समीर की उंगलियाँ जब भी ब्रश थामती थीं, रंग जैसे सांस लेने लगते थे। कैनवास पर फैला हर रंग, उसकी आत्मा की गहराइयों से निकला एक भाव लगता था। लेकिन हैरत की बात थी कि इन रंगों की आवाज़ कभी किसी ने सुनी ही नहीं।
बीते बीस वर्षों से समीर अपनी कला में रमा था।खेलने की10 वर्ष की उम्र से ही वह ब्रश और रंगों के साथ रमने लगा था एक वक़्त था जब उसने बड़े सपने देखे थे — प्रदर्शनियाँ, प्रशंसा, पहचान पर समय की धूल ने उसके इन सपनों को कहीं गर्त में दबा दिया था। मजबूरी में उसने नगरपालिका के एक बगीचे में माली की नौकरी कर ली थी ,
उसकी नजर में उसके भी 2 फायदे थे क्योंकि उस हरियाली में उसे रंगों के नए रूप दिखाई देते थे। फूलों की भीनी गंध,हिलते फूलों पर उड़ती तितलियाँ, सूरज की किरणें, बारिश की बूंदें—ये सभी उसे एक अन्त: प्रेरणा देते थे।
दूसरा फायदा, 2 कमरे के सामान से भरे घर में कल्पना भाव खुद ही भाग लेते। लोग उसे “माली समीर” कहकर बुलाते, लेकिन वह कभी नाराज़ नहीं हुआ। उसके चित्रों की आत्मा उस बग़ीचे की मिट्टी में पल रही थी।
यहां तक कि उसके घर वाले भी उसे प्रताड़ित करने से ना चूकते सभी उसकी हंसी उड़ाते अरे इसकी शादी हो जाएगी तब अपनी बीवी बच्चों को क्या खिलाएगा? पर समीर अपने काम में ही लगा रहता। हां एक उसकी मां जरूर ऐसी थी जो उसे हमेशा प्रोत्साहित करती ,”बेटा सबके दिन फिरते हैं तुम्हारा भी कभी ना कभी समय जरूर आएगा। तुम अपने पसंद के काम में लगे रहो।
हमें दुनिया से क्या लेना दुनिया तो कहती रहती है हमें वही करना चाहिए जो हमारे अपने मन को अच्छा लगे। समीर को मां की बातें सुनकर एक नया संबल मिलता यहां तक कि समीर के पिता भी उस पर खीजते पर समीर सभी की बातों को अनसुना कर अपने काम में लगा रहता और घर खर्चे में योगदान के लिए ही उसने यह मालिक की नौकरी मात्र 15 हजार रुपए में स्वीकार कर ली थी। उसमें से 3000 अपने लिए रख बाकी 12000 अपनी मां को दे देता था।
समीर का जीवन एक ऐसे चित्र की तरह था, जो अधूरा लगते हुए भी भीतर से पूर्ण था। लोग उसकी कला पर हँसते थे, उसे निकम्मा, बेकार और ‘घिसा-पिटा कलाकार’ कहते थे। रिश्तेदार भी उससे दूरी बनाए रखते थे, जैसे वह उनके लिए मखमल में टाट का पेबन्द ही था पर उसे आत्मसंतुष्टि थी ।
लेकिन फिर एक दिन बगीचे में एक नवयुवक आया—सादे कपड़े, गंभीर दृष्टि और शांत मुस्कान वाला। उसने समीर को चित्र बनाते देखा, रुका और धीरे से पूछा, “क्या आपने ही ये चित्र बनाए हैं?”
समीर ने मुस्कुरा कर सिर हिलाया। युवक ने कहा, “इनमें तो आत्मा बोलती है… क्या आप कुछ चित्र मुझे बेचेंगे?”
समीर ने हौले से कहा, “अगर आपको पसंद आए तो आप कुछ ले सकते हैं… मैं खुश होऊंगा कि कोई इन्हें समझ पाया।”
इनकी कीमत तो बता देते
कीमत कैसे बताऊं कभी किसी ने खरीदे ही नहीं उल्टे इनमें सभी ने नुक्स ही निकाले।
फिर भी कुछ तो आप बताते ।
बेटा आप इनकी लागत ही दे दो लागत ₹100 प्रति चित्र की लागत।
उस युवक ने चुपचाप सभी चित्र खरीदे। नाम बताया नहीं, सिर्फ इतना कहा, “आपसे मिलकर खुद को छोटा महसूस कर रहा हूँ।”
कुछ ही हफ्तों में शहर की एक मशहूर आर्ट गैलरी में समीर के चित्र प्रदर्शित हुए—पर नाम था ‘अमीश आर्ट गैलरी’। भीड़ लगी थी, तारीफों की झड़ी थी, और फिर… वही पेंटिंग जिसे लोग पहले मिट्टी का काम समझते थे, एक अरबपति ने करोड़ों में खरीदी थी और भी आगे भी ऐसे ही बहुत से चित्र बनवाकर विदेश में अपनी आर्ट गैलरी लगाना चाहता था।
उसके बाद अमीश खुद बगीचे में , समीर को खोजता हुआ आया। आंखों में चमक थी, पर आवाज़ में विनम्रता। “सर, मैं ही वह नवयुवक हूँ… जिसने आपकी कलाकृतियां खरीदी थीं, लेकिन दुनिया के सामने नाम मेरा लगा, माफ कीजिएगा, हां वे बात अलग है नीचे कोने में आपका नाम लिखा है जो पारखी ही खोज सकते हैं…
अब सबको बताऊंगा असली कलाकार मैं नहीं कोई और है आपको अभी मेरे साथ आना है,मैंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस रखी है अपने साथ लाये कपड़ों को उनको देते हुए बोला, “आप इनको पहन लें।”
समीर की आंखों में एक संकोच था । लड़के ने उनकी आंखों में प्रश्न देख कहा, “क्या यह कपड़े आज आपको आपका छोटा भाई देता तो आप नहीं लेते ??
मेरा नाम अमीश पटेल है,मैं एक छोटा सा कलाकार हूँ।
समीर स्तब्ध रह गया। उसके चित्रों ने अपनी राह बना ली थी, वह भी बिना किसी शोरगुल के।
उसी दिन, 1 घंटे बाद उसी बगीचे के बाहर पत्रकारों की कतार थी। टीवी, रेडियो, अख़बार, सब उसे खोज रहे थे। पड़ोसी जो उसे माली कहकर अपमानित करते थे, अब उसे बधाइयाँ दे रहे थे जिनके तानों के डर से अपनी मां से मिलने भी नहीं जाता था।
रिश्तेदार जो कभी शादी-ब्याह में बुलाते नहीं थे, अब हर फोन कॉल में उसके नाम की चर्चा कर रहे थे। प्रेस कॉन्फ्रेंस खत्म हो चुकी थी अमीश भी जा चुका था।
समीर हँसता रहा, पर आँखें गीली थीं।
उसने अपने कैनवास पर नया चित्र बनाना शुरू किया—एक आदमी, जो रंगों से लिपटा है, लेकिन आंखों में सूनापन लिए अकेला कुछ अपनी धुन में बैठा है। नीचे लिखा था:
“कला को समझने के लिए दिल चाहिए, और इज्जत देने के लिए नजर—पर ये नजरें तब तक नहीं मिलतीं, जब तक जेब भारी न हो।”
उसी पल उसे एहसास हुआ—उसकी कला की इज्जत तब नहीं थी जब वह सच्चा कलाकार था, बल्कि अब है जब वह “बिका” करोड़ में ।
समीर जान गया था—इज्जत इंसान की नहीं, उसके पीछे लगे दाम की होती है।
और वह फिर से अपने बगीचे में लौट गया—जहां न कोई भीड़ थी, न कैमरे—बस रंग थे, और वही पुरानी शांति… जहां उसकी आत्मा अब भी बोलती थी ।
यह कहानी सिर्फ एक पेंटर की नहीं, हर उस इंसान की है जो अपनी पहचान पैसे से नहीं, प्रतिभा से बनाना चाहता है।दुनिया इंसान की इज्ज़त नहीं उसके पैसे के मोल से करती है।
स्वरचित और मौलिक
डा० विजय लक्ष्मी
‘अनाम अपराजिता’
अहमदाबाद
#इज्जत इंसान की नहीं पैसे की होती है।