संकटमोचक – डॉ. पारुल अग्रवाल

जब करोना का प्रथम लहर आई तो हम लोगों में किसी ने नहीं सोचा था कि ये छोटा सा सूक्ष्मदर्शी इतना विकराल रूप धारण कर लेगा और पूरी दुनिया को अपने आतंक से हिला से देगा । प्रथम लहर में लगा लॉकडाउन जिसे हम सबने थोड़े दिन की बंदिश समझा था और सोचा था चलो आज के व्यस्तता के बंधन से कुछ समय तो परिवार के साथ बीतेगा। पर भविष्य के गर्त में क्या छुपा होता है, हम नहीं जानते। 

धीरे धीरे एक साल बीतने को आया, थोड़ा सा वायरस की स्थिति में नियंत्रण भी हुआ। सबको लगने लगा कि शायद अब हम लोगों को एक साल से लगे कड़े प्रतिबंध से छुटकारा मिल जाएगा। पर तभी समाचार पत्रों और चैनल्स में दूसरे देशों के अंदर करोना की दूसरी लहर की खबर आने लगी, साथ साथ सभी वैज्ञानिक और डॉक्टर्स ने इसको वायरस का ओर भी खतरनाक स्वरूप बताया। हमारे देश में भी इस दूसरी लहर ने दस्तक दे दी थी हालांकि वैक्सीन भी आ गई थी पर अभी भी एक बड़ा आयु वर्ग उससे वंचित था।

अप्रैल 2021 के प्रथम सप्ताह से इस वायरस का मौत का तांडव शुरू हो गया था। मैं सरकारी स्कूल में अध्यापिका हूं और साथ साथ एडमिशन संबंधी काम विधालय की वरिष्ठ अध्यापिका के साथ देखती थी। मार्च और अप्रैल का समय सरकारी स्कूल में दाखिले का होता है। वैसे तो प्रथम लहर के बाद विद्यार्थी घर से ही ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे थे

 पर हम अध्यापक लोगों का स्कूल जाना अनिवार्य था। वैसे भी हमारा सामाजिक तंत्र शिक्षकों के लिए थोड़ा असंवेदनशील है। खैर अब विभागीय आदेश थे तो स्कूल जाना ही था। पिछले एक साल से अपना खूब ख्याल रखते हुए और मास्क को हर वक्त चेहरे पर सजाए हम सभी अध्यापक स्कूल आना जाना कर रहे थे। एक दूसरी की शक्ल भी ढंग से नहीं देख पाते थे। 

रोजाना दूर से देखते और अभिवादन करते और कोविड के नियमों का पालन करते हुए एक अलग अलग जगह बैठ जाते और अपना काम निबटाते। जैसा कि मैंने बताया था कि मार्च और अप्रैल का समय हमारे सरकारी स्कूल में दाखिले का होता है वो समय भी आ गया। दाखिले शुरू हुए अब मेरे को बच्चों के एडमिशन करने थे।जिसके लिए उनके माता-पिता को आकर आवेदन पत्र और दूसरे संबंधित प्रमाण पत्र खुद ही जमा कराने थे। वैसे भी सरकारी विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों के पास ऑनलाइन फॉर्म जमा करने की सुविधा नहीं होती, माता-पिता भी थोड़ा कम पढ़े लिखे होते हैं। किसी तरह से भगवान का नाम लेते हुए इस एडमिशन की प्रक्रिया को शुरू किया।




 दिन में कई सारे अभिभावक से मिलना होता। पूरी सावधानी अपनाते हुए उनसे आवेदन पत्र जमा कराए जाते। पूरी प्रक्रिया में मास्क और सैनेटाइजर सब बातों का ध्यान रखा जाता। पर पता नहीं कैसे अप्रैल के दूसरे हफ़्ते के आस-पास इस बहरूपिए विषाणु ने मेरे को अपनी चपेट में ले ही लिया। स्कूल से आने का बाद मेरे को बहुत थकान महसूस हो रही थी, बुखार नहीं था। लगा शायद वैसे ही लग रहा है शायद मल्टीविटामिन की जरूरत है, वो ले लिए। कुछ बेहतर लगा। 

अगले दो तीन दिन नवरात्रि,दूसरे शनिवार और रविवार की वजह छुट्टियां थी। इसलिए थोड़ा आराम मिला तो खुद को सही लग रहा था। कमज़ोरी तो महसूस हो रही थी पर बुखार नहीं था न गले और सर्दी का कोई लक्षण था। मन ही मन अपने आपको दिलासा दिया कि मै बिल्कुल ठीक हूं, ये कमज़ोरी और थकान का कारण शायद मनोवैज्ञानिक है, सब जगह करोना का सुन सुन कर ऐसा लगा होगा। रविवार की रात होते होते अब बुखार भी आना शुरू हो गया। बुखार उतारने की दवाई ली,दवाई ने असर दिखाया। 

जब सुबह स्कूल जाने के लिए उठी तो बुखार नहीं था। बहुत कमज़ोरी लग रही थी पर एडमिशन की प्रक्रिया भी पूरी करनी थी क्योंकि आवेदन आने की प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी थी। वैसे भी ऐसे भयावह हालात बन रहे थे कि फिर से लॉकडाइन लगने की संभावना थी। स्कूल पहुंचकर किसी तरह अपना काम पूरा किया। बारह बजते बजते स्कूल और पुनः सभी के लिए संपूर्ण  लॉकडाउन का आदेश आ गया। घर आकर बुखार लिया, तो दोबारा तेज़ तापमान निकला। 

अब बेटी और पति से एक अलग कमरे में डेरा जमाया। शाम होते होते  सोसायटी में भी काफी लोगों के संक्रमित होने के समाचार मिलने लगे। अब हॉस्पिटल में बिस्तर ना मिलने और ऑक्सीजन सिलेंडर न मिलने की खबरे ही हर जगह सुनाई दे रही थी। सड़क पर बस एंबुलेंस की ही आवाज़ सुनाई पड़ रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे हवा के छूने से ही लोग बीमार हो रहे हैं। मेरी भी हालत कुछ ठीक नहीं थी, बस गनीमत थी कि पति और बेटी ठीक थे और मेरा ऑक्सीजन का लेवल शायद मेरे योगा के भुजंग आसान की वजह से 98-99 पर अडिग था। मेरा मन अभी भी ये स्वीकार नहीं कर रहा था कि मेरे को करोना हो गया है पर अब बुखार नहीं उतर रहा था, ऐसा लगता था जैसे शरीर में जान नहीं बची है।सोसायटी में कामवाली तो आनी बंद हो गई थी, पति और बेटी किसी तरह संभाल रहे थे, कच्चा पक्का जैसे भी खाना भी बना रहे थे। घर में मतलब मायके और ससुराल में भी अभी किसी को कुछ नहीं बताया था।मेरी हालत खराब थी, नोएडा में डॉक्टर्स फोन नहीं उठा रहे थे, ऑनलाइन कंसल्टेशन भी प्रतीक्षा में आ रहा था। 




कॉविड के टेस्ट का रिजल्ट अभी नहीं आया था। खैर अब घर में भी सबको मेरी तबियत का पता चल चुका था। मेरा मायका और ससुराल मेरठ में है। दोनो तरफ से हाल-चाल जानने के लिए प्रतिदिन फोन आता था। पर ससुराल से फोन पर मेरी सासू मां मेरी देखभाल के लिए आने की ज़िद कर रही थी। मेरे पति उनकी उम्र को देखते हुए उनको संक्रमण से दूर रखने के लिए उनको मना कर देते थे।वैसे तो मैं बेटी और पति से अलग कमरे में थी पर रात को मेरे पति दूर से ही मेरे को देखकर और आवाज़ लगाकर कई बार पूछ जाते थे।

 बुखार के कई दिन बीत गए थे, अब कोई भी दवाई बुखार को कम नहीं कर पा रही थी। इसी बीच रात को जब एक दिन मेरे पति ने मेरे को आवाज़ दी तो मेरी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। मै हल्की बेहोशी में थी, ऐसे में मेरे पति अपनी सुरक्षा का भी भूलकर मेरे पास बैठकर मेरे को होश में लाने की कोशिश करने लगे। मैं होश में आ गई पर अब मेरे को अपने पति की तबियत की चिंता हो रही थी, लग रहा था कि मेरी वजह से कई ये बीमार ना पड़ जाएं। मैं सब के लिए अपने आपको ज़िम्मेदार मान रही थी। बस भगवान से सब ठीक होने की प्रार्थना कर रही थी।

अगले दिन जब ससुराल से फोन आया तब मेरी सासू मां के बात करने के बाद जब मेरे देवर ने मेरे पति से बात की तो वो बोला भैया,भाभी को लेकर मेरठ आ जाओ,सब मिलकर भाभी का ध्यान रख लेंगे। यहां डॉक्टर भी जान-पहचान के हैं, उनसे भी ठीक प्रकार से इलाज़ मिल जायेगा। यहां डॉक्टर दूर से मरीजों को देख रहे हैं। पहले तो मेरे पति थोड़ा हिचके क्योंकि ये बीमारी काफी संक्रमण वाली थी, वैसे भी देवर का बेटा सिर्फ चार साल का था। मेरा देवर सब समझ रहा था उसने एक दम से कहा कि भैया यहां घर बड़ा है, सब लोग हैं। जब सब साथ में होंगे तो भाभी जल्दी अच्छी होंगी। 




वैसे भी मम्मी-पापा के तो पहले ही वैक्सीन लग चुकी है और मेरे और शिवि ( देवर की पत्नी) के भी जब 1 अप्रैल से 21 साल के लोगों के वैक्सीन लगनी शुरू हुई तब एक एक डोज लग चुकी है। आप बिना कुछ सोचे समझे यहां आ जाओ।

जहां उस समय कई हृदयविदारक खबरें घर के लोगों को कोरोना से पीड़ित व्यक्ति को अलग-थलग करने की आ रही थी वहीं उस समय मेरे देवर ने और मेरे ससुराल के लोगों ने अपना पूरा साथ देकर अपने तो अपने होते हैं वाली कहावत को पूरी तरह सिद्ध कर दिया था। इस बीमारी की अवस्था में जहां मेरे मन भी कई बार नकरात्मक विचार आने लगे थे, लगने लगा था कि मैं अब शायद नहीं बचूंगी, मेरे बाद मेरी बेटी का क्या होगा? वो सब मेरठ,मेरी ससुराल में आते ही दूर होने लगे क्योंकि चाहे मैं अलग कमरे में थी पर अब मेरे को एहसास था कि मेरा परिवार मेरे से बहुत प्यार करता है और वो मेरे को कुछ नहीं होने देगा।अगले दिन ही, सारे टेस्ट होकर, एक अच्छे डॉक्टर का उपचार मिलना शुरू हो गया।

 इस पूरे समय में मेरा देवर डॉक्टर को दिखाने से लेकर मेरे को खाना पहुंचाने तक हर कदम पर मेरे और मेरे पति के साथ रहा। मेरे सगे भाइयों से बढ़कर उसने मेरी देखभाल की। वो मेरे लिए संकटमोचक बन कर आया। 

शादी के इतने सालों में ये पहला मौका था जब मैं अपनी ससुराल में दो तीन महीने रही। देवर के साथ साथ मेरी सास और मेरी देवरानी ने भी मेरी इच्छानुसार तरह तरह का खाना बनाकर मेरा ध्यान रखा। शादी के बाद हमेशा हम दोनों पति पत्नी की नौकरी की वजह से हमेशा घर से दूर ही रहे।आज मेरे को परिवार और अपनों का महत्व पूरी तरह से समझ में आ गया है। ये अपने ही होते हैं जो दूर रहने पर भी हमारी सारी परेशानियों की दूर कर देते हैं। 

तो दोस्तों ये थी मेरी कहानी अपने तो अपने होते हैं विषय पर आधारित। जहां भाई-भाई को संपत्ति और अन्य बातों पर लड़ते सुना जाता है,वहीं मेरे देवर ने सही मायने में मेरे लिए संकटमोचक की भूमिका निभाई। अब चूंकि विषय ही कुछ ऐसा था तो मैंने भी बिना किसी लाग लपेट के अपनी आपबीती को ही कहानी का रूप देने की कोशिश की। आप लोग अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें।।

#अपने_तो_अपने_होते_हैं

डॉ. पारुल अग्रवाल,

नोएडा

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