संगीता – पुष्पा पाण्डेय

संगीता अपने जीवन के धूप-छाँव से गुजरते हुए राष्ट्रीय स्तर की लेखिका बन चुकी थी। जीवन के इस चौथे पड़ाव पर आये दिन देश भर से कवि-सम्मेलन के लिए अनुरोध पूर्ण आमंत्रण आता था। संगीता तो इसकी कल्पना कभी की ही नहीं होगी साथ ही रिश्तेदारों को तो अभी भी अपने कानों और आँखों पर विश्वास नहीं होता था।——

यह वही संगीता है जिसका बचपन तिरस्कार और उपेक्षा में ही बीता। उसकी माँ को छोड़कर कोई उसकी भावनाओं को नहीं समझता था। पाँचवी बेटी जो थी। दादी और पिता का तिरस्कार उसे दब्बू और अन्तर्मुखी बना दिया। पिता को देखकर बहनें भी उसकी कद्र  नहीं करती थीं।

कभी कुछ बोलने की कोशिश भी करती तो ये कहकर चुप करा दिया जाता था कि ‘तुम सबसे छोटी हो। छोटे बडों के सामने नहीं बोलते।’

संगीता एक प्रतिभावान लड़की थी, लेकिन उसकी प्रतिभा को कौन देखता है?माँ का सहयोग और समर्थन हमेशा भरपूर मिला। उसकी खातिर वो कभी- कभी पति से भी उलझ पड़ी थी।

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इंसान भले ही उपेक्षा करे, लेकिन विधाता ने उसकी तकदीर फुर्सत में लिखी थी। दुबली पतली साधारण सी दिखने वाली लड़की शारीरिक और मानसिक रूप से काफी स्वस्थ थी। पहली कक्षा से लेकर स्नातक तक हमेशा प्रथम ही आती रही। उसकी प्रतिभा को देखकर बहनें प्यार और शाबाशी की जगह मन-ही-मन उससे ईर्षा करने लगीं। बड़ी बहन तो हर समय उसे नीचा दिखाने की ताक में लगी रहती थी। बड़ी बहन घर में काफी सुन्दर और व्यवहारिक होने के कारण घर के साथ-साथ आस-पास में भी चहेती बन गयी थी। वह अपने सामने किसी को उभरने देना नहीं चाहती थी। स्नातक करने के बाद शादी की बात चली थी उसके पिता ने किसी साधारण नौकरीपेशा लड़के से शादी करने को तैयार थे, जहाँ बाकि लड़कियों की शादी डाॅक्टर, इंजिनियर से किए थे, क्योंकि संगीता साँवली और साधारण नाक- नक्सल वाली थी।




तकदीर तो विधाता ने सोने की कलम से लिखी थी। शादी एक इंजिनियर से ही हुई। लड़का गाँव का था। जब शादी करके ससुराल गयी तो संयुक्त परिवार का प्यार और सम्मान पाकर संगीता स्वयं को समर्पित कर दिया। पति काफी सुलझे विचार का, खुद से ज्यादा संगीता का सम्मान देने वाला था। पति के प्रोत्साहन पर आगे अपनी पढ़ाई जारी रखी और डाॅक्टरेट की उपाधि हासिल कर ली। इसी बीच दो बच्चों की माँ भी बन गयी। 

कहते है न कि खुशियों के वक्त को पर लग जाते हैं और देखते-ही-देखते  दोनों बच्चे बड़े हो गये। यहाँ पर एक बार फिर गम के साये ने घेर लिया। बेटी गलत संगति में पड़ गयी और नशे की शिकार हो गयी। काफी मुश्किलों का सामना करने के बाद वह इस नशा से बेटी को मुक्त करा पायी। जिन्दगी फिर से दौड़ने लगी और दोनों बच्चे उच्च अधिकारी बन गये। संगीता की हँसी वापस लौट आयी। 

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ये जिन्दगी, ये संसार, ये रिश्ते- नाते कुछ भी यहाँ स्थायी नहीं है। मौसम बदला और

एक बार फिर तकदीर ने करवट पलटा और ससुराल के वही लोग जो कल तक जान छिड़कते थे अब   संगीता और इसके पति को पैतृक सम्पत्ति से बेदखल कर दिए। पूरी सम्पत्ति के मालिक बड़ा भाई  बन बैठा।

संगीता पति की नौकरी के कारण अब-तक शहर में किराए के मकान में रहती थी। उसने कभी शहर में घर खरीदने की जरूरत ही नहीं समझी। उसका कहना था कि ऐसे परिवार को छोड़कर अजनबियों के बीच कौन रहेगा?

लेकिन सम्पत्ति अपनों के बीच भी कड़वाहट पैदा कर देती है। अब संगीता शहर में घर खरीदकर रहने लगी।

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समय का उपयोग करने की गरज से उसने कुछ लिखना शुरू किया। पति ने उसकी प्रतिभा को पहचाना और काफी सहयोग और प्रोत्साहन देकर उसे आगे बढ़ने  को प्रेरित करता रहा। पति का प्यार संगीता को आगे बढ़ने में सहायक सिद्ध हुआ और आज संगीता देश की जानी- मानी लेखिका बन गयी है। जीवन में धैर्य के साथ कभी खुशी तो कभी गम का सामना करते हुए संगीता एक मुकाम हासिल कर ही लिया।

#कभी_खुशी_कभी_ग़म 

 

स्वरचित

पुष्पा पाण्डेय 

राँची,झारखंड।

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