सम्मान की सूखी रोटी – विमला गुगलानी  : Moral Stories in Hindi

  “ अरी अचला, जल्दी हाथ चला,अभी तक तुझसे चादरें नहीं बदली गई, दोनों कमरे अच्छें से साफ करना, रावी को धूल मिट्टी से बहुत एलर्जी है” मनु बस पहुंचने ही वाला होगा” सावित्री ने मेड अचला को डांटते हुए कहा। 

“ और तुम प्रीति अभी तक तुमसे रसोई का काम पूरा नहीं किया गया, भटूरे का आटा लगा या नहीं”, बच्चों को गर्मा गर्म और फूले फूले भटूरे बहुत पंसद है, और हां जरा अपना हुलिया भी ठीक कर ले, ये घी, तेल की दुर्गधं वाला सूट बदल लेना”।

      “ अजी सुनते हो, जितने दिन बच्चे रहेगें, दवाईयां समय से खाते रहना, खास तौर पर खांसी की, हर समय ‘ खाऊं- खाऊं’ करते रहते हो, वो कौनसे हमेशा यहां रहने वाले है, मुशकिल से तीन चार दिन की बात है”

    “ तान्या और मंयक, ध्यान से सुनो, तुम दोनों का कमरा प्रणव और समायरा को दे दिया गया है, अपना सारा सामान ममी पापा के कमरे में शिफ्ट तो कर लिया होगा।जितने दिन वो यहां रहेगें, खबरदार कोई उस कमरे में गया तो, और शोर भी मत करना,और तमीज़ से रहना। शहरों में रहने वालों को तुम्हारी तरह हुड़दंग पंसद नहीं”

    पिछले दो दिनों से सावित्री का भाषण लगातार चालू था। छोटा बेटा मनु यानि की मनुज अपने परिवार सहित आ रहा था। सावित्री के दो बेटे थे अनुज और मनुज।दोनों में दस साल का अंतर था।  मनु के पिता राघव वहीं कस्बे  के सरकारी  स्कूल में अध्यापक थे, ठीक ठाक सा पुशतैनी घर था। पढ़ाई में अनुज काफी अच्छा था,

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अच्छे अंकों से बारहंवी पास की , लेकिन शहर में भेज कर पढ़ाने की हिम्मत नहीं थी राघव जी की, तो उसे काम पर लगा दिया। पहले तो वो किसी और की  स्टेशनरी की दुकान पर लग गया, फिर धीरे धीरे जब काम सीख गया तो राघव जी ने अपनी बचत और फंड वगैरह निकालकर उसे अपनी दुकान खुलवा दी।इसी बीच उसकी शादी और दो बच्चे भी हो गए।

          मनुज की अच्छी किस्मत कि घर के हालात ठीक हो गए तो उसे दसवीं के बाद ही शहर जाकर पढ़ने का मौका मिल गया। पढ़ाई में तेज था, इजियिनरिंग  में दाखिला मिल गया और सरकारी नौकरी भी मिल गई और वहीं पर ही किसी दोस्त की जानकारी से रावी से रिशता हो गया। रावी भी नौकरी करती थी और उसी शहर में उसके मायके थे।

काफी अच्छे घर की नकचढ़ी लड़की थी।मनुज का कस्बा एक बड़े गांव के समान था। पहले तो रावी राजी नहीं थी वहां शादी के लिए , लेकिन घर वालों को और उसे भी मनुज पंसद था, अच्छी सरकारी नौकरी, आवास , गाड़ी , नौकर चाकर सब देखते हुए उसने हां कर दी। वैसे भी उसे कहां वहां जाकर रहना था। शादी भी शहर में ही हुई। अब तो दस साल हो चुके थे।

          साल में एक बार ही मनुज परिवार सहित दो चार दिन के लिए आता। सावित्री उन्के स्वागत के लिए घर सिर पर उठा लेती।राघव ने कई बार समझाने की कोशिश की, लेकिन सावित्री को ममता के आगे कुछ न सूझता। प्रीती और अनुज दिन रात उन्की सेवा करते, लेकिन कहते है न घर की मुर्गी दाल बराबर। उसे तो जैसे मनु की ही रट लगी रहती

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। कुल दो तीन  बार वहां गई थी, हमेशा उन्के ठाठ बाठ का गुणगान करती। मनु और रावी तो व्यस्त रहते, बच्चे भी पढ़ाई में मस्त। पांच सात मिंट के लिए ही नाशते पर मिल पाते। ड्राईवर उन्हें दो बार शहर घुमा लाया था। दिन में मेड ही खाना बना कर देती। यह सब देखकर सावित्री निहाल थी। 

        वहां से आती तो और जब वो यहां से जाते, उन्हीं के गुणगाण करती। “ कैसे बच्चे पटर पटर अग्रेजीं बोलते है, और मुझे दादी नहीं, ग्रैनी कहते है, और बहू, कैसे हाई हील पहन कर मटक मटक चलती है, और खुद ही गाड़ी लेकर आफिस जाती है”।

“ तुझे कितनी बार घुमाया है गाड़ी में, राघव ने चुटकी लेते हुए कहा”, 

“ अरे छोड़ो भी, ड्राईवर है तो सही वहां”, कहने को तो कह दिया, लेकिन मन के एक कोने में टीस सी उठी, कि मनु या रावी कभी उन्के साथ कहीं नहीं गए और न ही कभी कुछ देर पास बैठ कर हाल चाल पूछा, ऐसे ठाठ बाठ उन्के किस काम के, और यहां सब उन दोनों का कितना ध्यान रखते है। प्रीति तो अक्सर उन्के सिर पर तेल लगाती और अपने हाथों से उन्का मनपंसद खाना तैयार करती।

दिन त्यौहार पर पूजा, श्राद्ध, नवरात्रे सब कितना मनोयोग से करती है, मगर फिर सावित्री यह सोच कर मन समझा लेती कि वो व्यस्त है, शहरों में रहने के अपने ही तौर तरीके है। दस  दिन से ज्यादा वो कभी  वहां रह नहीं पाई और न ही उन्हें किसी ने रूकने के लिए कहा। 

      अनुज के बच्चे और प्रीती सब बहुत सस्कांरी थे, दोनों पास वाले कालिज में पढ़ रहे थे।जब भी मनु आता वो दिल से उन्की सेवा करती, छोटे भाई समान मानती। उन्का भी दो बार शहर जाना हुआ,

टेबल पर नाना प्रकार के व्यजंन सजे होते, लेकिन प्यार के दो बोल कहीं नहीं थे, वही व्यस्तता का बहाना और औपचारिकताएं, मगर प्रीती ने कभी कोई शिकायत नहीं की। इस बार भी तीन दिन रहकर वो चले गए। घर के बने लड्डू , मठिया, मसाले, आचार और भी न जाने क्या क्या सावित्री साथ ही बांध देती। जब भी मनु ने आना होता , दस दिन पहले ही तैयारियां शुरू हो जाती। 

  उस रात  हर रोज की तरह सब खाना खाकर सोए कि रात को राघव जी के सीने में तेज दर्द उठा, जल्दी से पास वाले हस्पताल में लेकर आए, चैकअप वगैरह हुआ तो डाक्टर ने कुछ दवाईयां वगैरह से एक बार तो ठीक कर दिया

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, लेकिन उसने ये भी कहा कि हार्ट अटैक आया है, किसी बड़े हस्पताल में दिखाना होगा। मनुज से बात की और अगले दिन ही अनुज दोनों को लेकर शहर पहुंच गया। मन तो प्रीति का भी साथ जाने को था, परतुं बच्चों, घर और भैंस की भी देखभाल करनी थी तो वो जा न सकी।

       चैक अप वगैरह सब हो गए, एक दो बार मनुज साथ गया, फिर बाद में वो ड्राईवर को भेज देता। गाड़ी उसे भी चाहिए होती, चलो गाड़ी तो अनुज के पास भी थी,लेकिन शहर के रास्तों वगैरह की जानकारी नहीं थी, फिर पापा को सभांलना, मां को भी देखना। चलो जैसे तैसे आपरेशन हो गया, सारा खर्च भी लगभग अनुज ने किया। राघव जी ने कहा, सारे बिल वगैरह जमा करते जाना, जितना मिल गया सरकार से लेने की कोशिश करूगां। 

     एक महीना वहां रहकर सावित्री को असलियत समझ में आ गई। बच्चे उन्के कमरे के पास से नाक भौं सिकोड़कर निकलते। जिस बहू की तारीफ करती नहीं थकती थी, एक दिन भी हस्पताल नहीं गई। बीच में दो दिन अनुज की गाड़ी खराब हो गई, मनुज भी बाहर गया हुआ था, कैब बुलाकर गए, जबकि रावी की छुट्टी थी। कह दिया सिर दर्द हो रहा है। 

       कई बार मेड के न आने पर खाना बाहर से ही मंगवा लिया जाता, लेकिन सावित्री क्या करती, एक तो उसे बाहर का पंसद नहीं था, दूसरा राघव जी के लिए तो हल्का खाना चाहिए था।वो खुद बनाती। उधर दुकान भी नौकरों के हवाले थी। कभी कभी प्रीती चक्कर लगा आता। दो दिन पहले प्रीती की भाभी घर पर आई तो वो उसे छोड़कर शहर आ गई । डाक्टर ने कह दिया था कि अब वो जा सकते है, लेकिन बीच में दिखाने आना होगा। 

     अगले दिन सुबह ही चारों घर के लिए रवाना हो रहे थे। सिवाय मनुज के कोई उठ कर उन्सें मिलने , उन्हें बाहर तक छोड़ने भी नहीं आया। सावित्री  की आंखें खुल चुकी थी। अब उसे ‘ सम्मान की सूखी रोटी’ का मतलब समझ आ गया था।वो कई बार सोचती थी कि शहर जाकर ही रहे, वहां की चकाचौंध से बहुत प्रभावित थी,

लेकिन उसके अपने घर में भले ही शहर जितनी सहूलतें नहीं थी, लेकिन सम्मान तो था। घर पहुंच कर उसने तान्या और मंयक को जोर से गले लगाया और प्रीती और अनुज को भी दिल से ढ़ेरो दुआएं दी।दो साल होने के आए, मनुज अकेला ही आया और न ही सावित्री ने अब पहले जैसा मान मनुहार किया, फिर भी मां तो मां ही होती है। सम्मान पर ठेस लगने वाले गहरे जख्म भरने में देर तो लगती ही है। 

विमला गुगलानी

चंडीगढ़।

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