छी…भाभी मुझे तो शर्म आ रही है आपको भाभी कहते हुए।
सलोनी शर्म और क्षोभ से रोने लगी ।
“बस”
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“बस करो माँ बहुत हो गया संस्कारहीन वह नहीं है, बल्कि मेरा पूरा परिवार है । तुम लोग इतना नीचे मत गिरो, सलोनी को गिराने में। मैंने भेजा था उसे दूध ले जाने के लिए कमरे में। तुम्हारा बेटा बीमार है इसकी चिंता तो तुम्हें नहीं है लेकिन कमरे में कौन गया इसकी निगरानी तुम कर रही थी। संस्कार की बात करती हो तुम। चार साल से तुम लोगों की जिल्लत वह बरदाश्त कर रही है। कभी उसने किसी से शिकायत नहीं की। यहां तक की तुम्हारे थप्पड़ खाकर भी वह पूछने नहीं गई कि तुमने क्यों मारा। मुझे भी कुछ नहीं बताया। अब और क्या प्रमाण चाहिए तुम्हें संस्कारी होने का……।
पति ने रोती हुई सलोनी का हाथ थामा और उसके आंसू पोछते हुए कहा- “मैंने पूरे परिवार का ख्याल रखने के लिए कहा था तुम्हें अन्याय सहने के लिए नहीं चलो यहां से इन्होंने अपने संस्कार का परिचय दिया है इन्हें माफ कर दो।”
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ .अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर,बिहार
(GKK T)